मेरे लिए रिश्ते हमेशा बनते हीं आए हैं। उनके बिगड़ने की परिधि में मैं सदैव अपने दंभ से दूर भाग जाता हूं। और अपनी माफी के साथ उस वृत के समीप वापस आता हूं और इंतजार करता हूं उसमें प्रवेश के अनुमति का।
मेरे लिए रिश्तों में स्वभाव का चटकना दुख को स्थाई रूप देने जैसा है। मैं कभी भी दुख के बड़ा होने की कल्पना नहीं कर सकता। मेरे लिए क्योंकि दुख मृत्यु से बड़ा है। और दुख को छोटा किया भी नहीं जा सकता। उसे धकेला जा सकता है।
प्रेम से
माफी से
स्विकार्यता से
समर्पण से
सेवा से
पिछले वर्ष जब अभिषेक और मेरे संबंधों के मध्य धर्म ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी मैंने तब भी हार नहीं मानी थी। धर्म के धोखे में पूरा विश्व है और यह बिल्कुल सामान्य सी बात है। मैं अक्सर सोचता रहता क्या उस खाली संवाद और दूरी में धर्म स्थापित है या उसके दुष्प्रचार से पनपा धोखा जिसकी सनक में मनुष्यता का सजीवपन झुलस गया। क्रोध का प्रवाल रिश्तों पर जमने लगा जिसे उखड़ने के लिए किसी भारी दुख या हल्के प्रसन्नता के क्षण का इंतजार करना पड़ा।
हालांकि यह सारा कुछ मुझे ऊंचे स्तर तक सामान्य लगा। इस सामान्य सी बात के मूल में यह है कि हम सभी धर्म से जुड़े हुए हैं। चाहे हम आस्तिक हों या नास्तिक। कुछ चिजों की मौजूदगी को हम ना समझते हुए भी ना हीं पूरी तरह नकार सकते हैं और ना हीं अंधेपन के साथ उन्हें स्वीकारा जा सकता है।
फिर भी कुछ-कुछ स्विकार करने के ऊपर है। और सारा कुछ इन दोनों के बीच एक छुपे हुए वास्तविकता में है। और इसी स्विकार्यता में मैंने बढ़ते उम्र के साथ नए रिश्तों को सम्मान दिया है। और उससे भी कहीं अधिक उन्होंने मुझे सम्मान दिया है। वो भले हीं क्षणिक हो या दीर्धकालिक मैं इस गणित में नहीं पड़ने वाला। बदलते स्थान और व्यक्तियों के साथ मेरे समाज का निर्माण बदलता रहा है। मेरे रिश्तों का चेहरा भी।
बचपन के दिनों से मेरी कलाईयों पर राखियां बंधती आई हैं। स्थान बदलते हीं बांधने वाले भी बदलते आए हैं। लेकिन सभी कहीं न कहीं से स्वरक्त की परिधि से थे। पिछले कुछ वर्षों से जिसमें मैं उस सीमा के बाहर कूद आया हूं क्योंकि मेरी पहुंच मेरे काम और कमरे के बीच सिमट गई है। कुछ राखियां आनलाइन सुविधाओं के माध्यम से मेरे कमरे तक पहुंचती हैं। जिनसे मेरा किसी भी प्रकार का रक्तिय संबंध नहीं। कोई शिकायत नहीं। वो बिना किसी प्रश्न के आती हैं और मुझसे चिपक जाती हैं। कभी-कभी सोचता हूं मुझे क्यों चुना गया? उनसे पूछता भी हूं कि मैं क्यों?
जबाब इतना हीं आता है ज्यादा सोचा मत कर।
जब मैंने निवी को बताया कि मैंने स्वपन में कुल्हाड़ी की हत्या कर दी है और उसी वक्त कमल किशोर (सोनू) के फोन आ जाने से मैं बुरी तरह डर गया मानों मेरा अपराध पकड़ा गया हो, तो उसने कहा शायद तुम अपने बुरे विचारों की हत्या कर रहे थे।
जब मैंने यह बात पहली बार फूआ को बताई तो उन्होंने कहा.. थोड़ा कम सोचल कईली, थोड़े दिनों के लिए किताब मत पढ़। और सोनू लंबे समय तक हंसता रहा।
तो फिर मैं डरा क्यों?
सभी डरते हैं अपने बुरे को समाप्त करना इतना आसान नहीं होता। बुराई आज के समय में साधारण मनुष्य का सबल हैं जो उसके चरित्र से जुड़ा होता है। वो उसके जीवन का हिस्सा है जिसे मध्य में खोना आसान नहीं।
क्या मैं ज्यादा सोचता हूं?
नहीं तुम ज्यादा अलग जीने की कोशिश करते हो जो संभव नहीं।
मैं ज्यादा जीता हूं?
नहीं तुम ठीक-ठाक जी लेते हो। जितना आवश्यक है।
तुमने मुझे क्यों चुना?
क्योंकि तुम्हारे पास अब कुल्हाड़ी नहीं है।
पहले तो थी।
हां लेकिन तुम्हें चलाना नहीं आता था।
अभी मेरे पास क्या है?
ढे़र सारी क्रूरता, प्राकृतिक दुख जिसे तुम अपने देह से झाड़ना चाहते हो।
क्या मैं क्रूर हूं? किसके प्रति?
खुद के। खुद को माफ करना सीखो।
दुख बांटने से छोटा नहीं होता। ना हीं छुपाने से बड़ा होता है। उसका वास्तविक स्वरूप सदैव बना रहता है। हमारे रोते हीं वह धुल जाता है। रेत के चमकते पत्थर के समान और हमारे मुस्कुराते हीं सजाए हुए वर्तमान में स्मृतियों के पिछे छुप जाता है।
मैं चुप हूं। सुन रही हूं।
नहीं, मैं हीं क्यों?
क्योंकि तुम उस परिधी में आसानी से आ जाते हो।
तुम्हें पता है स्वप्ना ने अपनी मां को खो दिया है?
कौन है वो? क्या उसने तुम्हें बताया? क्यों?
पहचान है। नहीं! उसके दुख ने। शायद मैं उसके परिधि में आता हूं।
क्या उसका दुख भी प्राकृतिक है?
जिनके भी रिश्ते अपूर्ण हैं उनका दुख प्राकृतिक है।
ठीक है, मैं चुप हूं। सुन रही हूं।
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