अक्सर अपनी हाथों की रेखाओं में तुम्हें देखता हूं। अब थोड़ी धूधली सी लगती है। कुछ समय पहले बहुत सी रेखाएं अधूरी सी रह गई थीं शायद उन्हें तुम्हरा इंतजार रहा होगा जिन्हें तुमसे मिलते हीं पूरे होने की वजह मिल गई थी। कम होने का कारण ढूढना तुम्हें भूलने जैसा लगता है। पर सच कहूं तो ढूंढने जैसा कुछ है नहीं सारा कुछ मेरी लकीरों में छुपा बैठा है।मुझे आज भी याद है जब मैं तुम्हारे साथ होता था मैं अक्सर प्रेम की लकीरें तुम्हारे पीठ पर खींचा करता था। उंगलियों से कुछ लिखा करता था। क्या लिखता था अब ठीक-ठीक याद नहीं। लेकिन उसे पढ़ने में तुम हर बार हार जाती थी। मेरी लकीरें जीत जातीं। फिर मेरे लिखे पर तुम अपनी जुल्फें डाल देती और मेरा लिखा मिट जाता। तो कभी तुम्हारे गर्दन से नीचे उतरता पसीना उसे बहा ले जाता।मैं फिर लिखता, हर रोज लिखता और लिखता हीं गया एक दिन मैंने देखा मेरे लिखे के आस-पास एक काले तिल ने जगह बना ली है। बिल्कुल गाढ़ा। काले बादलों जैसा। वो बादल बरसते नहीं थे बस मुझे ठंडक दे जाते थे उस ठंडक में मानों मेरी लकीरें हमेशा के लिए जीत गई हो। अब वो पसीने से बहता नहीं था और तुम्हारी जुल्फों के साये में वो मिटता तो नहीं पर गुम हो जाता था। मैं उन्हें खोजने के लिए तुम्हारे बालों में अपने हाथ फेरता तिल की तलाश में हर रोज खो जाता। कहां? ये ठीक से याद नहीं। और उस तिल पर अपने उंगलियों के निशान छोड़ता। मैंने एक दिन पाया मेरी लकीरों का गाढ़ापन कम हो चला है। और आज भी लकीरों की स्थिति कुछ वैसी हीं है। मानों मेरी लकीरें उस तिल में समा गई हो कहीं या तुम्हारे जुल्फों के जंगल में खोने जैसा कुछ। मैं तुम्हें वापस पाने कि चाह नहीं रखता बस अपनी लकीरों की चिंता है मुझे। ज्यादा नहीं बस जीतनी बचीं है उतने की। तुम वो तिल संभाल के रखना जुल्फों के जंगल में वो खो जाएं फर्क नहीं बस उनका होना मेरे लकीरों के अस्तित्व के लिए जरूरी है। मैं अब उन्हें ढूंढने कभी नहीं आऊंगा पर मेरी लकीरों को देख उनकी स्थिति जान जाउंगा।
-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com