वास्तव में हमें कितना शांत रहना था?
या हम वर्तमान में कितने हैं?
और भविष्य में हमें कितना शांत होना चाहिए?
नदी जितना शांत जो बह रही है मिठी ध्वनि खुद में पसारे।
या पेड़ के कांपते पत्तों जितना शांत जिस आवाज में पक्षियां पत्तों की चादर ओढ़ गहरी नींद में सो जा रही हैं।
उन चिड़ियों जितना शांत जिनकी चटचटाहट रात के अंधेरे में मौन हो जाती है।
या झींगुर जितना शांत जिसकी खीर-खीर की अटपटी आवाज दिन के उजाले में मानवों की भीड़ में खो जाती है।
या फिर उन जुगनू की तरह जिनका अस्तित्व दिन के उजालों में समाप्त हो जाता है।
या सूने खाली मकान में घर बनाते प्रकृति जितना शांत।
प्रसव पीड़ा से मुक्ति मिलने पर अपनी संतान को निरीह दृष्टि से निहारती मां जितना शांत।
या पुत्र की अंतिम यात्रा को आंखों से देखती मां जितना मौन।
या प्रकृति जितना शांत..
मिट्टी जितना मौन।
या आर्द पत्तों जितना एकांकी।
-पीयूष चतुर्वेदी
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