सफरनामा

My photo
Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, August 2, 2020

सीमाओं का सम्मान

हम अपनों से नाराज़ हैं और दूसरों से प्रशन्न। 
कारण कुछ खाश नहीं है बस हमनें लोगों की सीमाओं का सम्मान करना बंद कर दिया है। अपनी इक्छाओं को एक सीमा में बांध दिया है और हम उस सीमा में सबको देखना चाहते हैं। बिल्कुल अपने अनुसार।
दूसरों की सीमाएं हमें पसंद नहीं। 
हम दूसरों से तब तक खुश हैं जब तक वह हमारी सीमा में है। जो पास है उससे नाराज़ होने के हजारों बहाने हैं। जो दूर है उससे कैसी नाराजगी। पर जिस रोज वह पास होगा हमारी सीमा में पैठ करेगा। यह निश्चित है तब हमें बहाना नहीं ढूंढना पड़ेगा उससे नाराज़ होने का। 
यह बिल्कुल भगवान की भक्ति करने जैसा है। भोग लगाने जैसा है।
जिस रोज भगवान ने भोग लगाया हुआ खाना प्रारंभ कर दिया उस रोज हमारे चढ़ावे पर साफ असर दिख पढ़ेगा। शायद हम भगवान से भी नाराज़ हो बैंठे। 
बस अपनी सीमाओं में पूरी दुनिया देखने का तरीका हमें दूसरों को समझने से हमेशा रोकती है।
-पीयूष चतुर्वेदी

No comments:

Popular Posts

सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।

का बाबू कहां? कानेपुर ना? हां,बाबा।  हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना? हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल?  का पता हो,...