सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, October 26, 2025

सूखे को कुछ बूंदों की आवश्यकता है।

यह एक प्रकार का हिंसात्मक सौन्दर्य है।
अपनी
प्रसन्नता
आश्चर्य
सरलता
और विशेष रूप से संपन्नता
को भरसक वापस पाने के क्रम में एक मीठा अपराध। जहां क्षोभ , क्षुधा के सूखे पत्तों का शोर मौजूद ना हो।

रूदन के स्वर में आलोक फैलाता श्रृंगार।

आंखों से बहती चांदी के द्रव्य को मैंने कैद किया है। 

सारे आश्चर्य भीतर की सहजता को नहीं स्विकार करते। कुछ उससे लड़ते हैं। 
हम उसमें भी अपने लिए कुछ सजे हुए पत्ते चुनते हैं जिसमें हमारा निर्मोही होना तो नहीं लेकिन सूखा होना झलकता है। 

और उस सूखे को कुछ बूंदों की आवश्यकता है

इसलिए यह हमें जरूरी लगने लगता है
और यह जरूरी है भी

कुछ अपनों में प्रकाश देखना

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