सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Tuesday, June 2, 2020

पिताजी का पूरा होना

रोहन (परिवर्तित) अपना सब कुछ एक कमरे में व्यव्थित कर खुद को व्यस्त रखता है। इतना व्यस्त जिसमें वह खुद से बाहर ना निकल सके। खुद में अकेला अपने काम से काम रखने वाला रोहन अपनी सोच भी इसी कमरे तक सिमीत रखता है। अपना सोचा हुआ या तो वह सादे पन्नों पर बिछाने लगता है या अपनी सोच भरी आंखों को आईने में देखता आंसूओं को बहने देता है। आज उसने अपने आंसूओं को शब्द दिया उसने सारे आंसू पन्नों पर स्याही की जगह खर्च किया। ”वैसे तो ज्यादा जाना नहीं होता लेकिन घर वक्त गुजारना एक आशिर्वाद सा लगता है। एक अजीब सी खुशी होती है तितलियों को फूल के रस मिल जाने के समान। वहां सब कुछ जो मैं अपनी आंखों से देख सकता हूं। जो त्वचा महसूस करती है। पेड़ों की सरसरी हवा से लेकर पत्थरों की ठोकर तक में पिताजी के दर्शन पाता हूं। हवाएं पिताजी का संदेश लेकर आती हैं और ठोकरें ज्ञान देकर जाती है। कुछ ९ वर्ष पहले जब उनका देहांत हुआ था। तब वो मुझमें बहुत ज्यादा बचे हुए थे। उस समय सभी ने उनकी यादों को बराबर-बराबर बांट लिया था। मैं, भैया, बाबा, आजी, घर वाले, रिश्तेदार सभी। सबका मन भारी था। समय बिताता गया और वो सभी के भीतर कम होते गए। पर समाप्त नहीं। सभी ने उनको अपने भितर थोड़ा-थोडा़ बचा के रखा है। बचे हुए हैं वो सभी में थोड़ा बहुत। सभी के पास उनसे जुड़ी कोई न कोई खास यादें हैं और उन यादों की चर्चा होती रहती है। लेकिन मां...  जब भी मां को देखता हूं तो उनमें पूरा पाता हूं। जितना उन्होंने विवाह के बाद उनको पाया था और फिर बीते सालों में साथ बिताए हर क्षण को, उनको उन्हीं के रूप में पूरा पाता हूं। मेरे हर उम्र की पिताजी से जुड़ी यादें जो बिसर गए थे वो ताजा हो जाते हैं। कुछ सालों तक मैं सोचता रहा पिताजी के जाने के बाद सब कुछ समाप्त हो जाएगा। उनकी द्वारा बनाई सारी चिजें। पर देखा वो सारे पेड़ अब भी मुस्करा रहे हैं, मकान अब भी अपनी बाहें फैलाए हुए है। हमारे आंसू भी घर की निंव को कमजोर नहीं कर सके। कुछ पौधे समाप्त हुए पर मालूम पड़ा उन्हें दीमक चाट गई उनका पिताजी से कोई संबंध नहीं। सारी भौतिक चिजें वैसी ही थी। यहां तक कि मैं भी। मैं ग़लत था। फिर सभी रोते गए सबने अपना ग़म हल्का किया और काम के बोझ के आगे घुटने टेक दिए और सभी में बच गया पिताजी का होना कुछ थोड़ा-थोडा़। पर मां..  मां के बहते आंसुओं ने उन्हें कम नहीं होने दिया। आंखों के निचे पड़ रहें काले गड्डे में मानों पिताजी ने कहीं घर बना लिया हो। हर बात में उनकी यादें साथ रहने लगीं। पहले ऐसा लगता था कि अस्वस्थता है जो मां को बिमार कर देगा। पर नहीं यह प्रेम था आंखों के निचे के गड्ढे, गालों पर तैरते आंसू, अतरंगी वेस-भूषा, गालों पर गहरी झुरियां, सफेद होते बाल सभी में पिताजी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे थे। ऐसा नहीं कि घर की दीवारों पर उनकी तश्वीर नहीं, अपने साथ भी मैं उनका चित्र हमेशा रखता हूं पर उन तस्वीरों को देखने के बाद भी एक तलाश जारी रहती है भितर कहीं। पर मां को देखने के बाद तलाश पूरी हो जाती है। पिताजी को मां के साथ बूढ़ा होता हुआ देखता हूं। जहां सब कुछ अपनी उम्र के अगले पड़ाव में जाने की दौड़ में लगा हुआ है लेकिन यादें अब भी जवान हैं। मैं जानता हूं ये यादें अंतिम सांस तक जवान रहेंगी। और पिताजी उनमें हर वक्त पूरे रहेंगे। और सच कहूं तो मुझमें उनका थोड़ा होना मां को देखने के बाद पूरा होने जैसा हो जाता है। और अपने आंखों के निचे काले घेरे और गहरा होता महसूस करता हूं। पर उसे पूरा खोने का डर हमेशा मेरे अंदर घर छोड़ते वक्त बना रहता है। और इस डर को मैं समाप्त नहीं होने देना चाहता। मैं सदैव पिताजी को स्वयं में पूरा पाना चाहता हूं। उतना हीं जीतना मुझमें वो अंतिम समय में थे।"पन्नों पर लिखा इतना सब कलम के रंग और आंसूओं में सना हुआ है। पहचान कर पाना मुश्किल है कि लिखा हुआ कलम का है या आंसू का। रोहन वापस शिशे के सामने अपने आंखों के नीचे पड़े काले रंग को देख मुस्कुरा रहा है। 

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