सफरनामा

My photo
Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, August 27, 2022

मैं थका हुआ नहीं दिखना चाहता लेकिन अपनी थकान लिखना चाहता हूं

महीने के दस दिन बिताने के बाद जीवन उदास सा लगने लगता है। जैसे किसी ने स्कूल वाला बस्ता वापस रख दिया है जिसमें अब किताबें नहीं जिम्मेदारियां भरी पड़ी हैं। कलम की अब कोई जरूरत नहीं सामने वाला फोन पर अपनी जरूरतें संदेश में लिखकर भेज देता है और हम एक ऐसी दौड़ में शामिल हो जाते हैं जिसमें बुरी तरह थका जा सकता है लेकिन थकना मना है। क्योंकि हम मशीन नहीं है लेकिन काम मशीन जैसा है। 
मानों इम्तियाज अली की फिल्म तमाशा में हमारी हीं कहानी हो। 
बस यहां तारा नही है। और पहाड़ तो दूर -दूर तक नहीं। पहाड़ मेरे गांव में है। गांव में नदी भी है। लेकिन गांव में नौकरी नहीं। शहर में नौकरी है इसलिए थकान भी है। हम सभी गांव से नौकरी के लिए शहर भागे थे और एक रोज थकान लिए गांव वापस लौट जाएंगे। जब हमारे अपनों का चेहरा हमें धूंधला सा याद रहेगा कुछ रहेंगे और कुछ अपने जा चुके होंगे उसी असमंजस में हम अपनी पहचान ढूंढेंगे। हमें कोई नहीं ढूंढेगा। शहर के भारी बोझ को हमारा घर स्विकार करेगा, प्रकृति स्विकार करेगी। आज भी हम थोड़ा बोझा लिए जी रहे हैं। जिसका आकार अभी उतना बड़ा नहीं हुआ कि हमें गांव भागना पड़े। लेकिन हमारी थकान हमारी आराम से बड़ी है।जब बहुत थक जाते हैं तो कानपुर घूमने जाते हैं। थकान शारीरिक और मानसिक दोनों होती है लेकिन मानसिक थकान को आराम देने के लिए शरीर से और थकते हैं। और फिर अगली सुबह थकने के लिए वापस निकल जाते हैं। फिर समझ में आता है कि मानसिक थकान को शारीरिक थकान से हराया जा सकता है। मन तो भोला है वो आराम में हमसे निंद नहीं मांगता बस हमारे मन की मांगता है। जिसमें शरीर उसका साथ दे। 
उस रोज शरीर खाना बनाने में साथ नहीं दे रहा था। और मन को बाहर खाने का मन था। अब मन को मारना मन को थकाने जैसा होता है इसलिए हमने मन की सुनी और शरीर को थकाया। फिर अपना थका हुआ देंह लेकर पैर को रास्ते पर घिसटते हुए होटल में पहुंच गए। 
होटल हमसे कहीं ज्यादा थका था। होटल के काम करने वाले होटल से भी ज्यादा। कभी-कभी लगता है सभी थके हुए हैं। लेकिन कोई दिखना नहीं चाहता। थके हुए दिखने में उम्र की वर्तमान से लड़ाई है जहां भविष्य हमें आंकने लग जाता है। अभी से थक गए बताओ भला आगे क्या होगा? इन सवालों के ज़बाब से बचने के लिए मैं थका हुआ नहीं दिखना चाहता लेकिन अपनी थकान लिखना चाहता हूं। क्योंकि लिखना मन को पसंद है और जब भी मैं मन की करता हूं मैं खुश होता हूं। मन भी खुश होता है बस शरीर टूटने लग जाता है। कुछ खास अपने जो मुझसे मन से जुड़े हैं मेरी थकान देख लेते हैं लेकिन मैं सिर दर्द का बहाना बना मन को तसल्ली देने लग जाता हूं।  
होटल में छोटा सा कार्यक्रम था छोटे बच्चे का जन्मदिन। हमनें देखा पहले छोटी सी भीड़ ने टहलते हुए भोजन किया फिर खड़े होकर केक काटने लगे। शायद वो थके नहीं थे भूखे थे यहीं कारण रहा होगा कि उन्होंने पहले भोजन को चुना। हम थके भी थे और भूखे भी इसलिए हमने पहले बैठने का फैसला किया फिर बैठकर भोजन करने का। भोजन के दौरान कैमरे का फ्लैस आंखों पर पड़ा और कैमरामैन से नजरें टकरा गई। मैंने कहा भैया एक फोटो उतार दीजिए वो जैसे हीं हमारी तस्वीर उतारने आगे बढ़े मैंने कहा हम इनके साथ नहीं हैं। 
उन्होंने कहा कोई बात नहीं मैं खींच देता हूं। 
मैंने कहा मैं अकबरपुर में रहता हूं आप मुझे व्हाट्सएप पर भेज सकते हैं? 
आप अकबरपुर के खाश हैं? 
नहीं यहां भटकने आया हूं, घर सोनभद्र है बनारस के पास। बनारस को मैं अक्सर अपने परिचय में शामिल करता हूं क्योंकि बनारस की भूख सबको है। मोक्ष प्राप्ति कि इच्छा सबको है। 
लेकिन मुझे अभी हमारी फोटो लिए जाने की इच्छा थी और कैमरा मैन को उसे सार्थक करने की।
स्टेट बैंक के बगल में मेरी दुकान है। 
अच्छा, जिसमें योगी जी की फोटो लगी है? 
हां, मैं आपको कल भेजता हूं। 
फिर अनिवेश ने अपना नंबर दिया और वो अपने काम में लग गए। 
उन्हें भूख नहीं थी। थकान भी नहीं। उन्हें जरूरत थी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वो मन से काम कर रहे थे। हमें तस्वीर की जरूरत नहीं थी मात्र लालच था एक फोटो खींच जाने की। उन्होंने अपनी जरूरत में हमारे लालच को स्थान दिया। वास्तव में हम सभी के पास दूसरों के लिए उतना हीं रिक्त स्थान है जीतना हम भौतिकता से इतर जीवन जीते हैं। 
उसी जीवन के स्वाद में हमनें वेटर की ओर इशारा कर केक का स्वाद लिया और थके हुए से कमरे पर वापस आ गए और शरीर को आराम दिया।
-पीयूष चतुर्वेदी

No comments:

Popular Posts

सघन नीरवता पहाड़ों को हमेशा के लिए सुला देगी।

का बाबू कहां? कानेपुर ना? हां,बाबा।  हम्म.., अभी इनकर बरात कहां, कानेपुर गईल रहे ना? हां लेकिन, कानपुर में कहां गईल?  का पता हो,...