सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, April 5, 2020

पुष्प

जब इन पुष्पों को पौधे के साथ खेलता हुआ देखता हूं मन प्रसन्न हो उठता है। जैसे मां का अपने बच्चों के साथ होना। यह पुष्प संतान हीं तो हैं पौधों के। उस स्थिति में पुष्प को लाने के लिए पौधे ने बहुत मेहनत की हुई होती है। मैं पुष्पों को तोड़ना नहीं चाहता। नादानी में बहुत से फूलों को उनके समस्त विकास के पूर्व हीं अलग करने का पाप किया है मैंने। आज भी मेरे आस-पास लोग मूर्ती पूजा की आड़ में ना जाने कितने पुष्पों का बध‌ करते हैं। पत्थर से बनी मूर्तियां निर्जीव होती हैं। पौधे, पुष्प सजीव। निर्जीव को प्रसन्न करने के लिए संजीव की बलि क्यों? और एक समय के लिए इसे नितिगत मान भी लूं तो कौन करता है इनका भोग? तोड़ कर चढ़ाया गया फिर खुद में मुरझा बैठे टोकरी में भरकर उठाया और फेंक दिया। हमनें इन पुष्पों को क्या दिया।इन्हें तोड़ना मुझे कहीं से सार्थक नहीं लगता। मैं इन पुष्पों को पौधे के साथ बढ़ता हुआ देखना पसंद करता हूं। जहां यह स्वयं मुरझाते हैं और अपना पूरा जीवन जीते हैं।-पीयूष चतुर्वेदीHttps://itspc1.blogspot.com

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