सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, August 9, 2020

दोषी

अक्सर सोचता था मैं उस परमेश्वर का तिरस्कार कर दूं। जिसने मुझसे इतना कुछ छीना है, मुझसे हीं क्या बहुतों से बहुत कुछ। सबको साथ लाने का प्रयास किया जाए तो अनंत की संख्या में भगवान कहीं गुम हो जाएं।
कहने को तो भगवान सब में है पर कौन किसका दोषी है और कितना है तय कर पाना मुश्किल है।
पर याद आता हैं समुंदर के समान दुख रूपी गहराई में लहरों सी मुस्कान उसी का आशीर्वाद है। 
वास्तव में मेरे सांसों का होना हीं भगवान का होना है। 
बारंबार विचार आया त्याग करने का लेकिन हर बार कुछ पक्ष में होना उनकी उपस्थिति को नकारने से मना करता रहा। 
ऐसा बहुतों के साथ है। 
बचपन की शिक्षा हमें बस इतना सिखाती है कि भगवान देगा....। 
अब मुझे लेन-देन के तालाब में तैरने की इच्छा नहीं।
मेरे निर्जिव होते हीं मेरा भगवान समाप्त हो जाएगा इतना विश्वास है।
-पीयूष चतुर्वेदी

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