सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Tuesday, February 20, 2024

देखा है कैसे नदी किनारे के पेड़ों को नित्य खा रही है?

शाम धीरे-धीरे थक रहा था। सुबह से शाम होने तक के सफर में दोपहर का धीरे-धीरे गुजरना अब तक शाम को हल्का बचा रखा था। और अब चांद आसमान को अपनी रोशनी से आकर्षक बना रहा था। धुंधली रोशनी में गांव वाले अपने दिन भर की सारी थकान लिए घर की ओर जा रहे थे। वहीं एक पूराने विद्यालय में घने पीपल के पेड़ के नीचे बैठे दो दोस्त भोलू और बोलू सालों बाद मिल अपनी आम जिंदगी की बातें कर रहे थे। उन दोनों के बातों के मध्य पत्तों का मधुर संगीत, हवा का सुकून और पंक्षियों की चंचलता थी। विद्यालय की बाहरी दीवारों पर पत्थर से खरोंच कर बनाए हुए अतरंगी चित्र थे। पिछली होली पर बच्चों द्वारा लगाए गए पंजो के निशान।
कभी दोनों दोस्त भी ऐसे करतब किया करते थे। बोलू पत्थर से दीवार पर पहाड़ बनाता और भोलू दो पहाड़ियों के बीच मुस्कुराता सूरज बनाकर बोलता देखो बिल्कुल हमारे गांव का पहाड़ है। बोलू बोलता पागल है? हमारे यहां सूरज पहाड़ों से नहीं पूरब से निकलता है। पूरब में तो मंदिर है। पहाड़ तो उत्तर में है। भोलू बोला उत्तर में तो नदी भी है। फिर तुने नदी क्यों नहीं बनाई? बोलू ने बोला तु पागल है अब वहां नदी नहीं बस रेत है, नदी तो सूख गई। तो सूरज वहीं बनाते हैं इससे ऐसा लगेगा जैसे नदी को सूरज ने सुखाया है। अच्छा फिर बादलों का क्या करेगा? फिर तो बादल भी बनाने होंगे, बोलू ने बोला। फिर तो बारिश भी करानी होगी और बारिश तेज हुई तो बाढ़ भी आ सकती है फिर हमारा गांव डूब जाएगा। अरे यार! भोलू ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए कहा। फिर हम कहां जाएंगे हम तो बेघर हो जाएंगे। मिट्टी के घर ढ़ह जाएंगे। जानवर नदी के पानी के साथ तैरते हुए कहीं दूर चले जाएंगे। पेड़ की जड़ें कमजोर पड़ जाएंगी। देखा है कैसे नदी किनारे के पेड़ों को नित्य खा रही है? मिटा देते हैं सब मिटा देते हैं। दोनों ने पत्थर से खरोंच कर सारा सूरज पहाड़ मिटा दिया फिर एक शुकून भरी मिठी मुस्कुराती सांस ली और सीने को फूलाया। उनके होंठों पर मुस्कान पसर आई थी जो जायज भी था उन्होंने अपने गांव को बाढ़ में डूबने से बचा लिया था। जो काम सरकारें नहीं कर पातीं, जिसे करने में लाखों रूपये खर्च हो जाते हैं उसे इन दोनों ने कितनी सरलता से पूर्ण किया था। सरकार के हिस्से में घटना के घटने के बाद का रोड मैप हमेशा तैयार रहता है लेकिन उससे पहले की सड़क टूटी हुई रहती है। ठीक ऐसी हीं जर्जर  सरकारी विद्यालय के प्रांगण में पेड़ को घेरे चबुतरे पर बैठे दोनों अपने बचपन की पुरानी और मनोहर स्मृति में खोए दीवार पर अपनी कला ढूंढ रहे थे। इनकी यादें कितनी पुरानी हैं यह तो इन्हें याद है लेकिन यह विद्यालय कितना पुराना है यह दोनों में से किसी को सही से याद नहीं। बस इतना पक्का है कि जितनी पुरानी इनकी दोस्ती है उतनी तो है हीं। वास्तविकता में यह स्कूल इनकी उम्र से कहीं ज्यादा पुराना है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि पहले यहां गांव के भद्र जनों की बारात रूका करती थी। कुछ वर्षों तक यह यात्रियों के लिए सराय भी बना। फिर जब क्षेत्र नक्सलवाद की आग में जल रहा था उस वक्त यहां सुरक्षा बलों की भी तैनाती थी। मास्टर साहब पढ़ाते हैं और बच्चे पढ़ते हैं वाले किस्से में यहीं कहावत चलती है कि साधु गुरूजी हेडमास्टर थे जो बिल्कुल काले हुआ करते थे और बिल्कुल सफेद कपड़ा पहनते थे साथ हीं सफेद ताजा माठा बिना नमक डाले ३ ली. एक बार में निपटा देते थे। और बच्चे उन्हें देखा करते थे। देखते-दिखाते स्कूल को चारों और से घेर दिया गया और फिर अब भीतर क्या होता है किसी को नहीं दिखता। 
आज से कुछ साल पहले भी दोनों अपने बचपन के दिनों में रात होने से पहले वाली शाम को यहीं बीताते थे। तब से जब से वह अच्छे दोस्त थे। आकांक्षाओं के घेरे से मुक्त। बस जिंदगी जीने की जिद थी और सांस लेने की आदत। ये दोनों तब बस इतने छोटे थे जहां से यह अपनी रोज की जिंदगी में चल रही बातों को समझ सकते थे। और दूसरे उसे कैसे देखते है, क्या सोचते है? कि परवाह नहीं। बस इतना समझना होता था कि दोनों एक दूसरे को समझ लेते। कोई एक दूसरे पर ऊंगली नहीं उठाया करता था। इन दोनों की बात में किसी तीसरे के लिए कोई स्थान नहीं होता। हर वो तीसरा इनका दुश्मन था जो इनकी आजादी को, आदतों को अपने शर्तों में बांधने की कोशिश करता। इस पेड़ के नीचे मिट्टी की महक और पत्तों की सरसर के मध्य भरी दोपहरी में आम के बागीचे से डंडे मार आम तोड़ने की बातें। और सही निशाना न लग पाने का दुख, तो कभी बब्बन के ठेले से इमली की चोरी की घटनाओं का जिक्र होता। कभी पढ़ाई वाले मास्टर जी ने किस गलती पर किसका कान ऐंठ दिया। और मास्टर जी को सबक सिखाने की अलग से तर्कसंगत तैयारी भी होती थी। कभी तो बोलू मास्टर जी को मुर्गा बनाने की बात भी कर देता। लेकिन भोलू बोलता जब अंडा मुर्गी देती है तो मुर्गा क्यों बनाना? पर बोलू कहता नहीं मास्टर जी आदमी हैं और आदमी मुर्गा बनता है मुर्गी नहीं। बातें होती थीं मोहल्ले की सबसे खूबसूरत हमउम्र लड़की अभिलाषा की, जिसके ख्याल में दोनों कभी-कभी खो जाते पर हांसील करने की जिद किसी में नहीं होती। और अगर थी भी तो किसी ने इसका जिक्र नहीं किया। दोनों कभी चर्चा करते अभिलाषा से सपनों में हुए बातों की। उसके होने के सोच से शरीर में हुए गुदगुदी की,स्वयं में बड़े हो जाने के अभिलाषा की।
पर इन बातों का स्वाद तब फिका पड़ गया जब भोलू ने पूछा तु अब भी यहां आता है? इतना सुन बोलू आसमान ताकने लगा। मानों वह कोई निर्जन स्थान हो। अब चारों तरफ शांति पसरी हुई थी। सूरज छुप गया था। चांद, तारों के सामने अपना बखान कर रहा था। गुमटियां बंद हों गई थीं। काम से थके हुए और बाजार से रूठे हुए लोग अपने घरों को लौट रहे थे। बोलू ने एक बार भोलू की ओर आंखों में मौन लिए देखा। वह भोलू में हुई बदलाव को ढूंढ रहा था जो कुछ साल पहले नहीं था। जब भोलू आठवीं के बाद गांव छोड़ शहर चला गया।
भोलू के शहर जाने पर बोलू इस पेड़ के पास आता पेड़ से अपनी बातें कहता और घर लौट जाता। कभी-कभी भोलू से फोन पर बातें हो जातीं पर उन बातों में गांव कभी शामिल नहीं रहता। भोलू का अपना स्कूल और उसके नए दोस्त शामिल रहते। बोलू को इन बातों से असहजता होती अपने सबसे अच्छे दोस्त भोलू को खो देने का डर उसके मन में बैठ जाता। शहर की भीड़ में उसके खो जाने का डर। 
पर पिछले दिनों भोलू ने बोलू से फोन पर बात की। सूचना दिया की वह गांव आ रहा है। इतना सुन बोलू ने ढेरों तैयारियां शुरू की अपने दोस्त से मिलने की। उसने खुद को खूब डांटा, उसे अफसोस था अपनी सोच पर। उसने भोलू के बारे में ग़लत सोचा। भोलू अब भी उसका दोस्त है। बोलू ने भोलू के स्वागत में जिए हुए यादों को और कुछ भोलू के गांव छोड़कर जाने के बाद की बातों को नत्थी करना शुरू किया। कहीं कुछ छूट न जाए बताने को। वो मुझसे हमारे गिल्ली डंडा वाले श्याम भैया के बारे में पूछेगा तो मैं क्या कहूंगा? और मास्टर जी? रूको सबका हाल पूछ आता हूं। भोलू ने मुझसे पूछ लिया तो। मैं क्या कहूंगा उससे? मन में अपने बुदबुदाते हुए बोलू यादों को नत्थी करता रहा।
आखिरकार वह दिन आया जब दोनों लगभग ३ साल बाद वापस मिले। जगह पहले से तय था पूराने विद्यालय का पीपल के पेड़ वाला चबूतरा। यह चबूतरा पहले नहीं था। पर भोलू के शहर जाने के बाद गांव में बस यहीं कुछ अलग सा काम हुआ था। बोलू ने बड़ी प्रसन्नता से भोलू को यह चबूतरा दिखाया और बोला तेरे जाने के बाद यही मेरा दोस्त था। मुझे तो लगता है कि यह चबूतरा तेरे हीं याद में बना है। वो अलग बात है कि ऐसा सिर्फ मैं मानता हूं। भोलू का पहनावा बदल चुका था। अब हाफ पैंट की जगह फूल पैंट ने ले ली थी। अब पैंट के पिछे दाग नहीं थी। सर्ट चमचमाती हुई स्त्री की हुई। बाल बिलकुल भी उलझे नहीं। इसके अलग बोलू अब भी बोलू हीं था। बस अब हाफ पैंट की जगह फुल पैंट थी। बोलू ने चबूतरे पर हाथ फेरते हुए मुंह से हवा मारी और अपने हाथ को पैंट के पिछे पोछतें हुए बैठने को बोला। 
भोलू हल्का सिर हिलाते हुए बोला और बता तु यहीं रहेगा? गांव से बाहर नहीं जाएगा? बोलू उसकी और चुप देखता रहा। भोलू ने बोलना जारी रखा, सोच. तुझे यह चबूतरा इतना अच्छा लग रहा है तो सोच शहर में तो तु गुम हो जाएगा। बोलू इन बातों के लिए तैयार नहीं था। उसके पास तो इसका जबाव हीं नहीं था। वह तो श्याम भैया की गिल्ली डंडे की कहानी और मास्टर जी के समझावन देवता के किस्से लेकर आया था। अभिलाषा से जुड़ी कुछ सवालों के जवाब में बने बनाए सपने। बोलू तो उससे बचपन की बातें करना चाहता था जहां वो वापस उन दिनों में जा सके। उसने तो यादों का संसार बसाया था अपने भीतर वर्तमान से दशकों दूर की यादें। ताकि अपनी नादानी पर मुस्कुरा सके। वह तो अपने जेब में बब्बन के ठेले की ईमली लाया था जो उसे खाने के लिए देने वाला था। फिर बोलू अपनी जेब में इमली को टटोलता हुआ बोला। पता नहीं, बाबा बोलता तो है शहर जाने को लेकिन लेकर नहीं जाता। पर मैं खुश हूं भोलू गांव की महक मुझे अच्छी लगती है। बस तुझे याद करता हूं। बस तेरी कमी हमेशा रहती है। इतना कह बोलू शांत हो गया। उसके ज़बाब में भोलू अपने शहर की कहानी सुनाता रहा। बड़ी-बडी इमारतों और चौड़ी सड़कों का जिक्र करते हुए भोलू ने अपनी एक दोस्त सुलेखा का भी जिक्र किया। बोलू अपने भीतर एक सड़क ढूंढ रहा था। वहां से दूर भाग जाने के लिए। लेकिन सामने धूल में सनी सड़क थी जिसपर भागना आसान नहीं था। पर वो सुनता रहा और यह सोचता रहा कि इस तीन वर्ष की दूरी में भोलू उससे तीस वर्ष दूर जा चुका है। और वह ठहरा हुआ है अपने बचपन के किस्सों को लिए तीन साल पहले कहीं। भोलू मानों बड़ा हो गया था। इतना बड़ा की वह इस पेड़ की जड़ों को भी छोटा बता दे। और कह दे ये तो कुछ भी नहीं वो शहर का पेड़ देखेगा तो बोलेगा।
ऐसी ना जाने कितनी बातें भोलू के पास थीं। बातें बोलू के पास भी थी। पर दोनों की अलग-अलग। एक की कहानी में अभिलाषा थी। तो दूसरे की कहानी में सुलेखा। एक की कहानी में शहर की पक्की सड़कों पर दौड़ती बड़ी गाड़ियों का रेला था तो दूसरे की कहानी में गांव की कच्ची सड़क पर अपना कल लिखते लोग। बस अंतर इतना था कि बोलू अपनी कहानी सुनाना नहीं चाहता और भोलू वो सब बताना चाहता था जो उसे गांव से अच्छा लगता था। 
चांद आसमान में पूरी तरह फ़ैल चुका था। बोलू ने ऊपर नजरें घुमांई और खुद को चांद से दूर पड़े उदास तारों जैसा महसूस किया। अब उसे यकीन हो गया कि उसकी दोस्ती खतरे में है। या शायद समाप्त हो गई है
अचानक भोलू ने बोला चल, कल बागीचे चलते हैं। आम खाने भोलू ने बोलू से आंख चमकाते हुए कहा। बोलू चबूतरे को देखते हुए बोला। भोलू अब मेरा निशाना आम पर नहीं लगता। तुम अकेले चले जाना। और बिना पिछे मुड़े घर की ओर भाग निकला। चार कदम चलते हीं अपने जेब से उसने बब्बन के ठेले की सारी ईमलियां बाहर फेंक दीं। बिना पिछे मुड़े अपने हाथ को पैंट में पोंछा और अपनी यादों की नत्थी को घर जाकर आंखों के रास्ते बहा दिया। भोलू ने ईमली उठाई और चबूतरे को देखने लगा। जो शायद उसकी याद में बना था, ऐसा बोलू मानता था। ईमली का एक टुकड़ा उसने मुंह में डाला,अब भोलू के आंखों में आसूं थे।
 

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