सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
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Wednesday, April 27, 2022

#श्रीनय #अन्मय दोनों #यथार्थ

दो चेहरे
दो देंह
दो स्थान
दोनों को साथ देखना भी क्षणिक रहा।
एक मौन को प्राप्त दूसरा मौन के आसपास भटकता हुआ।
एक भागता हुआ तो दूसरा ठहर कर देखता हुआ।
एक नदी सा चंचल, दूसरा हवा सा शांत।
एक तकता हुआ, दूसरा रमता हुआ।
एक की शरारतें हंसी सजाए गुदगुदाती हुई, दूसरे की बदमाशियां क्षण भर के लिए चिड़चिड़ापन से सनी।
उस गुदगुदी और चिड़चिड़ापन में के मध्य चाहे जो हो लेकिन आरंभ और अंत में ममता मुस्कुरा रही थी।


#श्रीनय #अन्मय
दोनों #यथार्थ

Monday, April 25, 2022

आंखों में उतरती हर छाया आश्चर्य है

धूप, छांव
धरती, नदी
पवन, आकाश
मैं, तुम, हम सभी आश्चर्य हैं। 
देंह को स्पर्श करती हर वस्तु आश्चर्य है।
आंखों में उतरती हर छाया आश्चर्य है।
-पीयूष चतुर्वेदी 

Saturday, January 23, 2021

मुक्तता

अल्हड़ सा बचपन कितना चिन्ता मुक्त और अपना सा हुआ करता है। जीवन की मुक्तता वास्तव में बचपन हीं सजा कर रखता है। और वह तब तक हमारे साथ चिपका रहता है जब तक हम गुलाम नहीं होते जवानी के। जब तक हमें थकान नहीं होती बुढ़ापे की। असल में जवानी हमारे जीवन का सीढ़ी है जहां पहुंचकर हम वापस तय कर सकते हैं बचपन और पचपन में किसकी आवश्यकता अधिक है। या एक सजी हुई सी खिड़की है जिसके एक और हमारा जिया हुआ जीवन है और दूसरी ओर जिया जाने वाला अधूरापन। जहां बचपना हमें जवान होने से रोकेगा और पचपन एक भारी टीस को सजाएगा। टीस बचपन को पचपन तक जिंदा ना रख पाने की। कसक बेवजह ना हंस पाने की। किसी त्यौहार पर नए कपड़े को पहनकर पूरा मुहल्ला हंसी बिखेरते ना घुम पाने की। ढ़ेर सारी मिठाईयों में से अपने पसंद की दो ज्यादा ना जुटा पाने की। हर किसी कि मीठी, कड़वी,सच्ची, झूठी बातों को एक तराजू में ना तौल पाने की। मुक्तता को झूठे बड़कपन से हराने की। और वो सारा जिया हुआ आश्चर्य अपने ज्ञान के आगे धुंधला कर जाने की। 
-पीयूष चतुर्वेदी

Monday, September 28, 2020

मनुष्यता

हमारा अबोध होना हीं हमारे मनुष्यता को सहेज कर रखता है। 
अबोध की अधिकता मनुष्यता को जन्म देती है। 
चिजों का बोध होना हीं मनुष्यता को प्रभावित करती है।
बोध से विचार और विचार से विकार की उत्पत्ति होती है। 
कुछ पल के लिए अपने ज्ञान को अपने बचपन वाली नासमझ सी मुठ्ठीयों में छुपा देना चाहिए। और मनुष्यता का स्वागत करना चाहिए।
-पीयूष चतुर्वेदी

Friday, September 4, 2020

आश्चर्य

बचपन सही-गलत की सीमाओं से मुक्त होता है। सीमाएं तो बड़े बनाते हैं बच्चों के लिए। बच्चा तो हर कदम आश्चर्य के साथ आगे बढ़ाता है। जहां रंग बिरंगे कंचे भी उसे हीरा लगता है। चिकने पत्थर में उसे जीने का आनंद मिल जाता है। उसकी कोई इच्छा नहीं होती बस आश्चर्य होता है। बड़े उस आश्चर्य को समाप्त करते हैं। शायद वो आश्चर्य से भरा बचपन हम हमेशा अपनी मुठ्ठी में छुपाए बड़े होते तो हम हमेशा प्रसन्न रहते। हमारे आश्चर्य को हमेशा से किसी की अहंकार भरी सोच और लालच भरी आकांक्षाओं ने मारा है। बचपन कभी नहीं जाता हमारे भीतर से बस आश्चर्य समाप्त हो जाता है। फिर हम सारी वहीं ढूंढते हैं जो हमारे किसी अपने ने हमसे छीन लिया था। आश्चर्य का समाप्त होना बड़े होने की प्रथम सीढ़ी है।
-पीयूष चतुर्वेदी

Wednesday, July 22, 2020

बचपन

अक्सर सभी को कहते सुना है। बचपन जीवन का सबसे हसीन पल होता है। हम जी रहे होते हैं वो लम्हें जो वापस कभी लौटकर नहीं आते। मैंने तो कुछ भी वापस लौटकर आते नहीं देखा। और कुछ आया भी तो अधूरा हीं। अगर बचपन अनमोल है तो आजाद क्यों नहीं? जीवन चक्र का सबसे परितंत्र लम्हा है बचपन। स्वतंत्र तो जवानी है। पर अफसोस वापस वो भी नहीं आता। बचपन कभी अपनी जिंदगी नहीं जीता। वो जी रहा होता है जवानी का गुलाम बन, दूसरों की सोच की बनाई हुई जिंदगी।जहां उसके द्वारा उठाया हर कदम संस्कार की बेडी़यो में बंधा आजादी को ढूंढ रहा होता है। और जवानी उसे अपने तय सीमाओं में जीवन जीता देख प्रशन्न होता है।

Saturday, June 20, 2020

बचपन का प्रतिबिंब एक काले साये का रूप ले बैठता है

बच्चों को देख हमारा बचपन नहीं लौट आता। बस उसकी यादें आती हैं। हम बचपन की ओर भागते हैं उसमें अपनी कल्पना करते हैं। बड़ों से जिज्ञासु साधक बन अपने बचपन की यादों को समेटते हैं। अपने बचपन से सामने उपस्थित बचपन की तुलना करते हैं। जितना हम उस तक पहुंच पाते हैं उतने का हमारे वर्तमान में एक प्रतिबिंब बनता है स्वयं का। जिसका हम अनुसरण करते हैं।  उस बचपन की यादों में खोते हुए हम हल्का मुस्कुराते हैं। तब तक , जब तक हमें कोई अहसास नहीं दिलाता हमारे बड़े होने का। और उस अहसास के करीब आते हीं बचपन का प्रतिबिंब एक काले साये का रूप ले बैठता है। हम पुनः बड़े हो जाते हैं। बच्चों के साथ खेलने लग जाते हैं। बच्चे बन कर नहीं समझदार बड़े बनकर।

-पीयूष चतुर्वेदी

Friday, March 27, 2020

बच्चों के चेहरे पर चांद जैसी मुस्कुराहट होती है।

खिड़कियों के बाहर देखते हुए चेहरे पर बेहिसाब हंसी और फिर अचानक से शांत चेहरा। जेसै कुछ हीं पल में जीवन का ज्ञान हो गया हो। बाहर की ओर देखते हुए हर क्षण चेहरे के बदलते भाव जीवन की वास्तविकता से मिला रहे हों। ऐसा हीं कुछ बच्चे को खिड़की के बाहर देखते उसके चेहरे के बदलते हाव-भाव को देख मुझे आभास हुआ। रोने से जिंदगी की शुरुआत होती है। फिर अपने हमेशा मुस्कुराते हुए देखना चाहते हैं। एक हल्की चोट भी उस बच्चे से ज़्यादा अभिभावक को दुख देकर चली जाती है। पर यह तो मात्र चिंता होती है जो बदलती घटनाओं के साथ भूमिका बदलती है। सच तो यह है कि हमें सिर्फ हंसने के बहाने खोजने होते हैं। रोने से तो जीवन का सत्य जुड़ा हुआ है। और इसका योग बचपन से हीं नजर आता है। पर ममता और जिम्मेदारीयों के मध्य बच्चों की चेहरे पर खुशी देखने की चाहत अपना काम इस प्रकार इमानदारी से करती है मानों बच्चे को सारी खुशियां मिल गई हों। पर रोता वो तब भी है जब उसे कुछ कमी महसूस होती है। और बड़े उसे हर संभव कोशिश कर हंसी का रूप देते हैं। बच्चों के चेहरे पर चांद जैसी मुस्कुराहट होती है। पर कहीं ना कहीं अभिभावक के चेहरे पर घने बादलों सा छाया। माथे पर एक अजीब सी लकीर बनती जाती है जिसके बनने के बाद उनकी मुस्कुराहट कम होती है। होंठों पर असहनीय थकान नजर आती है जिनके खुलने का दायरा कम हो जाता है। चेहरे पर अजीब सा मौन होता है। जिसे लोग समझदारी का नाम देकर दिल को बहलाते हैं।यह कोई चमत्कार नहीं है। हमेशा से हंसी रोने से हारते आई है। यहां तक कि खुशी के अपने अलग आंसू होते हैं। बस मन की शांति के लिए उन आंसूओं को हमने हंसने में हीं शामिल कर लिया अपने सुविधा के अनुसार। यहां कुछ नया घटित नहीं होता। उनका भी बचपन मुस्कराहट भरा होता है। पर समझ, समय, उम्र की मार सिर्फ उनके शरीर का वजन, आकार और बुद्धि का विकास हीं नहीं करती उन्हें एक चक्र में बांध देती है। जिसकी शुरुआत कब और कैसे हुई कोई नहीं जानता। पर बदलते समय के साथ सभी ने मुस्कुराहट को बरकरार रखने की कोशिश की है। बस मुस्कुराहट के चेहरे और उम्र बदलते गए। और ऐसा भविष्य में भी होता रहेगा। और हर बार वहीं होगा कि बीतते हर दिन के साथ मुस्कुराने की संख्या कम होती जाएगी। बचपन मुस्कराता हुआ और पचपन में हंसी धुंधलाता हुआ। .



-पीयूष चतुर्वेदी

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