सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Sunday, May 8, 2022

मैं उसका समय हूं

मैं समय की भीड़ में खंजन चिड़िया के पंख लिए गायब हो जाना चाहता हूं। सोचता हूं पिताजी के लगाए कदम के पेड़ पर घोंसले में छुप जाऊं लेकिन विकास की बढ़ती गति से सुना है पेड़ कटने वाला है। वहां ठहरा नहीं जा सकता। पंक्षियो को इसकी खबर बगल से गुजरते गाड़ियों ने पिछले वर्ष हीं दे दिया है। इसलिए घर के पास वाले भूतिया चिलबिल के पेड़ पर घोंसले में छिप जाऊंगा। सुना है लोग भगवान से कम और भूत से ज्यादा डरते हैं। सारे सही- ग़लत काम भगवान के नाम पर करते हैं। मेरे पिता सही या ग़लत नहीं अच्छे काम किए थे। इसलिए कदम का पेड़ मंदिर के पास है। चिलबिल के पेड़ पर भूत है या नहीं किसी को नहीं पता लेकिन लोग बातें करते हैं। लोग बातें बहुत समय से करते हैं जब मैं छोटा था तब भी सुना करता था। पर किस समय किसने भूत देखा यह ठीक-ठीक किसी को याद नहीं। घोंसले में मैं शांत बैठा रहूं। जब समय ढूंढने वाले घर से निकलें तो घोंसले से बाहर झांकता मैं समय को तकता रहूं। फिर समय को धीमी आवाज दे पास बुला घोंसले में कैद कर लूं। फिर गांव की एक बुढ़िया जो बहुत समय से जिंदा है। जिसने बीते समय में अपना सारा कुछ खो दिया है। जो अच्छे समय के तलाश में अब भी भटक रही है। क्योंकि उसे लगता है मैं उसका अच्छा समय हूं। समय की खोज में मुझे ढूंढते हुए मेरे पास आए। फिर हम तीनों समय के साथ मिलकर नया घर बनाएं।
-पीयूष चतुर्वेदी

Sunday, January 9, 2022

मां का विवाह पिताजी से नहीं घर से हुआ होगा- पीयूष चतुर्वेदी

हर सुबह जब नींद से जीती हुई लड़ाई से आगे बढ़ काम के लिए निकलता हूं। सिढ़ीयो पर बैठी बिल्ली मेरे कदम के थाप से भाग खड़ी होती है। बिल्ली भागती नहीं दौड़ती है। दौड़ती है वापस आने के लिए। मेरे जाने के बाद बिल्ली वापस आती है। क्यों आती है इस बारे में कभी विचार नहीं किया और क्या करती है? इसका ठीक-ठीक पता नहीं। ठीक-ठीक पता न होने का कारण मेरी इच्छा का ना होना नहीं,समय की व्यस्तता है। बिल्ली को मैंने जब भी देखा है सुबह के समय हीं देखा है। एक हीं रूप में देखा है, रूप कहने में सुंदरता को अनमने ढंग से पेश करने की बू आती है। मैंने बिल्ली को भागते हुए देखा है। नहीं दौड़ते हुए देखा है। भागने वाला कभी वापस नहीं आता। बिल्ली हर शाम वापस आती है। वापस आते मैंने कभी नहीं देखा। मेरे साथ उसका न आना मूल कारण है। या तो वह मुझसे पहले आती होगी या बाद में। मेरे साथ मेरे दोस्त आते हैं। बिल्ली मेरी दोस्त नहीं है। वह बिल्ली है या बिल्ला यह भी समझ पाना मेरे लिए मुश्किल है। सभी ने उसे बिल्ली कहा मैंने भी मान लिया। सच कहूं तो मैंने लोगों कि बात नहीं मानी बस जो सुना वो चुन लिया। बचपन की यादों में बिल्ला का स्थान कभी नहीं रहा। बिल्ली और बिल्ला में बड़ों को भेद करते नहीं देखा। उनके रोने की आवाज आती तो बिल्ली रो रही है सभी कहते। वो सामने दिख जाती तो बिल्ल-बिल्ल और बिल्ली भाग जाती। मां को मैंने यह आवाज लगाते सबसे ज्यादा सुना है। बिल्ली अक्सर दूध पीकर भाग जाया करती थी। वो बिल्ली थी या बिल्ला इतना सोचने के समयांतर में सारा दूध समाप्त हो जाता था। या शायद बिल्ल-बिल्ल कहने पर बिल्ली और बिल्ला दोनों भाग जाते हों। बिल्ली से बचाव के लिए दूध को सिकहर पर रखा जाने लगा। फिर दूध सुरक्षित हो जाता था लेकिन सिकहर के टूटने का डर लगा रहता। कभी-कभी बिल्ली सिकहर को नोचने लगती। मां ने फिर दूध को कमरे में बंद करना आरंभ किया जहां बिल्ली ना पहुंच सके। बिल्ली दरवाजे से वापस लौट जाती। कमरे में खिड़की नहीं था। जहां मैं रहता हूं वहां खिड़की है। लेकिन मां साथ नहीं रहती। इसलिए मैं खिड़की बंद रखता हूं और दरवाजा खुला। आश्चर्य यह है कि दरवाजा खुला रखने पर भी बिल्ली नहीं आती। चिड़िया आती है लेकिन छुट्टी वाले दिन नहीं आती। शायद मनुष्यों की तरह सभी अकेला रहना चाहते हैं। या एकांत के प्रेमी हैं। मैं अकेला रहता हूं लेकिन एकांत नहीं। कमरे में एकांत रहना झूठ सा लगता है। अकेले में एकांत होना धोखा देने जैसा है। भीड़ में एकांत होना परीक्षा। मैं हर रोज ऐसी परीक्षा देता हूं और अनुतिर्ण होकर अकेला कमरे में थका हुआ सो जाता हूं। सोते वक्त मैं अकेला रहता हूं। बिल्ली भी साथ नहीं होती। घर पर बिल्ली मेरे पास आती थी। मां बिल्ल-बिल्ल की आवाज लगाती और मैं उसे पास बुलाता। वो हम दोनों को ताकती फिर वहीं चौकी के निचे रखे मिट्टी के चुल्हे में बैठ जाती। मैं रोटी के टुकड़े फेंकता वो खाती फिर भाग जाती। इस बार वह बिल्ल-बिल्ल सुनकर नहीं भागी थी। प्रसन्नता की लहर में उड़ी थी। कुछ समय बाद उसके साथ और भी बिल्लियां थीं। शायद उसने अपने साथियों से कहा होगा कि वहां भोजन मिल रहा है। कैसे कहा होगा यह मुझे नहीं पता। पर लोगों को कहते सुना है सभी प्रजातियों की अपनी अलग भाषा होती है। या उसने म्याऊं-म्याऊं की भाषा में सबको सूचना दी होगी। मैंने बिल्ली को म्याऊं के सिवा कुछ बोलते हुए नहीं सुना। चुप रहते सुना है। मेरे मित्र ने एक बार कहा था चुप रहते सुना नहीं जता देखा जाता है। लेकिन मेरी आंखें हमेशा थकी हुई रहती हैं इसलिए मैं मौन को सुनता हूं और बोले हुए को महसूस करता हूं। शायद कान की जगह दिल से सुनना हीं इसका कारण है। बिल्लियों का झुंड देख मां गुस्सा थी। मां बिना ज्यादा कुछ बोले हीं कमरे की ओर भागी। मां को हर चिज़ की चिंता लगी रहती थी। अब मां ज्यादा चिंता नहीं करती। चिंता का बटवारा हो गया है। मैं हमेशा सोचता था मां का विवाह पिताजी से नहीं घर से हुआ होगा। पिताजी ने मात्र सात फेरे साथ लिए होंगे। जिम्मेदारीयों के गहने से मां को सजाया गया होगा और रिश्तों कि चादर से ढ़क दिया गया होगा। बाबा ने नाना से कहा होगा मुझे घर के लिए बहु चाहिए। नाना से बाबा से कहा होगा मुझे समाज के लिए दामाद। औरतों ने बहुत लंबा समय घर को दिया और आदमी ने समाज को। मां ने सबसे ज्यादा समय घर को दिया था और अब भी जारी है। उसी समय में से समय निकालकर मां बिल्ली भगाती थी। मैं बिल्ली नहीं भगाता। बिल्ली मुझे देखकर दौड़ जाता है। उसके दौड़ते हीं बिल्ली मेरा रास्ता काट देती है। यह बात मैंने किसी को नहीं बताई। रास्ते को भी नहीं। कटता कौन है यह भी ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है। सड़क का खून बहते मैंने कभी नहीं देखा। बिल्ली का भी नहीं। क्योंकि बिल्ली रास्ता काटती है इस वजह से उसका रक्त ना दिखना स्वाभाविक है। सड़क निर्जिव है उसके कट जाने की बात समझ से परे। लेकिन बिल्ली रास्ता काट दी यह आम बोलचाल की भाषा में शामिल है। मैंने किसी को यह कहते नहीं सुना कि मैंने जंगल काट दिया। मैंने पौधों को जला दिया। जंगल तो जानवरों का घर था। खून तो जंगल के कटने पर भी नहीं निकलता फिर सड़क? 
लेकिन पौधों में जान होती है ऐसा स्कूल में बताया था। मिट्टी में होती है या नहीं ठीक-ठीक कह पाना‌ मुश्किल है। लेकिन कटते दोनों हैं। पहाड़ के कटने से गिट्टी बनते देखा है। गांव वाली पहाड़ से सिमेंट बनते देखा है। मिट्टी खोदने से खनिज निकलता है। कटने से बस खाली जगह मिलती है। उसी खाली जगह में सड़क बनती है। सड़क बनते मैंने देखा है, टूटते भी देखा है लेकिन बिल्ली के द्वारा कटते नहीं देखा। या मैंने आदमी का रास्ता काट दिया यह कहते हुए मैंने बिल्ली को कभी नहीं सुना। म्याऊं-म्याऊं कहते सुना लेकिन समझ नहीं पाया। आदमी को मैंने सड़क कटने के ऊपर चर्चा करते सुना है। सामने रास्ते पर थूककर या ऊंगली से सांकेतिक क्रास बनाकर आगे बढ़ते देखा है। मैंने नहीं थूकता। क्यों कि बिल्ली जिस रास्ते को काटती है वहां सीढियां हैं। जगह-जगह थूकना गलत बात होती है। फिर सफाई करना और भी मुश्किल। और क्रास करना बिल्ली की बराबरी करने जैसा। मैं अनदेखा कर बाहर निकल जाता हूं। लोगों को कहते सुना है बिल्ली के रास्ता काटने से बुरा होता है। मेरे साथ कुछ बुरा नहीं हुआ। सब समान होता है। मैंने लोगों को यह कहते नहीं सुना कि जंगल काटने से बुरा होता है। शायद इसकी चर्चा होने चाहिए और होती अगर जानवर हमसे आकर कहते देखो तुमने मेरा घर काट दिया। लेकिन सभी जानकर की भाषा समझना असंभव है। फिर हम अपने हक से उन्हें मारकर भगा देते हैं। मैं चिड़िया की भाषा अच्छे से समझता हूं। इसलिए छत पर पानी और दाने रख देता हूं। घर में घोंसले भी बने रहते हैं। मैं बिल्ली की भाषा नहीं समझ पाता। मां समझती है लेकिन अपसगुन मान उन्हें भगा देती है। कहती है बिल्ली का रोना अशुभ होता है। मैं शुभ-अशुभ में विश्वास नहीं करता। यथार्थ में करता हूं। और यथार्थ यह है कि जंगल हमनें काटे हैं। उन्हें जलाया हमारी आवश्यकताओं ने है। और यह शुभ नहीं।

Thursday, December 31, 2020

पिताजी का पेड़

कुछ ने कहा पेड़। कुछ ने कहा कदम का पेड़। मैंने कहा पिताजी के हाथों लगाया कदम का पेड़। गांव के मंदिर निर्माण के बीतते सालों के साथ पेड़ की उम्र भी बढ़ती रही। दोनों की उम्र में ज्यादा अंतर नहीं। इस पेड़ ने लोगों को छांव दिया। भक्तों को आत्मिक सुख। मंदिर में बजती हर घंटे के साथ पेड़ के पत्तों ने अपनी धुन छेड़ी है। उसकी सरसरी संगीत में हृदय शांत होता है। मगर सड़क के चौड़ीकरण होने के कारण इस पेड़ का कटना निश्चित है। समय निश्चित नहीं लेकिन कटना निश्चित है। इस पेड़ के कटते हीं यादों का बांध एक बार पुनः टूटेगा। कोई उसमें डूबेगा नहीं ना हीं उसके साथ बह चलेगा बस कुछ लोग ठहरेंगे जरूर। मैं हमेशा उतना हीं सोचता हूं जितना समझ पाता हूं। और मेरी समझ में बस इतना हीं है कि भौतिकता से सजाया हुआ सारा कुछ मुझसे छीन जाएगा। लेकिन मेरे भीतर सारा कुछ ठीक वैसा हीं बसा हुआ है। यादों के जंगल में आज भी सब उतना हीं हरा है जितना वो हमेशा से था। यह पेड़ भी हमेशा हरा रहेगा उतना हीं जितना पिताजी।
-पीयूष चतुर्वेदी

Tuesday, June 2, 2020

पिताजी का पूरा होना

रोहन (परिवर्तित) अपना सब कुछ एक कमरे में व्यव्थित कर खुद को व्यस्त रखता है। इतना व्यस्त जिसमें वह खुद से बाहर ना निकल सके। खुद में अकेला अपने काम से काम रखने वाला रोहन अपनी सोच भी इसी कमरे तक सिमीत रखता है। अपना सोचा हुआ या तो वह सादे पन्नों पर बिछाने लगता है या अपनी सोच भरी आंखों को आईने में देखता आंसूओं को बहने देता है। आज उसने अपने आंसूओं को शब्द दिया उसने सारे आंसू पन्नों पर स्याही की जगह खर्च किया। ”वैसे तो ज्यादा जाना नहीं होता लेकिन घर वक्त गुजारना एक आशिर्वाद सा लगता है। एक अजीब सी खुशी होती है तितलियों को फूल के रस मिल जाने के समान। वहां सब कुछ जो मैं अपनी आंखों से देख सकता हूं। जो त्वचा महसूस करती है। पेड़ों की सरसरी हवा से लेकर पत्थरों की ठोकर तक में पिताजी के दर्शन पाता हूं। हवाएं पिताजी का संदेश लेकर आती हैं और ठोकरें ज्ञान देकर जाती है। कुछ ९ वर्ष पहले जब उनका देहांत हुआ था। तब वो मुझमें बहुत ज्यादा बचे हुए थे। उस समय सभी ने उनकी यादों को बराबर-बराबर बांट लिया था। मैं, भैया, बाबा, आजी, घर वाले, रिश्तेदार सभी। सबका मन भारी था। समय बिताता गया और वो सभी के भीतर कम होते गए। पर समाप्त नहीं। सभी ने उनको अपने भितर थोड़ा-थोडा़ बचा के रखा है। बचे हुए हैं वो सभी में थोड़ा बहुत। सभी के पास उनसे जुड़ी कोई न कोई खास यादें हैं और उन यादों की चर्चा होती रहती है। लेकिन मां...  जब भी मां को देखता हूं तो उनमें पूरा पाता हूं। जितना उन्होंने विवाह के बाद उनको पाया था और फिर बीते सालों में साथ बिताए हर क्षण को, उनको उन्हीं के रूप में पूरा पाता हूं। मेरे हर उम्र की पिताजी से जुड़ी यादें जो बिसर गए थे वो ताजा हो जाते हैं। कुछ सालों तक मैं सोचता रहा पिताजी के जाने के बाद सब कुछ समाप्त हो जाएगा। उनकी द्वारा बनाई सारी चिजें। पर देखा वो सारे पेड़ अब भी मुस्करा रहे हैं, मकान अब भी अपनी बाहें फैलाए हुए है। हमारे आंसू भी घर की निंव को कमजोर नहीं कर सके। कुछ पौधे समाप्त हुए पर मालूम पड़ा उन्हें दीमक चाट गई उनका पिताजी से कोई संबंध नहीं। सारी भौतिक चिजें वैसी ही थी। यहां तक कि मैं भी। मैं ग़लत था। फिर सभी रोते गए सबने अपना ग़म हल्का किया और काम के बोझ के आगे घुटने टेक दिए और सभी में बच गया पिताजी का होना कुछ थोड़ा-थोडा़। पर मां..  मां के बहते आंसुओं ने उन्हें कम नहीं होने दिया। आंखों के निचे पड़ रहें काले गड्डे में मानों पिताजी ने कहीं घर बना लिया हो। हर बात में उनकी यादें साथ रहने लगीं। पहले ऐसा लगता था कि अस्वस्थता है जो मां को बिमार कर देगा। पर नहीं यह प्रेम था आंखों के निचे के गड्ढे, गालों पर तैरते आंसू, अतरंगी वेस-भूषा, गालों पर गहरी झुरियां, सफेद होते बाल सभी में पिताजी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे थे। ऐसा नहीं कि घर की दीवारों पर उनकी तश्वीर नहीं, अपने साथ भी मैं उनका चित्र हमेशा रखता हूं पर उन तस्वीरों को देखने के बाद भी एक तलाश जारी रहती है भितर कहीं। पर मां को देखने के बाद तलाश पूरी हो जाती है। पिताजी को मां के साथ बूढ़ा होता हुआ देखता हूं। जहां सब कुछ अपनी उम्र के अगले पड़ाव में जाने की दौड़ में लगा हुआ है लेकिन यादें अब भी जवान हैं। मैं जानता हूं ये यादें अंतिम सांस तक जवान रहेंगी। और पिताजी उनमें हर वक्त पूरे रहेंगे। और सच कहूं तो मुझमें उनका थोड़ा होना मां को देखने के बाद पूरा होने जैसा हो जाता है। और अपने आंखों के निचे काले घेरे और गहरा होता महसूस करता हूं। पर उसे पूरा खोने का डर हमेशा मेरे अंदर घर छोड़ते वक्त बना रहता है। और इस डर को मैं समाप्त नहीं होने देना चाहता। मैं सदैव पिताजी को स्वयं में पूरा पाना चाहता हूं। उतना हीं जीतना मुझमें वो अंतिम समय में थे।"पन्नों पर लिखा इतना सब कलम के रंग और आंसूओं में सना हुआ है। पहचान कर पाना मुश्किल है कि लिखा हुआ कलम का है या आंसू का। रोहन वापस शिशे के सामने अपने आंखों के नीचे पड़े काले रंग को देख मुस्कुरा रहा है। 

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