सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, August 23, 2020

मुठ्ठी की धूप

बचपन में जो हमनें किसी झरोखे से अंदर आती धूप की किरण को अपनी मुठ्ठी में कैद किया था। और चेहरे पर चौड़ी मुस्कान लिए एक दूसरे को आंखें मटका देखते थे, वो तो उसी वक्त मुठ्ठी खोलते हीं गायब हो गई थी।
ऐसा तब तक चलता रहा जब तक हम बड़े नहीं हुए।
लेकिन कहीं न कहीं इच्छा होती थी वापस उसे चुपके से सबकी नजरों से छुपकर मुठ्ठी में कसकर कैद करने की। 
पर अब मानों लगता है यह सोचना हीं व्यर्थ था।
थोड़ा-थोडा़ करके शायद हमनें जीवन भर की धूप अपनी रेखाओं में बसा लिया था। 
जिसने ज़्यादा इकठ्ठा किया वो आज खुश है। 
जिसका कम रहा वो दुखी।
जिसने बिल्कुल नहीं किया वह मुक्त है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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