हर रात भोजन करने के बाद एक दरवाजे से एक आवाज आती है।
काका आ गया बेटे। अपने काका को कुछ भिक्षा दे जा। यह आवाज हमारे करीब रहने वाले मुच्छड़ काका की है। बड़ी-बडी़ आंखें, घना गहरा काला मूंछ, कभी फौज में थे, अब हमारी कंपनी में सिक्योरिटी इंचार्ज है। लोग प्रेम से इन्हें सूबेदार चचा कहते हैं। मैं मुच्छड़ काका।
लगभग दो साल होने को हैं पर मैं इनका नाम नहीं जानता। किस्मत का खेल यह भी है कि काका भी मेरे नाम से अंजान हैं। राजस्थान से हैं। शान से भरे। आवाज में थोड़ा अल्हड़ पन है पर मुझे मीठी लगती है। अनुशासन फौज का है जो यहां भी देखने को मिलता है।
कल पता चला काका को कोरोना जैसे कुछ लक्षण हैं। है या नहीं यह तय नहीं।
यह सुन मुझसे रहा नहीं गया मैं सुबह उनके कमरे के दरवाजे पर खड़ा दूर से उनको देखने की कोशिश में बोला काका...पास जाने की मेरी हिम्मत नहीं रही। स्वार्थी हूं ना मौत से डर लगता है। जीवन से उतना प्यार भी नहीं पर मौत से दोस्ती हमेशा से डराती आई है। मैं इस डर को अपना नहीं मानता यह लोगों का दिया हुआ है जो खुद डरते थे जीवन के सत्य से।
काका भीतर से बोले अरे बेटे... क्या हाल है?
कुछ लाया मेरे लिए?
क्या लाता? सच तो यह है कि मैंने काका को आज तक कुछ नहीं दिया। मेरे कमरे में मेरे साथी के हाथों से तंबाकू खाने काका हर रोज आते थे और वहीं मैं उनसे टकरा गया। उस रोज से एक रिश्ता बना।
मैंने शांत भाव से कहा नहीं काका।
मेरे चेहरे की उदासी वो पढ़ बैठे। अपने मूंछों पर उंगली फेरते बोले बेटा मैं जवान हूं। और जवान हमेशा जवान रहता है। बूढ़ा होके भी जवान रहता है।
हां काका आप जवान हीं नहीं हमारे देश की शान हैं। इतना कह मैं वापस आ गया।
काका की तबीयत में सुधार है।
-पीयूष चतुर्वेदी
No comments:
Post a Comment