सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, June 20, 2020

झरोखा

मैं जीवन को उस झरोखे से देख रहा हूं जहां यथार्थ और कल्पना दोनों साथ चल रहे हैं। पर मानों यथार्थ से ज्यादा सच्चा कल्पनाओं का होना है। यथार्थ में मैं वो सब बिखरा हुआ पाता हूं जो कल्पनाओं में मैंने समेटा था। यथार्थ यानी मैं। कल्पना यानी तुम। मैं यथार्थ हूं पर मैं झूठा हूं बिना तुम्हारी कल्पना के। अधूरा हूं बिना तुम्हारे साथ के। उस अधूरेपन को समाप्त करने की दिशा में मैंने यथार्थ को एक कमरे में बंद कर रखा है और खिड़कियों को खोल कल्पनाओं को सुबह की धूप की पहली किरण में ढूंढता हूं। उनके मिलते हीं सब सच हो जाता है।

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