सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Tuesday, April 28, 2020

क्या हम सच में ऐसे हीं हैं?

पत्तों की आपस में बातें हो रहीं हैं। बहुत धीमी आवाज में। भविष्य पर चर्चा हो रही हो मानों। उस चर्चा में पंछि भी शामिल हैं। पत्तों को खुद से ज्यादा जड़ की फ़िक्र है। जहां से उसे पोषण मिलता है। जड़ों को फ़िक्र है उस तने की जहां पंछियों का घोंसला है। और पंछियों को अपने घर की चिंता है जो इस पेड़ के तने से लगी हुई है। इस चर्चा में और भी कई शामिल हैं। झींगुर, गिलहरी, चिटीयां। इन बातों में उन्हें चिंता है हमारे घर से बाहर निकलने की। कि कहीं सब वापस पहले जैसा ना हो जाए। क्या हम सच में ऐसे हीं हैं? क्या हम वापस वहीं करेंगे जो अब तक करते आए हैं? हमें भी आवश्यकता है मिलकर चर्चा करने की। पर हम बिल्कुल अकेले हैं, हमेशा की तरह। पहले भीड़ में थे अब खुद में हैं। -पीयूष चतुर्वेदी Https://itspc1.blogspot.com

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