बात तब की है जब हम मानव नहीं आदिमानव हुआ करते थे।
हम एकजुट थे हम सभी हर कार्य साथ मिलकर किया करते थे।
हमनें बहुत से आविष्कार साथ मिलकर किए। घर बनाए, रहना सीखा, शिक्षा ग्रहण कर जीवन को एक दिशा दी।
इसी क्रम में हमने एक विशेष खोज किया अग्नी का। वह अग्नी जिससे हमनें ठंड की कुडकुडाहट भरी रातों में गर्मी से लिपटा हुआ आराम पाया। कच्चा चबा पेट पालना छोड़ पके हुए भोजन का आनंद उठाया। जैसे-जैसे हमारी पूंछ कम होती गई हम संपन्न होते गए। पूंछ के समाप्त होते हीं हमनें मानवता सिखी।
उस संपन्नता में हमारी सक्रियता बढ़ी। हम और संपन्न हुए। हमारा सर्वांगीण विकास हुआ।
पर देखते-देखते, समय बीतते वह आग जिसे हमनें भोजन के लिए और अपनी निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ढूंढा था हम उसे अपने भीतर ले बैठे। मानवता रूपी पौधा भी उसकी आंच से अछूता न रहा।
अब लगता है मानों उस आग में वापस हम-सब जल रहे हैं। जिसकी खोज हमनें अपनी जरूरतों के लिए किया था वह हमारे अंदर घर कर बैठा है किसी दूसरे के प्रति अंगार के रूप में।
एक अंगिठी सी जल रही है सभी के भीतर जिसमें जल रहा है हमारा विचार,हमारा ज्ञान हमारे जीवन जीने की असली वजह। जिसमें राख हो रही है हमारी आत्मा। और उस अग्नी की प्रबलता में झुलस रही है हमारी विश्वसनीयता।
डर सा लगा रहता है इसे जलता देख।
इसे बुझ जाना चाहिए वापस हमारे मानव से आदिमानव बन जाने से पहले।
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