सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, July 29, 2020

अंजान सा

हम जब तक किसी से मिलते नहीं। उसे देखते नहीं तब तक हम उन सबसे अंजान रहते हैं। 
पर एक हल्की छोटी सी मुलाकात भी पहचान की उस कहानी को लिखती है जिसे हम बार-बार पढ़ते हैं। 
था से हूं और हूं से रहूंगा तक में हम वास्तव में अकेले हीं रहते हैं। 
बस साथ रहता है एक काल्पनिक भ्रम और उसे निभाते चरित्र। 
जहां से अपने-पराए का एक अलौकिक नाटक सारी जिंदगी हमारे आस-पास खेला जाता है।
क्योंकि जिन्हें हमने अपना माना है कभी उनसे भी हम अंजान होते हैं। और जिन्हें हमनें अंजान कह दिया या तो हम उनसे मिले नहीं या मिलकर भी सब खो दिया।
इन सब में बस एक त्रासदी है खुद को अकेला ना मानने की। 
बस एक ऐसे स्वभाव की रचना है जो बदलती रहती है। और हम भटकते रहते हैं। 
कुछ की आश में, किसी की तलाश में। 
मिला तो सब साथ है। नहीं मिला तो हम पुनः अकेले। 
और यह अकेलापन हमारे जन्म से मृत्यु तक हमारे साथ होता है। जिसे हम छुपाए रखते हैं किसी की आशा में।
जो हर बार शोक का रूप लिए हमारे समक्ष खड़ा हो जाता है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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