हम अपनों से नाराज़ हैं और दूसरों से प्रशन्न।
कारण कुछ खाश नहीं है बस हमनें लोगों की सीमाओं का सम्मान करना बंद कर दिया है। अपनी इक्छाओं को एक सीमा में बांध दिया है और हम उस सीमा में सबको देखना चाहते हैं। बिल्कुल अपने अनुसार।
दूसरों की सीमाएं हमें पसंद नहीं।
हम दूसरों से तब तक खुश हैं जब तक वह हमारी सीमा में है। जो पास है उससे नाराज़ होने के हजारों बहाने हैं। जो दूर है उससे कैसी नाराजगी। पर जिस रोज वह पास होगा हमारी सीमा में पैठ करेगा। यह निश्चित है तब हमें बहाना नहीं ढूंढना पड़ेगा उससे नाराज़ होने का।
यह बिल्कुल भगवान की भक्ति करने जैसा है। भोग लगाने जैसा है।
जिस रोज भगवान ने भोग लगाया हुआ खाना प्रारंभ कर दिया उस रोज हमारे चढ़ावे पर साफ असर दिख पढ़ेगा। शायद हम भगवान से भी नाराज़ हो बैंठे।
बस अपनी सीमाओं में पूरी दुनिया देखने का तरीका हमें दूसरों को समझने से हमेशा रोकती है।
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