सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, May 27, 2022

दिप्ती रंग जैसी थी

अक्सर मैं स्वयं के सवालों के ज़बाब में स्वयं से संवाद करता हूं। 
मैं क्यों रंगों से सराबोर दुनिया में रंग नहीं पहचान पता?
मेरे लिए हर पेड़ पत्ते हरे हैं। ऐसा मैंने मान लिया है। मैं उस रंग को नहीं जानता। लेकिन बचपन में पन्नों पर लिखा हुआ मैंने इतनी गहनता से रटा है कि क्लोरोफिल के कारण पत्तों को रंग हरा होता है इस हरेपन ने मुझे पत्तों को हरे रंग में देखने का आदी बना दिया है। या कहूं मजबूर कर दिया है। मेरी दृष्टि यदि उस रंग को पहचान पाती तो मैं उसे हल्का हरा, गाढ़ा हरा या कोई और हीं रंग बता बैठता। लेकिन रंगों की नासमझी ने मेरी आंखों को विकलांग कर दिया है। मैं किसी वस्तु को देखकर यह नहीं कह सकता कि वो इस रंग का है। मैंने रंग को कभी नहीं जाना जैसे दिप्ती नहीं जानती की मैं उसे प्रेम करता था। 
दिप्ती रंग जैसी थी। मुझे लगता मैं उससे नहीं रंगों से बात कर रहा हूं। और रंग कहीं यह ना पूछ बैठे कि बताओ मेरा रंग क्या है? जैसे दिप्ती कभी पूछ बैठे बताओ मुझसे प्रेम क्यों है? तब मैं ग्यारहवीं में था। मुझे उस वक्त ना हीं ठीक-ठीक कारण पता था ना हीं रंग। मुझे आज कारण पता है लेकिन रंग नहीं। मैं मानता था कि रंग हमेशा मेरी आंखों में तैरता था लेकिन उसके बाद की चमक के लिए मैं कभी तैयार नहीं था।
कौन सा रंग मिलाने पर कौन सा रंग बनेगा? वाला सवाल मैं परिक्षाओं में छोड़ता आया हूं। जैसे मैंने नदी,पहाड़ और सूरज बना दिया पिछे एक झरनें को घर की खिड़की से झांकता आदमी भी लेकिन जब रंग भरने की बारी आई तो मेरा रंगों के प्रति अधूरापन उसे हर बार खाली छोड़ दिया करता। आंखों में उभरते रंग कभी पन्नों पर अपनी जगह नहीं बना पाते।
वर्तमान में कभी सोचता हूं किसी डाक्टर को अपनी रंगों की समस्या से अवगत करा आऊं फिर लगता है कहीं अपने काले और सफेद रंगों की समझ भी ना खो बैठूं। 
मैंने देखा है फिल्मों में काले रंग को बुरी आत्मा और सफेद रंग को अच्छी आत्मा के रूप में दिखाया जाता है। मैं इन दोनों रंगों के बीच खुद को हल्का इंसान जैसा पाता हूं। जैसे मुझमें अभी इंसानियत बची है जो और रंगों के आ जाने से बिखर जाएगी या मेरे भीतर का इंसान रंगों की खोज में कहीं दूर भटकता हुआ भाग जाएगा। इसलिए मैं अब दिप्ती को भूल गया हूं। वो रंग है। मुझे डर है उसके आते हीं अपने भीतर अथाह परिवर्तन हो जाने का। मैंने रंगों का पिछा करना छोड़ दिया है।
फिर कोई आकर कह भी दे की देखो तुम्हारे सर्ट का रंग काला है और तुमने सफेद चादर ओढ़ रखी है फिर भी रंगीन की चमक में चमचमाती मेरी आंखें मुझे भूल चुकी होंगी।
मेरे भीतर का इंसान स्याह हो चुका होगा इस उहापोह में मैं अपनी परछाईं का रंग भी पहचान पाने में असमर्थ हो जाऊंगा। 
शायद यहीं कारण है कि रंगों की समझ से मेरी आंखें दूर हैं। या मुझे कारण ठीक-ठीक पता नहीं। और ज़रूरी भी नहीं लेकिन संवाद अब भी जारी है
-पीयूष चतुर्वेदी

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