सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, November 8, 2020

बर्फ-पानी

बचपन में खेले गए बर्फ-पानी का खेल याद है? 
आजकल नहीं खेला जाता पर किसी जमाने में मोहल्ले के लड़कों का राष्ट्रीय खेल हुआ करता था। 
कोई अपने स्पर्श से हमें बर्फ की आवाज सुनाकर जमा जाता था। और हम भी इतने ईमानदार की बिना देर किए झट से जम जाते थे। 
तब-तक जब तक कोई दूसरा हमें पानी कहते हुए स्पर्श ना करे। 
उस एक स्पर्श से हम मुक्त हो जाते। दौड़ते, भागते पानी कि तरह बहने लग जाते। जब तक कोई वापस हमें बर्फ नहीं बना देता। 
मैं वैसा हीं कभी-कभी बर्फ जैसा जमा हुआ महसूस करता हूं। 
लेकिन मैं इतना ईमानदार भी नहीं जो जमा रह सकूं। मैं ठहराव से भागता हूं। 
क्योंकि यह ठहराव इच्छा का नहीं मजबूरी का है। बंधन का है।
जहां जमाव ऐसा कठोर हो चला है कि सब एक बर्फिला पहाड़ है। 
जब मेहनत कर थक जाता हूं। जब आंखों में सब धूंधला नजर आने लगता है तो सोचता हूं कोई मेरे पास आए और मुझे स्पर्श कर पानी बोल पड़े और मुझे आजाद कर दे। मैं जानता यह अब खेल नहीं रहा...मेरा जमना खेल का हिस्सा नहीं रहा। मैं खिलाड़ी नहीं रहा। लेकिन मैं एक उम्मीद लिए बैठा हूं। एक स्पर्श की, एक अनुभूति की एक मुक्ति की जहां मैं नदी के साथ बहता हुआ पत्थरों से टकराता मिठी धुन बनाता सागर में जा मिलूं। 
-पीयूष चतुर्वेदी

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