सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, July 22, 2020

"कल से कल तक"

वो सब झूठ है जिसने मुझे क्षणिक सुख प्रदान किया था। 
मैं तो ठोकर की कलाइयां खाता चलना सीखा।
आंसूओं के घूंट पीकर रहना सीखा।
तानों की आवाज में अपने कानों को ढंकता हुआ नपा तुला बोलना सीखा। 
आंखों का देखा सच भूल, झूठ में मुस्कुराना सीखा। 
कुछ झूठ था आकाश में बादलों जैसा। कुछ सच था बादलों में पानी जैसा। कुछ मैं था प्रकृति में हवाओं जैसा। कुछ हवाएं थीं मुझमें सांसों जैसी। 
एस सांस थी जो सच थी, सच है और सच रहेगी , सांस लेने तक। 
फिर एक रोज सब बंद हो जाएगा।
बाकी सब क्षणिक रह जाएगा बस सच मेरे साथ चला जाएगा। 
-पीयूष चतुर्वेदी

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