सफरनामा

My photo
Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Thursday, August 13, 2020

मां-बेटी

एक बेटी अपनी मां की आंखों में देखती है बीते दिनों की संघर्ष और भविष्य में किए जाने वाला त्याग। 
और खुद के लिए एक नजरिया। जिससे शायद उसे भी देखा जाएगा।
माथे की लकीरों में ढूंढती है मां से नाराज़ बैठे लोगों के नाम।
माथे पर रखी बिंदी सीखती है उसे संस्कार और परम्पराओं का सदाचार।
जिसे वह अपनाती रही हर-बार।
घूंघट से छिपे हुए चेहरे से समझ पाती है समाज की सोच।
सजल नेत्रों में देखती है उसकी ममता और सिखती है उससे अनुराग।
होंठों की हल्की मुस्कान में देखती है मां का मुस्कुराता हुआ बचपन।
पैरों की पायल में दिखती है उसे मां की मर्यादा।
गले का हार उसे सिखाता है पतिव्रत धर्म।
-पीयूष चतुर्वेदी

No comments:

Popular Posts

सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।

का बाबू कहां? कानेपुर ना? हां,बाबा।  हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना? हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल?  का पता हो,...