सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, February 3, 2020

त्रासदी

हां और ना के बीच में एक त्रासदी सी होती है। एक ऐसा शोक जो सारी उम्मीदों को समाप्त कर देता है। मानों शरबत में घूलते उन अघुनशिल शक्कर के दानों की तरह जो अनचाहे खुद को घोलने की कोशिश कर रहा हो पर नाकाम है। और हर बार कुछ दाने शरबत का हिस्सा बनकर भी उसमें अपनी मीठास नहीं घोल पा रहा हो। ऐसे हीं शक्कर के दानों जैसी स्थिति उस त्रासदी में होती है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा होता है। जहां प्यास है और मिठास भी पर स्वाद की किमत शक्कर को चुकानी होती है बस दानें बदल जाते हैं। शायद कभी हां हो जाए और वो दानें शक्कर के स्वाद का रूप ले बैठें।

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