धर्म में हमारी आस्था जितनी प्रगाढ़ है।
जिवन व्यवहार में उतनी हीं कमजोर।
लेकिन एक समानता है।
श्रद्धा की अनुपस्थिति दोनों स्थान पर समान है।
अपनी शारीरिक अशुद्धि, छल,कपट,पाप को गंगाजली और स्नान से तो हम धो लेते हैं।
लेकिन व्यवहार की खटास, भीतर पनपता द्वेष,मन को शिथिल करते अहंकार को किसी पावन जल से ना मिठा कर पाने की विधि है। ना उनके साथ प्रेम का प्रवाह है। फिर अहंकार की मूर्ति तो पिघलने से रही।
-पीयूष चतुर्वेदी
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