बचपन में जो हमनें किसी झरोखे से अंदर आती धूप की किरण को अपनी मुठ्ठी में कैद किया था। और चेहरे पर चौड़ी मुस्कान लिए एक दूसरे को आंखें मटका देखते थे, वो तो उसी वक्त मुठ्ठी खोलते हीं गायब हो गई थी।
ऐसा तब तक चलता रहा जब तक हम बड़े नहीं हुए।
लेकिन कहीं न कहीं इच्छा होती थी वापस उसे चुपके से सबकी नजरों से छुपकर मुठ्ठी में कसकर कैद करने की।
पर अब मानों लगता है यह सोचना हीं व्यर्थ था।
थोड़ा-थोडा़ करके शायद हमनें जीवन भर की धूप अपनी रेखाओं में बसा लिया था।
जिसने ज़्यादा इकठ्ठा किया वो आज खुश है।
जिसका कम रहा वो दुखी।
जिसने बिल्कुल नहीं किया वह मुक्त है।
-पीयूष चतुर्वेदी
No comments:
Post a Comment