सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Saturday, June 20, 2020

बचपन का प्रतिबिंब एक काले साये का रूप ले बैठता है

बच्चों को देख हमारा बचपन नहीं लौट आता। बस उसकी यादें आती हैं। हम बचपन की ओर भागते हैं उसमें अपनी कल्पना करते हैं। बड़ों से जिज्ञासु साधक बन अपने बचपन की यादों को समेटते हैं। अपने बचपन से सामने उपस्थित बचपन की तुलना करते हैं। जितना हम उस तक पहुंच पाते हैं उतने का हमारे वर्तमान में एक प्रतिबिंब बनता है स्वयं का। जिसका हम अनुसरण करते हैं।  उस बचपन की यादों में खोते हुए हम हल्का मुस्कुराते हैं। तब तक , जब तक हमें कोई अहसास नहीं दिलाता हमारे बड़े होने का। और उस अहसास के करीब आते हीं बचपन का प्रतिबिंब एक काले साये का रूप ले बैठता है। हम पुनः बड़े हो जाते हैं। बच्चों के साथ खेलने लग जाते हैं। बच्चे बन कर नहीं समझदार बड़े बनकर।

-पीयूष चतुर्वेदी

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