सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, August 31, 2020

समाज की स्याही

विश्वास और अविश्वास के मध्य शाब्दिक तौर पर सिर्फ एक मात्रा का अंतर होता है। लेकिन जीवन के पथ पर मात्राएं बिखर जाती हैं और आरंभ होता है दिल और दिमाग को साथ लाने का खेल।
मैं इस खेल में हमेशा से हारता आया हूं। जिस पल मुझे लगता मैं जीत रहा हूं उसी क्षण कोई आकर एक नया मात्रा जोड़ जाता। किसी नए शब्द में मुझे बांध जाता। मैं सदैव इस उम्मीद में रहता कि किसी रोज समाज की स्याही खत्म होगी। और मैं आजाद हो जाऊंगा।
मेरे पास मिटाने की व्यवस्था कभी रहीं हीं नहीं। बस लिखता गया और काटता गया। पर दूसरे का लिखा काटने की हिम्मत कभी जुटा नहीं पाया। 
समाज को खो देने के डर ने कदमों को बांधे रखा। 
लेकिन अब नहीं। 
मैं ना अपना लिखा मिटाऊंगा न समाज का। सारा लिखा एक किताब का रूप होगा।
दो किनारों को सिर्फ पुल नहीं जोड़ता। खांई भी जोड़ती है।‌
विश्वास अविश्वास से ऊपर कभी प्रेम की पगडंडी पकड़ मैं फिर वहीं मिलूंगा।
फिर तुम पाओगे उन सारे शब्दों को एक कहानी के रूप में। 
-पीयूष चतुर्वेदी

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