मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Thursday, December 31, 2020
पिताजी का पेड़
कुछ ने कहा पेड़। कुछ ने कहा कदम का पेड़। मैंने कहा पिताजी के हाथों लगाया कदम का पेड़। गांव के मंदिर निर्माण के बीतते सालों के साथ पेड़ की उम्र भी बढ़ती रही। दोनों की उम्र में ज्यादा अंतर नहीं। इस पेड़ ने लोगों को छांव दिया। भक्तों को आत्मिक सुख। मंदिर में बजती हर घंटे के साथ पेड़ के पत्तों ने अपनी धुन छेड़ी है। उसकी सरसरी संगीत में हृदय शांत होता है। मगर सड़क के चौड़ीकरण होने के कारण इस पेड़ का कटना निश्चित है। समय निश्चित नहीं लेकिन कटना निश्चित है। इस पेड़ के कटते हीं यादों का बांध एक बार पुनः टूटेगा। कोई उसमें डूबेगा नहीं ना हीं उसके साथ बह चलेगा बस कुछ लोग ठहरेंगे जरूर। मैं हमेशा उतना हीं सोचता हूं जितना समझ पाता हूं। और मेरी समझ में बस इतना हीं है कि भौतिकता से सजाया हुआ सारा कुछ मुझसे छीन जाएगा। लेकिन मेरे भीतर सारा कुछ ठीक वैसा हीं बसा हुआ है। यादों के जंगल में आज भी सब उतना हीं हरा है जितना वो हमेशा से था। यह पेड़ भी हमेशा हरा रहेगा उतना हीं जितना पिताजी।
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पिताजी
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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