सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, March 27, 2020

बच्चों के चेहरे पर चांद जैसी मुस्कुराहट होती है।

खिड़कियों के बाहर देखते हुए चेहरे पर बेहिसाब हंसी और फिर अचानक से शांत चेहरा। जेसै कुछ हीं पल में जीवन का ज्ञान हो गया हो। बाहर की ओर देखते हुए हर क्षण चेहरे के बदलते भाव जीवन की वास्तविकता से मिला रहे हों। ऐसा हीं कुछ बच्चे को खिड़की के बाहर देखते उसके चेहरे के बदलते हाव-भाव को देख मुझे आभास हुआ। रोने से जिंदगी की शुरुआत होती है। फिर अपने हमेशा मुस्कुराते हुए देखना चाहते हैं। एक हल्की चोट भी उस बच्चे से ज़्यादा अभिभावक को दुख देकर चली जाती है। पर यह तो मात्र चिंता होती है जो बदलती घटनाओं के साथ भूमिका बदलती है। सच तो यह है कि हमें सिर्फ हंसने के बहाने खोजने होते हैं। रोने से तो जीवन का सत्य जुड़ा हुआ है। और इसका योग बचपन से हीं नजर आता है। पर ममता और जिम्मेदारीयों के मध्य बच्चों की चेहरे पर खुशी देखने की चाहत अपना काम इस प्रकार इमानदारी से करती है मानों बच्चे को सारी खुशियां मिल गई हों। पर रोता वो तब भी है जब उसे कुछ कमी महसूस होती है। और बड़े उसे हर संभव कोशिश कर हंसी का रूप देते हैं। बच्चों के चेहरे पर चांद जैसी मुस्कुराहट होती है। पर कहीं ना कहीं अभिभावक के चेहरे पर घने बादलों सा छाया। माथे पर एक अजीब सी लकीर बनती जाती है जिसके बनने के बाद उनकी मुस्कुराहट कम होती है। होंठों पर असहनीय थकान नजर आती है जिनके खुलने का दायरा कम हो जाता है। चेहरे पर अजीब सा मौन होता है। जिसे लोग समझदारी का नाम देकर दिल को बहलाते हैं।यह कोई चमत्कार नहीं है। हमेशा से हंसी रोने से हारते आई है। यहां तक कि खुशी के अपने अलग आंसू होते हैं। बस मन की शांति के लिए उन आंसूओं को हमने हंसने में हीं शामिल कर लिया अपने सुविधा के अनुसार। यहां कुछ नया घटित नहीं होता। उनका भी बचपन मुस्कराहट भरा होता है। पर समझ, समय, उम्र की मार सिर्फ उनके शरीर का वजन, आकार और बुद्धि का विकास हीं नहीं करती उन्हें एक चक्र में बांध देती है। जिसकी शुरुआत कब और कैसे हुई कोई नहीं जानता। पर बदलते समय के साथ सभी ने मुस्कुराहट को बरकरार रखने की कोशिश की है। बस मुस्कुराहट के चेहरे और उम्र बदलते गए। और ऐसा भविष्य में भी होता रहेगा। और हर बार वहीं होगा कि बीतते हर दिन के साथ मुस्कुराने की संख्या कम होती जाएगी। बचपन मुस्कराता हुआ और पचपन में हंसी धुंधलाता हुआ। .



-पीयूष चतुर्वेदी

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