सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, May 29, 2022

तुम हमारे सपने में नहीं आते

दिन भर की ठसक भीड़ ने रात में शहर को अकेला, अलग , थका हुआ सा लाचार बना फेंक दिया है। मैंने शहर से कहा भूल जाओ खुद पर किए गए सभी अत्याचार कल सुबह तुम्हें लोग फिर अपनाएंगे। अपनी शोर को शहर का नाम देंगे। कल सुबह फिर तुम्हारी चर्चा होगी। भीड़ को कोई याद नहीं करेगा। सभी शहर को याद करेंगे।
अभी तुम्हारे पास दिन भर की गंदगी से सना कूड़ा घर है जिसमें अपनी थकी हुई ताकत को समेटे आवारा पशु भोजन ढूंढ रहे हैं। जो सरकारी वादों को अपने मुंह से खोद-खोद कर ऊपर उछाल रहे हैं।
जिसमें कल सुबह सफाई वाले कर्मचारी अपने महीने का राशन खोजेंगे। फटे हाल भूख से बिलबिलाते बच्चे अपने दिन का सोना ढूंढेंगे। वो उस सोने को बोरी में भरकर कबाड़ वाले को दे आएंगे। कबाड़ वाला कुछ चिल्लर उनके हाथ में थमा देगा। फिर शाम वो‌ बच्चे बर्फ गोला खाकर घर लौट जाएंगे।
दिन भर चिलचिलाती धूप में फलों की रखवाली करते हुए ठेले वाले मनभर फल ना बिक पाने की टीस लिए आंखों में उतरते चेहरों में उम्मीद देख रहे हैं। हम सात लोग थे जिससे शहर को कोई उम्मीद नहीं। लेकिन फल वाला हमें अंत तक देखता रहा। उसे हमसे उम्मीद थी। मैं फल वाले को कहना चाह रहा था कि हमें मत देखो हम घर से भागे हुए लोग हैं। हम अपने घर वालों की उम्मीद को पूरा करने के लिए हर रोज सपना देखते हैं और रोज काम करते हैं। फिर थक कर सो जाते हैं। हमारा सोना हमारे मरने जैसा होता है। हम थके हुए जिंदा होते हैं और थके हुए मर जाते हैं। मरे हुए से सपने देखते हैं। तुम हमारे सपने में नहीं आते। हमारे सपने लालच से भरे हुए हैं। जहां हम भागना चाहते हैं शहर से भी तेज। और शहर से हारकर सो जाते हैं। हम तुम्हारे फलों के सही दाम नहीं दे सकते। 
सड़क, ऊपर लटकते बिजली के खंभों से बंद हो जाने की आश लगाए है। कि कब सारा शहर शांत हो जाए। एक गहरा अंधकार सड़कों पर पसर जाए और परछाइयों का जाल समाप्त हो जाए। सुबह में धूप और रात में परछाईं दोनों सड़क को जलाती हैं।
और हम अपनी इस चंचल परछाईं में खुद को ढूंढ रहे हैं। जैसे बचपन में अपने हलचल को दीवारों पर परछाईं के रुप में चिपकाया करते थे। उसे देखते थे। उसके पिछे भागते थे।
मैंने शहर के चौराहे पर धीरे से कहा जैसे वो कोई व्यक्ति हो और चौराहा उसका कान। सो जाओ तुम्हें गांव होना है और घर भाग आया। मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा। 
शहर अब भी शहर है। क्योंकि कुत्ते भौंक रहे हैं। ठेले वाले रेंगते हुए सड़क को मसल रहे हैं। भारी वाहन सड़क को रौंदता हुआ शहर को बहरा बना रहे हैं। पशु भोजन ढूंढ रहे हैं। शहर जाग रहा है। और मैं सोने जा रहा हूं क्योंकि शहर जाग रहा है। 
-पीयूष चतुर्वेदी

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