सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Monday, November 2, 2020

गांव और शहर

मेरा घर गांव में है।
मैं शहर में रहता हूं।
गांव में शांति है।
शहर में अशांति है।
गांव में जीवन है।
शहर में बस मैं जी रहा हूं। 
गांव में नदी है पहाड़ है।
शहर में पहाड़ जीतने ऊंचे मकान हैं।
गांव में पेड़-पौधों का जंगल है। 
शहर में इमारतों का जंगल है।
गांव में मिट्टी की महक है।
शहर में सड़क की खट-पट।
गांव में ठहराव है।
शहर में पागलपन है। 
गांव में शहर की जरूरत है।
शहर में गांव की यादें हैं।
गांव में अपनापन है।
शहर में अपनों की तलाश है।
गांव में सुकून है।
शहर में थकान है।
मैं शहर में हूं पर गांव का हूं। 
मैं गांव जाता हूं शहर का बोझ हटाने के लिए।
मैं गांव जाता हूं शहर वापस आने के लिए।
-पीयूष चतुर्वेदी

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