सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Saturday, February 27, 2021

अतीत का झरोखा

जब भी कोई मुझसे पूछता है और कोई नई खबर। मैं एक गहरी सांस खींचकर कहता हूं.. नहीं सब पुराना है। और बात वहीं अंत हो जाती है। शब्द जम जाते हैं और होठ बहाने ढूंढने लग जाता है बात पूरी तरह से खत्म कर देने के। सच में मेरे पास कुछ भी नया नहीं। मैं अब भी अपना सारा पूराना अपने भीतर पूरा भरा हुआ पाता हूं। और सारा नया अपने आसपास बिखरा हुआ। कोई मेरे भीतर नजर फेरे तो सारा अतीत मुंह बाए खड़ा है बाहर निकलने को लेकिन लोगों की व्यस्तता मैं दूर से हीं सूंघ लेता हूं। उस व्यस्तता के आगे मेरा खालीपन हर बार मेरे शब्दों को बांध देता है। 

मैं बताना चाहता हूं कि गांव से शहर जाकर पार्क में खेलते बच्चों को देख मैं आश्चर्य से भर गया था। लुक्का-छुप्पी और पकड़म-पकड़ाई से इतर कोई खेल मैंने पहली बार देखा था। अपनी ओर उछलकर आती गेंद को देख मैं डर गया था और तब तक भागता रहा जब तक उस गेंद ने घास में अपनी शक्ति नहीं खो दी। मैं वापस वहां जाकर उस गेंद को उठाकर जोर से पार्क के बाहर फेंकना चाहता हूं। उस गेंद को उतरी दूर फेंकना चाहता हूं जहां से वह गेंद किसी को नजर ना आए। 
पहली बार टीवी में देखे गए सिरियल सकालाका बूमबूम में संजू वाली पेंसिल को देख पाले गए सारे बचकाने ख्याल को उस १० ₹ वाली मुखौटा धारी पेंसिल को तोड़ समाप्त करना चाहता हूं। 
विद्यालय की भीड़ में एक कविता सुनाकर मैं बीच में हीं रोने लग गया था। सारे बच्चे मुझ पर हंस रहे थे मैं उस कविता को तेज आवाज में पूरा करना चाहता हूं। मैं उसे सबके बीच वापस सुनाकर उन बच्चों को चुनौती देना चाहता हूं। 
बोनू लता बहन जी के विश्वास को और प्रगाढ़ करना चाहता हूं जो उन्होंने मुझमें दिखाया था। मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि आपका चेहरा विवेकानंद जी से मिलता है। और यह बात मेरे बंगाल आने के बाद और गहरी हो गई है। आपका हंसता चेहरा मुझे स्वामी जी के करीब लेकर जाता है। 
श्याम आचार्य जी के हाथों पड़े डंडे के निशान को वापस हरा करके उन्हें दिखाना चाहता हूं कि यह आपके ज़िद की मार है मेरा कोई दोष नहीं था। आपके क्रोध ने मेरी चमडीयों को जलाया है। आप गुरु कम शिक्षक ज्यादा थे। शिक्षक ज्यादा इंसान कम थे। आपको आपके बेटी ने इंसान बनाया है। 
और शायद यहीं कारण है कि मैं स्त्रियों के समक्ष स्वयं को ज्यादा ईमानदार पाता हूं। उनके प्रति मेरा समर्पण प्रथम रहता है। यह मेरे बचपन के अधूरेपन, क्रोध और घृणा से जुड़ा है। श्याम आचार्य जी से क्रूर व्यक्तित्व मैंने अभी तक कुछ नहीं देखा। कभी भटकते स्वप्न में उनकी चोटों को आज भी महसूस करता हूं। उनकी क्रूरता ने मेरे वात्सल्य को निर्जन किया है। उसका भोग किया है। बोनू बहन के द्वारा भेंट की हुई  स्निगधता को मैं जीवन्त पुनः प्राप्त करना किसी भी माध्यम से असंभव है। यह मात्र अनुस्मरण में संभव है। 
मैं पिताजी की मृत्यु से ठीक पहले उनसे गले लगना चाहता हूं। उनका मेरे लिए संदेश सुनना चाहता हूं। उनका स्पर्श करना चाहता हूं। उनके जिवित  पर अपने होंठों का स्पर्श कर स्वाद चखना चाहता हूं। उनकी खुशबू को समेटना चाहता हूं। मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि अपने आसपास की सभी अप्रिय घटना को मैं उनकी मृत्यु के नजदीक देखता हूं। मेरा महसूस किया सारा दुख मुझे उनके पास लेकर जाता है। मैं उनके मृत्यु से पहले वो सारी बातें उनसे करना चाहता हूं जो मैं आज करने की सोचता हूं। उनके जीवन के अंतिम चौबीस घंटों को उनके साथ जीना चाहता हूं। पिताजी के मृत्यु पश्चात सामने उपस्थित मंडराते चेहरे जो मृत्यु को भगवान की आवश्यकता से तौल रहे थे। 
भगवान अच्छे लोगों को याद करते हैं। 
अच्छाई की जरूरत सबसे ज्यादा भगवान को है। 
देखो अपने आसपास, अच्छे लोग ज्यादा दिन नहीं जीते। 
जैसे मृत्यु ज्ञान बांटते लोगों से मैं कहना चाहता हूं कि तुम बहुत बुरे आदमी हो। क्योंकि तुम अब तक जिंदा हो। तुम्हारे शरीर से जीवन की बदबू आती है। अब भी समय है बदबू समाप्त करने का। अच्छे आदमी बनने का। या फिर अपने झूठ को स्वीकार करो। मृत्यु निश्चित है। संसार का सत्य है। परमेश्वर की आवश्यकता नहीं। मानों की तुम झूठ के साथ जी रहे हो। अच्छे लोग हमारी स्मृति में अंतिम श्वास तक जीवित रहते हैं। उनकी उपस्थिति सदैव सजीव रहती है। बिल्कुल प्राकृतिक जिसे हम अपने आंसुओं से उम्रभर सींचते हैं। और अपने वर्तमान में उनकी उपस्थिति के फूल खिलाते हैं। जिसकी खुशबू आपके देंह में पनप रही बदबू से शुद्ध और स्वच्छ है।
बचपन में मेरे रंग ना पहचान पाने पर मुझ पर हंसने वाले लोगों को कहना चाहता हूं कि देखो सब कुछ कितना स्याह है। देखो रंगों के जाल बुनते लोग आज रंगों के लिए लड़ रहे हैं। देखो रंगों का धर्म बांटा जा रहा है। तुम चुन सकते हो तो चुन लो अपना रंग। मैं अब काले सफेद में उलझा हूं। मैंने ये सारी बातें स्मृति को बताई थीं। उसने हंसते हुए कहां था पागल हो तुम और मैं अपने भीतर र मौन को सजाने लग गया था। अब वो इस दुनिया में नहीं है लेकिन मैं उसके ज़बाब का ज़बाब देना चाहता हूं नहीं मैं पागल नहीं हूं बस थोड़ा अलग हूं। जिस अलग के कारण हम दोस्त हैं....नहीं थे।
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी


Friday, February 26, 2021

धूप और उम्मीद

सूरज की धूप और उम्मीद दोनों मेरे कमरे में एक साथ प्रवेश करती है। रोशनी को एक नजर देख मैं मुस्कुराता हूं और उम्मीद को खुद में समेटे हुए अपना सारा आलस्य बिस्तर से झाड़ देता हूं। रात को देखा हुआ सारा स्वपन अपने हथेलियों में ढूंढ़ता हूं। लेकिन वहां कुछ भी नहीं मिलता सिवाय बेतरतीब रेखाओं के। मोबाइल को कुछ मिनट ताकता हूं, ढूंढ़ता हूं किसी अपने के कुछ खास संदेश लेकिन सिर्फ सरकार के माहौल बनाने और झूठ फैलाने वाले ट्वीट और मेरे संपादक मित्र की लिखने के मामले में कुछ सलाह आंखों में उतरते हैं। मैं उन सारे ट्वीट को अनदेखा कर सोनी फूआ को दो शब्द का मैसेज भेजता हूं। क्यों भेजता हूं? यह ठीक-ठीक पता नहीं। लेकिन मैसेज लिखता हूं तो लगता है कुछ अच्छा कर रहा हूं। कुछ अच्छा लिख रहा हूं। मेरे लिए लिखना, बोलने से ज्यादा सरल रहा है। मैं जो कुछ भी बोल नहीं पाता लिख देता हूं। और अब मैं उसका आदि हो चुका हूं। थोड़ा देर हो जाने पर ऐसा लगता है जैसे धूप ने शरीर को झकझोरा नहीं है। घर पर भैया से और मां से छोटी बात करता हूं। हां सब ठीक है इस से ठीक बात मैं आजतक नहीं कर पाया। शायद लिखना होता तो मैं बहुत कुछ लिखता लेकिन अब लंबा संदेश कोई पढ़ता नहीं और चिट्ठी-पत्री का दौर कहां रह गया। फोन रखने के बाद सोचता हूं अरे! वो बात तो कहा हीं नहीं जो कहनी थी चलो फिर बात होगी तो कहूंगा कि टालने की कोशिश में वह बात हमेशा मुझ तक हीं रह जाती है। दोपहर धीरे-धीरे आगे बढ़ती है उसके साथ मैं हल्की थकावट महसूस करता हूं। जब मैं पूरी तरह थक जाता हूं तो शाम हो जाती है। कभी-कभी मुझे लगता है शाम मेरे थकने से होती है। वहीं थकान लिए मैं अभिषेक को फोन करता हूं। कुछ लंबी बातें होती हैं। उन लंबी बातों में सबसे लंबी बातें होती हैं और कोई नया समाचार? और यह बार-बार दोनों तरफ से दुहराई जाती है अंत में ठीक है कि चुप्पी सब शांत कर देती है। सोने से पहले सोनू का फोन मुझे हर रोज आता है। वो कहता है मुझसे बात करना उसे अच्छा लगता है। मेरी जानकारी उसे सार्थक महसूस कराती है। मेरा मजाक उसे घंटों हंसाता है। और मैं भी अपना सारा झूठ सुनाकर हरा महसूस करता हूं। लगभग हर रोज यहीं होता है। मैं फिर एक करवट लेता हूं सो जाता हूं। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Saturday, June 20, 2020

झरोखा

मैं जीवन को उस झरोखे से देख रहा हूं जहां यथार्थ और कल्पना दोनों साथ चल रहे हैं। पर मानों यथार्थ से ज्यादा सच्चा कल्पनाओं का होना है। यथार्थ में मैं वो सब बिखरा हुआ पाता हूं जो कल्पनाओं में मैंने समेटा था। यथार्थ यानी मैं। कल्पना यानी तुम। मैं यथार्थ हूं पर मैं झूठा हूं बिना तुम्हारी कल्पना के। अधूरा हूं बिना तुम्हारे साथ के। उस अधूरेपन को समाप्त करने की दिशा में मैंने यथार्थ को एक कमरे में बंद कर रखा है और खिड़कियों को खोल कल्पनाओं को सुबह की धूप की पहली किरण में ढूंढता हूं। उनके मिलते हीं सब सच हो जाता है।

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