कोरोना काल प्रकृति की शादियों की लंबी थकान को आराम देने के लिए आया था। प्रकृति सुख की हवा में सांस ले रही थी। पत्ते बिल्कुल हरे, धुले हुए हमारी आंखों के सामने चमक रहे थे। पंछियां स्वच्छ हवा में उड़ रही थी और हम जैसे आम लोगों का लंबे समय बाद साफ-सुथरी हवा में दम घुट रहा था। हम अपने सांस लेने की आवाज सुनकर घबड़ाया करते थे। घड़ी की टीक-टीक सुनाई देने जितना मौन घरों में पसरा हुआ था। पानी पीने की गट-गट की आवाज से हमारे माथे पर पसीने की उभर आती थीं। हम सभी डरे हुए थे। मरने का डर सभी के चेहरे पर पसरा हुआ था। जीवन का क्या है? जैसे प्रश्नों में उलझे हम सब दो गज की दूरी में जड़ हुए पड़े थे। मैं उस दौर में गांव के घर में बरामदे में बैठा दीवारों पर सजे चित्रों पर छिपकली को दौड़ते देखता और चिड़िया को घोंसला बनाते। छिपकली के थकने से पहले मेरी आंखें थक गईं। चिड़िया का घर बसने से पहले कोरोना की सांस टूटने लगी। घड़ी की टीक-टीक में अतीत की गूंज सुनाई दे रही थी उसके शोर में बहरे होने से पहले मैं पहले जैसा हो गया।
हम सभी पहले जैसे हो गए। पत्तों के रंग बदल गए। प्रकृति की सांस टूटने लगी और हम हरहरा कर जीवित हो उठे।