मैं बिते शनिवार आगरा में था। जहां मैंने अपने जीवन के सबसे बेहतरीन दिन गुजारे हैं। हास्टल में जीवन को गुदगुदाने वाले नए दोस्त बनाए। कालेज में जीवन में भूख मिटाने जितनी पढ़ाई-लिखाई की और शहर में थकने तक घूमता रहा। वो सारे दोस्त जिनके साथ मैं शहर घूमता था उनमें से कुछ के चेहरे भी मैं भूल चुका हूं। कुछ के नाम अब अधूरे से याद हैं। उनकी स्मृतियों पर भी काई जमा हो चुकी है। कुछ दोस्तों को अगर छोड़ दूं जिनसे थोड़ा स्वार्थीपना जुड़ा हुआ था उन्हें छोड़कर किसी की स्मृति उजली नहीं है। कभी अकेले उन दिनों को याद करता हूं तो सोचता हूं कि मैं अपने रास्ते पर आगे बढ़ता हुआ सारा अतीत भूलता आया हूं। उसपर वर्तमान की धूल इतनी मोटी सी जम गई है जिससे भीतर झांककर नहीं देखा जा सकता। मैंने पिछले महिने अपने एक मित्र से बोला कि मैं अतीत को पोंछना चाहता हूं। उसके छूना चाहता हूं। उसके खरोंचों को सहलाना चाहता हूं। मैं जानता हूं मैं उसे छू नहीं सकता लेकिन उस तक पहुंचना चाहता हूं। मौन लिए उसे ठीक उतना देखना चाहता हूं जितना वह आज भी वर्तमान में बचा हुआ होगा। शायद कुछ ऐसा मैं देख सकूं जो ठीक उतना हीं हो जितना मैं वहां आठ वर्ष पहले छूकर आया था। उसे देखकर आया था । जहां मैंने अपनी आंखों से वो सारा देखा था जो देखा जाना चाहिए। जो अधिकतर लोग आगरा वहीं देखने के लिए आते हैं। जहां मैं अपने मित्रों के साथ शहर की गंदी बजबजाती गलियां भी घूमीं थीं और ताजगंज की रौनक भी देखी थी। क्या कुछ वैसा स्थायी बचा रह गया है इस परिवर्तनशील समय में?
चलो आगरा चलते हैं। वापस से बीते दिनों में अपनी स्मृति को स्नान करा आते हैं और यह सारी हंसती हुई बातें मैं उस मित्र से कर रहा था जिसका चेहरा मुझे साफ-साफ़ याद है क्योंकि वो अब तक मेरे साथ हैं। उस शहर से इस शहर तक उस सफर में गांव भी शामिल है। जो कुछ भी छूटा था वह बहुत थोड़े समय के लिए था। अब वह सारा कुछ एक कमरे में समेट लिया गया है। शायद यहीं कारण भी है कि मैं उन दिनों पर अक्सर कूद जाता हूं।
फिर उसने यह कहकर बोझील शब्दों में ना कह दिया कि वहां तो रहे हीं है यार। सब तो देखा हीं है क्या देखा जाएगा? मैं नहीं जा रहा।
क्या देखा जाएगा? का जबाब मेरे पास तब भी नहीं था और यात्रा के दौरान भी नहीं है। और शायद समाप्ति के बाद भी नहीं रहेगा।
क्योंकि कि देखने के क्रिया बहुत सामान्य है। यदि हममें देखने की तकात है तो हमें पहली नजर में वो सब देखना होता है जो हमें दिख रहा है या देखना चाहते हैं। मन की समझ आंखों को कभी धोखा नहीं दे सकती। कुछ ना देखने का प्रण कर भी जहां हम किसी को देखकर अपनी आंखें मोड़ लें उस असामान्य पल में भी आंखें क्षणिक मात्र मे हीं वो सारा कुछ स्मृति के रूप में इक्कठा कर लेती हैं जिसे हम एकांत में अपलक आंखें खोलकर भी और बंद आंखों के साथ भी देख सकते हैं। और उसके आगे घटित हुई अनदेखी पहलुओं के साथ आगे बढ़ सकते हैं।
मैं वहां कुछ देखने नहीं जा रहा था। मैं देखें हुए को और मजबूत करने जा रहा था। हम एक हीं गली से जब रोज़ गुजर रहे होते हैं तो वह सामान्य सी घटना लगती है लेकिन जब लंबे अरसे बाद उस गली से होकर निकलते हैं तो स्मृतियां हमारे वर्तमान को खटखटाने लगती हैं। वो बार-बार हमें उन दिनों में धकेलती हैं जहां से हम बाहर निकल आए थे। मैं वहां अपने वर्तमान को खटखटाने के लिए जाना चाहता था। जहां अतीत को पाकर वह जान सके कि अतीत के बिना वर्तमान का कोई अस्तित्व नहीं। भविष्य का भी बिना अतीत के जीवन पर कोई अधिकार नहीं। सारा कुछ बिते हुए में है। प्रतिपल बीतते समय में हीं सारा कुछ निहित है।
मैंने अपने साथ काम कर रहे मेरे मित्र सतीश से इस बारे में बात की जिसे मैं पिछले तीन वर्षों से जान रहा हूं। जिसे मेरे अतीत के ढूंढने या वर्तमान के खटखटाने जैसी सोच से बिल्कुल अंजान था उससे कहता हूं कि, चल आगरा चलते हैं घूम आते हैं वैसे भी कल छुट्टी है और फिर रविवार को विकली आफ है। बोल चलता है?
उसने कहा चल और तुरंत हीं रेलवे की साइट पर टिकट ढूंढने लगा। टिकट बचे हुए थे लेकिन मैंने ये कह कर उसे रोक दिया कि रूक जा शहर से बाहर जाना है तो एक बार सर से बात कर लेते हैं।
वो उस रात अपनी तैयारियां करता रहा कि उसे कहां-कहां घूमना है। किन चिजों को आगरा से लिया जा सकता है। तथा कहां पर रूकना ठीक रहेगा। यूट्यूब पर उसने ताजमहल और लाल किला से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण विडियोज भी देखे जिससे वहां गाइड करने की आवश्यकता ना पड़े तथा और भी बहुत कुछ।
मैं भी अपनी तैयारियों में जुटा रहा। मेरी सारी स्मृतियां भींगी हुई मेरी आंखों में तैर रही थी। "पप्पू काका" यह शब्द अचानक मेरे मुंह से उछलकर सतीश के कानों में गिरे।
क्या हुआ? क्या बोल रहा है?
मैंने कहा पप्पू काका से मिलना है जहां मैं खाना खाने जाता था वहां वो काम करते थे और विश्राम काका से वहां मैं चाय पीता था। वो मेरे कालेज में सिक्योरिटी गार्ड का काम करते थे।
अरे! भाई मैं ताजमहल घूमने का सोच रहा हूं।
वहां तो चलूंगा ना लेकिन मुझे यहां भी जाना है। जिधर मैं रहता था उस तरफ। ज्यादा अंदर तक नहीं लेकिन आसपास से गुजरना है। ठीक वहां से जहां से मैं कभी मस्ती में दोस्तों की भीड़ में शामिल गली, बाजार घूमा करता था।
अगली सुबह ११ को हमनें छुट्टी ली और शाम को रूरा जंक्शन से इंटरसिटी एक्सप्रेस से निकलने की तैयारी बधाई। दोपहर २ बजे मैं , सतीश और राकेश आफिस से निकले और उससे पहले के समय में हमनें वहां ठहरने के लिए साधन जुटाना के लिए आनलाइन होटल तलाशना शुरू किया। तमाम रेटिंग और आनलाइन सर्च करने तथा उसे बार-बार अलग-अलग वेबसाइट पर देखने के बाद रश्मि होटल में रूकने का हमनें निर्णय लिया। आनलाइन नंबर लेकर हमनें उनसे बात कि तथा उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि आनलाइन बुकिंग की आवश्यकता नहीं है यहां आने के बाद आप चेक-इन कर सकते हैं।
लगभग ५ बजे हम रूम से स्टेशन के लिए निकले, ट्रेन सही समय पर थी। लेकिन हमारी तत्काल बुकिंग के कारण हमारी सीटें अलग-अलग बोगियों में कन्फर्म हुई थी। स्टेशन पहुंचते हीं सतीश ने कहा यार मैं तेरे जल्दी के चक्कर में अपना इयरफोन भूल गया।
कोई बात नहीं मोबाइल तो नहीं भूला?
अबे, नहीं।
फिर ठीक है क्योंकि फोटोस तेरे फोन से खींचने हैं।
सतीश ने कुछ दिन पहले हीं नया फोन लिया है और उसमें तस्वीरें कमाल की आती हैं। ठीक आइफोन या महंगे कैमरे जीतना नहीं। आंखों को पसंद आ जाए ठीक उतना। खुद को देखकर संतुष्ट होने जितना। मैं उन्हें यहां संल्गन भी करूंगा।
ट्रेन के आते हीं मैं अपनी सीट के पास पहुंचा तो वहां पहले से हीं एक लड़की बैठी हुई थी। मैंने उनके बगल में बैठे आधे बुजुर्ग आदमी से कहा कि वह उन्हें बता दें कि यह मेरी सीट है लेकिन उन्होंने इस मामले में कोई रूचि नहीं दिखाई। मेरे दुबारा बोलने से पहले किनारे बैठे युवक ने उस लड़की को कंधे से छुआ फिर उस लड़की की नजर मुझसे टकराई, मैंने कहा यह मेरी सीट है......आप.... मेरे पूरा बोलने से पहले हीं वह उदास सी मुस्कान लिए वहां से अपने किनारे बैठे युवक जिसने उसे स्पर्श किया था उसके साथ दूसरी ओर चली गई। मानों जैसे मेरे आने से उन्हें गहरा असंतोष हुआ हो। जैसे उनकी स्मिति के बीच मैं अपनी टीकट लेकर पहुंच गया और उनकी मुस्कुराहट सिमट गई।
बैठते हीं मैंने अपने बैग से निर्मल वर्मा जी की "जलती झाड़ी" किताब को हाथों में लिया जिसकी अंत की कुछ कहानियां अभी भी बाकी थी। और मैं उनके साथ "लंदन में एक रात" के सफर पर घूमने लगा। अपनी सारी निजी सोच को हर बार की तरह उनके लेखन में ढूंढ़ता रहा और ट्रेन आगे बढ़ती रही।
इटावा पहुंचा तो प्यास महसूस हुई। मेरे पास पानी नहीं था। पानी खरीदने को सोचा तो पानी वाले के पास ५०० के चेंज नहीं थे। कितना अजीब है यह सारा कुछ व्यवस्थित होने के बाद भी कुछ चिजों का अपने सोचे अनुसार ना घटित होना। जैसे सामने अविरल नदी का शोर हो और किसी मछली प्रेमी मछली को नदी से ठीक बाहर तट पर ला पटका हो।
मैंने राकेश को फोन किया। वो पानी लेकर मेरे पास आया फिर मैंने उससे कुछ चेंज रूपए लिए ताकि अगले स्टेशन पर पानी ले सकूं।
टुंडला जंक्शन पर पहुंचते हीं राकेश ने मुझे और सतीश को फोन किया कि यहां आ जाईए सीट बहुत खाली है।
मैं थोड़ी हीं देर में उसके पास था। थोड़े और समय बाद हम तीनों साथ थे। तभी ठीक उसी समय एक फेरी वाला "समौसा गरम समौसा" की आवाज लगाता हुआ हमारे पास से गुजरा। और उसकी आवाज सुनते हीं मैं मुस्कुराने लगा।
क्या हुआ से? काहे ?
तुझे पता है टुंडला के समोसे की एक खासियत है।
क्या?
यहां कभी भी आओ चाहे जो भी समय हो रहा हो, यहां के समोसे हमेशा गर्म रहते हैं। उनसे एक बेहद अलग महक होती है। वो सुगंधित या बदबूदार नहीं होती। प्रश्नवाचक होती है। ठीक-ठीक वो किसकी महक लिए बैठा है यह तय कर पाना मुश्किल है। क्योंकि वो हमेशा किसी गर्म भट्टी के सामने रखी रखती है और रंग बदलती रहती है लेकिन यात्रा की भूख सारा कुछ उदरस्थ करा देती है। गर्म समोसे और साथ में तिखी मिर्च ताकि आप समोसे के स्वाद को भूलकर भी किसी एक स्वाद से जुड़े रहें क्योंकि पेट भरने के लिए किसी ना किसी स्वाद की आवश्यकता है चाहे वो भले हीं हमें नापसंद हो जैसे देश चलाने के लिए गठबंधन की सरकार।
फिर हम थोड़ी देर चुप बैठे रहे। और ठीक ऐसी हीं गिली मुस्कान फिरोजाबाद पार करते समय भी मेरे चेहरे पर गिरी थी। मुझे तरूण उपाध्याय की याद आ गई थी जिससे जब भी पूछा जाता कि कहां से हो भाई तो वह लंबी और मोटी आवाज़ में कहता "फिर्रोज्जाबाद"
(मूंह में रुमाल लिए तरूण उपाध्याय)
जब हम यमुना ब्रिज पार कर रहे थे जो आगरा फोर्ट रेलवे स्टेशन से ठीक पहले सटा हुआ शहर से जुड़ता है तो मैं सतीश को बता रहा था कि इस ब्रिज से ताज महल दिखता है। और मेरे एक मित्र अंशु जी थे बिहार के जिन्होंने आगरा में रहते हुए भी ताज महल इस पुल से हीं देखा है। कहते थे अगर शाहजहां लाल किले से बैठकर देख सकता है तो मेरा यहां से देखने में क्या बुराई है? क्यों पैसे को ताज महल की सफेदी में राख किया जाए?
इसी चर्चा के दौरान ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। ३ नंबर प्लेटफार्म पर उतरकर सबसे पहले मैंने वाटर कूलर की तरफ देखा। क्योंकि ८ साल पहले मैंने इस पानी को चखा था जिसका स्वाद मुझे आज भी याद है। बिल्कुल कसैला जैसे सारे शहर की गंदगी और जहरिली गैस इस शहर के पानी को बेस्वाद बना गई हो।
स्टेशन से बाहर निकलने के लिए हमने ब्रिज का सहारा लिया और मैं पुराने ब्रिज को ढूंढने लगा। क्योंकि यह नया था बिते वर्षों में यह मेरे उपयोग में कभी नहीं रहा। मेरे भीतर कुछ उत्पलावित हो रहा था जिसे मैं अपने चेहरे पर आने देने से रोकता रहा। अतीत की भटकति धुंधली छाया साफ होने लगी। मैं सतीश को बता रहा था यह नया ब्रिज है वो सामने देखो वह पुराना है भीतर से सिढी़नुमा भीतर से सजा हुआ। उस भीड़ में शायद उसे सुनने में असुविधा हो रही थी वह मेरे करीब आ गया।
यात्री के बैठने के लिए बनाई गई आराम कुर्सी को देख मैंने कहा मैं यहां ट्रेन के इंतजार में बैठा हूं। इन दुकानों से मैंने नाश्ता पैक कराया है। इस दुकान से मैंने बहुतों बार पेठा पैक कराया है। बाहर निकलते हीं शोर ने हमारी आवाज को निगल लिया।
कहां जाएंगे भैया?
होटल?
बताईए छोड़ दूं?
बुक कर लिए हैं कि कर लिया है?
बताईए A1 दिलवाएंगे। बताईए?
कैंट?
ताजगंज?
ईदगाह?
कहां जाएंगे भैया?
जाना तो है यार लेकिन अभी कहीं नहीं, अभी तय नहीं किया है।
अरे! बताईए तो।
राकेश ने कहा, इसके मुंह से बहुत बदबू आ रहा है। पिया रखा है साला।
चलो पहले बाहर चलते हैं। फिर वहां से देखेंगे।
हां भैया कहां? कैंट? हां भैया कहां? भगवान टाकिज?
अरे! नहीं भाई।
अरे! बताईए तो कहां जाना है?
रश्मि होटल ताजगंज।
नहीं वहां नहीं जाएंगे।
का महाराज फिर काहे पूछे?
आटोवाला अपने रोज के काम में लग गया।
मैंने कहा चलो बिजली घर चौराहा कि तरफ चलते हैं।
हम थोड़ा आगे बढ़े तो एक आटोवाला हमारी सेवा के लिए तैयार था। हमारे बैठते हीं इंजन स्टार्ट हुआ और हम चौराहे की तरफ बढ़ने लगे। ठीक उसके पहले एक छोटी पुलिया की तिखी गंध मेरे नासापुटों से टकराई। हमनें अपनी नाक बंद कि और आटो चालक बाहर एक गाढ़ी थूक सड़क पर बिखेर दिया।
यह अब भी उतना हीं गंदा है जितना पहले था।
कितने दिनों बाद आए हैं भाई साहब?
लगभग आठ साल।
हा..हा... अब तो काफी बदल गया आगरा। लेकिन ये गंध नहीं बदली।
मैं एक ओर इशारा कर सतीश को बता रहा था कि यहां कूड़े का ठेर लगा करता था।
अब नहीं लगता साहब, अब जगह बदल गई।
ये क्या है? काफी बड़ा कार्यक्रम आयोजित है लगता है?
हां पंडाल है, दुर्गा पूजा का। रामलीला भी यहीं होती है वो देखिए रावण...।
कला तो यहां से निकलना शाम में मुश्किल हो जाने वाला है।
सुबह भी कुछ देखने को रहता है?
सुबह तो जी केवल चार पैर वाले आते हैं।
गाय, बैल ?
नहीं जी कुत्ते। कहा ना आगरा बहुत बदल गया है।
यहां मैट्रो आ गई है भाई साहब। आपको लगेगा जैसे आप दिल्ली में आ गए हो। अभी आपको लेकर चल रहा आप देखना सड़कें एकदम दिल्ली जैसी हो गई हैं। आगरा चौपाटी बन गया है। जुहू चौपाटी सुना है आपने? आई लव आगरा भी बन गया है।
आई लव आगरा मतलब?
अरे वहीं जिसमें दिल बना होता है। लोग फोटो खिंचते हैं।
अच्छा-अच्छा। हर छोटे से बड़े शहर में यहां तक की किसी बड़े शापिंग मॉल के सामने भी बनते जा रहे सेल्फी प्वाइंट को मैंने कभी विकास की सीमा में नहीं रख पाया लेकिन आटो वाले के लिए वह सामान्य घटना नहीं थी। वह भी विकास का पुंज था जिससे ताजमहल की चमक बढ़ रही थी।
ठीक कहा रहा था आटो वाला। शहर नित्य बदलता है। रोज वहां जीने वाले वो परिवर्तन सीधे तौर पर नहीं देख पाते। सालों के बाद कभी-कभी भटकने वाले उस परिवर्तन को पहली नजर में पहचान जाते हैं। लेकिन आटो वाला उस परिवर्तन को पहचानता क्योंकि उसका रोज का भटकना था।
सड़कें पहले से चौड़ी नजर आ रही थीं। ताजगंज मेरे देखे हुए से बहुत आगे निकल आया था। देखी हुई लगभग सारी तस्वीरें अपने आप को व्यवस्थित रूप दे गई थी।
होटल के आसपास वाले क्षेत्र में काफी सजावट थी। हल्की धूमिल रोशनी में सड़क पर लगे पत्थर चमक रहे थे। हमनें पूर्वी गेट के पास हीं रश्मि होटल जाना था जिसका लोकेशन मैप में मैं देख रहा था। आटो रिक्शा रूकते हीं भागता हुआ एक आदमी हमारे पास आया जिसकी लम्बाई बहुत अधिक नहीं थी लेकिन चेहरा दाढ़ी से भरी हुई थी और माथे पर लंबा गहरा टीका।
आप हीं आने वाले थे? आपने हीं फोन किया था?
हां, आप रश्मि होटल से।
जी, आइए। इस ओर सामने से।
काउंटर पर दो अन्य लोग ठीक उसी पहनावे में लगभग अधूरा सा मुस्कुराते हुए हमारे स्वागत में खड़े थे। । बाहर "भारतीय जनता पार्टी आगरा महामंत्री रश्मि सिंह " नाम का बोर्ड लगा हुआ था।
आप हीं थे जिसने अभी फोन किया था कुछ समय पहले?
जी, सतीश ने कहा। रूम तो ऐविलेवल है ना?
हां, नान एसी।
कोई बात नहीं, क्या रेट है?
१५०० रूपए।
हमनें पहले खुद को फिर उन दोनों को विस्मय से देखा। सुबह बात हुई थी तो मैम ने १२०० कहा था सतीश ने लगभग विरोध करते हुए कहा।
नहीं-नहीं, १५०० हीं है। मैंने आपको कुछ देर पहले भी बताया था।
हम बेकार की उलझनों से दूर बुकिंग की सारी कार्यवाही पूरी करते हुए अपने कमरे में बैग पटक दिया।
भोजन की आपके यहां व्यवस्था है?
जी बगल में हीं हमारा रेस्टोरेंट है आप वहां भोजन कर सकते हैं।
"अमेजिंग रेस्टोरेंट "
भोजन करने की व्यवस्था ऊपर थी। लगभग सारे टेबल बुक थे। और सभी बंगाल से थे। शायद अपनी दुर्गा पूजा की छुट्टीयों उन्होंने आगरा में व्यतीत करना चुना होगा। कभी-कभी भारी ऊबन भी हमें बहुत दूर लेकर आ जाती है। हम तीनों बैठे-बैठे टूटी फूटी बंगला बोलकर आपस में हंस भी रहे थे। इस तारीफ़ पूर्ण बातचीत के साथ कि लोगों को अपनी भाषा नहीं भूलनी चाहिए। फिर हमनें आपस में भोजपुरी में बातचीत करना शुरू किया। एक लड़का था जो सभी से आर्डर ले रहा था और खाना भी सिढ़िया चढ़ता हुआ या कहूं लगभग उनपर दौड़ता हुआ सबकी टेबल तक पहुंचा रहा था। सबकी इच्छा पूरी कर रहा था। उसकी भाषा बिल्कुल भी आम आगरा वासी की तरह कठोर नहीं थी। बिल्कुल मिठी और सरल जिसमें केवल स्विकार्यता थी। तिरस्कार या बोझिल होने का भाव नहीं था।
और कुछ लेंगे आप?
लेना तो रायता था लेकिन आपको इस तरह ऊपर आता देख मैं स्तब्ध हूं। आपकी कसरत काफी ज्यादा है। मेहनत काफी कम है आपकी।
हा...हा.... कभी लंबी छुट्टी लूंगा अभी आपके लिए रायता लेकर आता हूं।
मैं आपके अवकाश की कल्पना नहीं कर सकता। आपकी भाषा में स्वाद है, परोसे हुए भोजन से भी ज्यादा। यात्री आपको इतनी आसानी से छुट्टी नहीं देंगे।
हा...हा... धन्यवाद आपका।
पेमेंट?
आप चलिए मैं निचे आता हूं।
आगरा में पहली बार मैंने सादा भोजन किया था जिसमें मिर्च का तीखापन नहीं के बराबर था। भोजन करने के बाद हमनें थोड़ा बाहर टहलना तय किया। कमरे के बाहर बाल्कनी में कुछ तस्वीरें क्लिक की और खुद को गुदगुदे , गद्दीदार बिस्तर में छुपा लिया।
सुबह लगभग ६ बजे सभी एक-एक कर तैयार होते रहे और खुद को नंगे बदन बड़े से आईने के सामने निहारते हुए तैयार हुए। यह हमारे लिए बिल्कुल नया था। तैयार होकर हम अपने बैग के साथ बाहर निकले। काउंटर पर पहुंचते हीं आधी निंद में पूरा जगा हुआ आदमी सुस्त आवाज़ में कहता है "चेक आउट" करेंगे। जैसे उसे पहले से हीं पता हो कि हम और नहीं ठहरने वाले। या शायद यह उसका नित्य का काम होगा। हमनें हां में सिर हिलाया गर्म चौड़ी मुस्कान से उन्हें विदा किया और बाहर सड़क पर निकल आए।
थोड़ी देर में हम ताजगंज रोड पर पैदल ताजमहल की ओर आगे बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों तरफ हरियाली और मध्य में पुलिस बैरिकेड। बैरिकेड पार करने के बाद हरियाली की जगह चमकदार दुकानों ने ले ली। कुछ नाश्ते की भी दुकानें थीं। पत्थर से बनी चिजों तथा हैट के दुकानों की प्रमुखता थी। टिकट लेने के बाद हमनें भीतर प्रवेश किया। चेकप्वाइंट सिक्योरिटी द्वारा हमें हमारे बैग के साथ जाने की आपत्ति जताई गई। दूसरी ओर टोकन ना होने का दावा किया गया इस जबाबी नोंक-झोंक में उसने बैग पर नाम लिखकर जमा कर लिया। आर्ट गैलरी से होते हुए जहां अलग-अलग वर्षों में ताज की तस्विरों की प्रदर्शनी लगाई गई थी,हम आगे बढ़े।
थोड़ी देर में हम ताजमहल के मुख्य दरवाजे पर थे। देश विदेश से आए लगभग सभी मुस्कुराते हुए चेहरों के बीच हम भी थे। मेरे भीतर कुछ था तो बाहर आने को दौड़ रहा था। वो दुख तो नहीं था ठीक-ठाक सुख भी नहीं। इन दोनों के मध्य का कुछ था शायद उत्साह था जिसने मेरे रोएं को हल्का जगा दिया था। दरवाजे से भीतर घुसते हीं सफेद चमकदार ताज हमें मोहने के लिए तैयार था। एक नवविवाहित जोड़ा जो उस भीड़ में सभी से अलग था, सूरज और ताज के मिनार को कहीं एक हीं फ्रेम में कैद कर फोटो सूट कराने के प्रयास में खोया हुआ था। लगभग सभी के कैमरे या मोबाइल
बाहर निकले हुए थे तथा सभी ताज के साथ स्वयं को किसी मधुर याद के साथ कैद करने को लेकर इच्छित थे। प्रोफेशनल कैमरामैन अपनी कला को प्रदर्शित करने के लिए चेहरे ढूंढ़ रहे थे। कुछ विदेशी यात्री छुपती भागती गिलहरी की तस्वीर कैद करने का प्रयास कर रहे थे। कुछ उसमें सफल भी हुए यह उनके चेहरे पर पसरा हुआ संतोष बता रहा था। और शायद वह सबसे खुबसूरत तस्वीर हो मैं ऐसी कल्पना करता हूं। गाइड की जानकारी भरी आवाज भीड़ को अपनी ओर खींच रही थी। ठीक वैसे लोग जिन्हें ताजमहल को देखने के साथ जानना भी था लेकिन वो गाइड करने की हैसियत नहीं रखते थे। मुझे पुराने दिनों की याद आ गई जब हम ऐसी हीं गाइड वाली शोर का पिछा किया करते थे।
लंबी लाइन के बाद हमनें वो सारा कुछ देखा जो वहां जाकर हर भीड़ देखती है। म्यूजियम में उस समय की उपयोगी वस्तुओं और कागजात तथा मानचित्रों को हल्के में से देखता हुआ बाहर निकल आया। सतीश और राकेश ने कुछ और समय वहां खुद को व्यस्त रखा।
मैं उससे अलग उन कोनों को ढूंढ रहा था जहां मैं पहले बैठ चुका था। उन कुर्सियों का अनुमान लगा रहा था जिसपर बैठकर मैंने फोटो खिचाईं थी। ढेरों लकड़ी के पुराने दरवाजे के बीच जिन्हें देखकर गांव के दरवाजों की याद आती है जिसकी उपस्थित मेरे मस्तिष्क में थी मैंने वहां कुछ तस्वीरें
क्लिक कराई तथा आर्ट गैलरी में घूमता हुआ बाहर निकल आया। जहां भारत के अलग-अलग राज्यों के धरोहरों को स्थान दिया गया है।
बाहर की भीड़ सुबह की भीड़ से अधिक सघन थी। सुने, अनसुने शोर के बीच अपनी बात स्पष्टता से कहने के लिए निर्जन कोना ढुंढना लगभग असंभव था। दुकान वाले पूरी भीड़ को अपने दुकान में भर लेना चाहते थे। उन्हें वो सारी चिजें बेचना चाहते थे जो ताज घूमने आए लोगों को लेना चाहिए। उनके सारे सामान "ये देखो जी ये एक नंबर आइटम है" मैं तो यहीं कहूंगा कि अगर आप ले रहे हो तो यहीं लो। ये बेस्ट है जी।
दुकान में एक लेमिनेशन की हुई तस्वीर टंगी हुई थी। थोड़ी हीं अंतर पर दो समान तस्वीरें।
ये आपके परिवार से हैं? जो राष्ट्रपति भवन में पुरस्कार ले रहे हैं। हनीफ खान जी।
हां जी, फादर हैं हमारे १९७७ में पुरस्कार मिला था इन्हें। पत्थरों को तरासने के लिए। हमारी फैक्ट्री है भाई साहब। मुख्य दुकानदार ने गर्व से कहा।
वो तो सर जी यहां जितनी दुकानें हैं सभी अपनी फैक्ट्री बता रहे हैं। लेकिन यह गर्व का भाव आपके लिए होना चाहिए कि आप पुरस्कृत हैं।
जी, बताईए क्या निकाल दूं?
क्या लेगा सत्तू?
तु क्या लेगा?
मैं यार कुछ घर के लिए ले लूंगा।
मुख्य दुकानदार राजस्थान से आए ग्राहक के लिए ताजमहल दिखाने लगा। एक आधी उम्र का लड़का हमें चुडियां दिखा रहा था।
ये देखिए मैडम, ये लाइट वाला ताजमहल बस इसे जला के रख दिजिए, आटोमेटिक है सात अलग-अलग रंग हैं इसमें। आप एक बार लें के जाइए। वैसे तो ७०० है लेकिन आपके लिए ५५० रूपए।
अरे भैया हम भी राजस्थान से हैं वहां भी पत्थर का हीं काम होता है। हमें ना बताइए ५५०.
तो आप बताइए।
ये देखो भैया पत्थर के चूरा की चूड़ी है केवल ३५० की।
अरे! कुछ भी , सही लगाओ तो ले जाएं नहीं तो निकलें।
क्या महाराज सही लगवाईए दाम। मैंने मुख्य दुकानदार से कहा।
क्या लगाया छोटे?
२५० बोला है भाई जान।
हां हां.. सही है, आप चिज देखो भाई साहब।
हां तो मैडम बताईए?
३०० सौ।
अरे नहीं पड़ रहा मैडम।
तो ठीक है रहने दिजिए। और वो महिला लगभग दुकान से बाहर निकल आई थी उसने फिर आवाज़ देकर वापस बुला लिया।
मैडम चलिए ३५०
नहीं।
अच्छा ३२०, अरे मैडम लागत तो दे दिजिए।
चलिए दिजिए।
ऐसा हीं नाटकीय प्रक्रिया हमारे साथ भी हुआ।
महाराज लेडिज के सामने आपलोग का आवाज नहीं निकलता है और हमसे जो है पैसा लिए जा रहे हैं। कुछ अंग्रेजों के लिए भी छोड़ दिजिए। इतना लूटे हैं सब भोंसड़ी वाले उनको लूटिए। अपनों से क्या है।
नहीं भाई साहब, बिजनेस है बड़ा तगड़ा कंपटीशन हो गया है। और लेडिजों का क्या है बड़ी दिक्कत होती है। उनसे झीकझीक करते नहीं बनती। अब आप लोग से कर लेते हैं दिन बन जाता है। बताईए और क्या दूं?
वो पत्थर वाला हाथीं.......
हाथी नहीं है भाई साहब... हथिनी है।
गर्भवती है ,शुभ होता है।
कुछ देर बाद हम नाशते की दुकान पर थे।
आगरा का प्रसिद्ध बढ़ई और आलू की सब्जी जिसमें दही ऊपर से डाली जाती है बिल्कुल करारी और गर्म हमने खाया जो मैं पहले भी आगरा में खा चुका था। राजपुर चुंगी और संजय पैलेस के बाजार में यह शाम तक बिकता रहता है। फिर मीना बाजार होते हुए हम आगरा किला देखने के लिए आगे बढ़े। बीच में हमनें लेदर के कुछ सामान की खरिददारी भी की।
मैं भीतर प्रवेश कर रहा था तो एक युवा गाइड मेरे पास आता है और कहता है सर गाइड?
भाई साहब हैट लगा लिया तो लंदन का समझ लिया क्या? यहां पहले भी आ चुका हूं भाई। और यह कहते हुए मैं खुद की हंसी नहीं रोक पा रहा था। मैंने ऐसा व्यवहार क्यों किया मैं अब भी नहीं समझ पाया। मैं शायद शाहजहां मुगल सल्तनत या इस बड़े से किले के बारे में कुछ भी नहीं जानता लेकिन मैं इतना जानता हूं कि मैं यहां पहले घूम चुका हूं और मैं यहां घूम सकता हूं।
किले की बनावट, खुबसूरती,जरजर्रता पर बात करते हुए हम भीतर प्रवेश कर रहे थे। मानों वह हमारा अपना घर हो जिसकी हमसे रखरखाव में कमी रह गई हो।
टूटा सिंघासन,
शाहजहां का झरोखा
फांसी घर
नगिना मस्जिद
राज दरबार जैसी मुख्य स्थानों को देखकर हम किला के भीतर भटक रहे थे। जिसमें सबसे मुख्य वो क्षेत्र था जहां से ताजमहल नजर आता था। वहां लोगों कि सबसे ज्यादा भीड़ थी।
भीड़ उन लोगों की जो अभी-अभी ताज महल देखकर यहां आए थे। मानों हम जैसो की भीड़। बिल्कुल लालची भीड़ जो यहां भी सारा कुछ खुद में समेटने को व्याकुल है।
सोमनाथ दरवाजे के पास भीतरी इलाके में प्रवेश करते हुए मैं एक लड़की से जा टकराया जो अपने मित्र की सहायता से स्लोमोशन विडियो सूट करा रही थी। और उस पूरे विडियो में मैं उसके साथ आगे बढ़ रहा था। विडियो देखने के बाद हम दोनों ने एक दूसरे को देखा लेकिन किसी ने कोई शब्द कहना सही नहीं समझा। मैं जब वापस लौट रहा था तो फिर से हमारी नजरें टकराई और हम दोनों लगभग छोटी सी हंस दिए। उसकी आंखों में गिली सी चमक थी जो ज्यादा खुश के बाद आंखों में तैरती है।
"मैं आपकी स्मृति में अमर हो चुका हूं आपको शायद यह बात अजीब लगे लेकिन आप जब भी इसे किसी के साथ या स्वयं से सांझा करेंगी मैं भी वहां रहूंगा जब तक आप इसे भूला ना दें या इसे समाप्त ना कर दें, हालांकि समाप्त करने के बाद भी आपको इसे अपने संसार से दूर फेंकना होगा इस यात्रा को अपने दर्शन में नष्ट करना होगा" मैं यह बात उनसे कहना चाहता था लेकिन "आपको पता है मुमताज यह कभी नहीं जान पाई कि शाहज़हां उससे इतना प्रेम करता है और उसके लिए महल और खुद के लिए झरोखे का निर्माण भी कराया है" मैं बस इतना ही कह सका।
जी, उसने कुछ हड़बड़ा में कहा... जैसे उसे इसकी अपेक्षा ना रही हो।
फिर खुद को सुलझाते हुए पूछा, क्या ऐसा संभव है?
अगर शाहजहां ने ऐसा किया है और लोग उसे देखने आ रहे हैं और सुन रहे हैं तो यह संभव हीं होगा।
दोनों के चेहरे पर इस बार जानी पहचानी हंसी तैर गई जो बिल्कुल इमानदार और वास्तविक थी।
फिर स्कूली बच्चों की भीड़ ने उस ओर प्रवेश किया और सभी अपने साथ अकेले भीड़ में खो गए।
क्या ऐसे गुम हो जाना संभव है?
बिल्कुल संभव है। कितने लोग कितनों के लिए कितना कुछ कर रहे हैं बिना कुछ जताए हुए जिससे सामने वाला भी अंजान है। ऐसे सभी अपने स्वप्निल संसार में गुम हैं। मैंने तो बचपन में चितरंजन को सारा कुछ करते देखा है। वो सब जिससे उसकी प्रेमिका अंजान थी। वो लड़की दुबारा मिलती तो मैं उसे चितु की कहानी सुनाता शाहजहां की नहीं। मैं चितु को ज्यादा बेहतर जानता हूं।
बाहर निकलते हुए मैं सतीश को बता रहा था कि मेरे पास इस स्थान पर खींची गई फोटो मोबाइल में है। मैं उन चबूतरों ,आराम कुर्सी तथा सिढ़ियो को पहचान रहा था जहां मैं कभी बैठा था।
(बाईं ओर राकेश)
बाहर निकलने से ठीक पहले मैंने विनोद आटो वाले को फोन किया जिनसे मेरा पुराने दिनों का संपर्क था। जिनके साथ मैं अपने कालेज के दिनों में इक्जाम सेंटर जाया करता था लेकिन उनका फोन नहीं लग रहा था। मैं चाहता था कि मैं उनके साथ हीं राजपुर चुंगी के जाऊं जहां मुझे पप्पू काका से मिलना था।
चौराहे पर आकर मैंने राजपुर के लिए आटो बुक किया।
कहां जाएंगे भैया चुंगी पे?
ठीक-ठीक नहीं मालूम लेकिन न्यू आगरा रेस्टोरेंट जाना है भैया। वो जहां दो रास्ते कटते हैं ना एक मस्जिद के लिए और दूसरा जहां से आप लेकर जाएंगे फिर दोनों बगिया पे जाकर मिलते हैं ठीक उसी के आसपास शायद गोल मार्केट नाम है उसका।
अच्छा, चलिए आप देख लिजिएगा जहां कहेंगे रोक दूंगा।
इसके बाद कहां जाना है? कहिए तो मैं आपको छोड़ दूंगा।
नहीं अभी नहीं, वहां मुझे किसी ने मिलना है, फिर आगे कुछ पुराना देखूंगा। इसके बाद का कुछ तय नहीं किया।
फिर भी, कहा जाएंगे?
कानपुर जाना है।
बस तो यहीं से मिल जाएगी, कहिए तो।
नहीं-नहीं आपका धन्यवाद, इतना सोचने के लिए। अभी आप मुझे वहां पहुंचा दीजिए।
मैं उन रास्तों को पहचान रहा था। पूरे रास्ते मैं सतीश को बताता रहा और यह भी बताया कि मेरे उन वर्षों की डायरी में कुछ मानचित्र मैंने बनाए हैं जहां मैं घूमा करता था। डिवाइडर आते हीं मैं उस जगह को पहचान गया सारा कुछ मस्तिष्क में कौंधने लगा। वर्षों की जमीं स्मृतियां धुलने लगीं सारा मानों सारा अतीत क्षण भर में चैतन्य हो उठा।
पहली नजर आर्यन गारमेंट पर जाकर रूकी जहां से उन दिनों सस्ते सर्ट और पैंट लिया करता था जिसका पता हास्टल के वार्डन अरमान मलिक ने बताया था। बाद में यह भी सुनने को मिला कि वहां से उन्हें इस काम के लिए पैसे मिला करते था या कभी-कभी मुफ्त में कपड़े।
रोड क्रॉस करते हीं मेरी नज़र रेस्टोरेंट को ढूंढने लगीं। उसके ठीक सामने ५-६ जोमैटो की बाइक्स खड़ी थी। मैंने सतीश को इसारा किया यहीं है और निचे उतरने लगे। मैं अपने शरीर पर झुरझुरी महसूस कर रहा था जैसे मेरे देंह पर कुछ मुलायम सा चल रहा हो और मुझे गुदगुदा रहा हो। रेस्टोरेंट पहले से और बड़ा हो गया था। टेबल कुर्सीयों की संख्या बढ़ गई थी। बीच के गलियारों में झांकती शिशे पर स्टिकर्स चिपका दिए गए थे। दुकान थोड़ी और अंदर तक बढ़ गई थी। भोजन पकाने का स्थान भीतर चला गया था। मैं अंदर जाकर उस कुर्सी के आसपास बैठ गया जहां पहले बैठा करता था। ठीक-ठीक उस स्थान पर नहीं बस उसके आसपास।
बैठते हीं मैंने कहा पप्पू काका है क्या?
एक नपी-तुली मुस्कान लिए युवा चेहरे मेरे सामने रूका और कहा भैया वो तो चले गए।
चले गए मतलब कहां?
काम छोड़कर चले गए।
कब?
बहुत पहले। आपके लिए कुछ लगा दूं?
रोटी के लिए सर पहले बोल दीजिएगा। पैकिंग का आर्डर ज्यादा है।
मैं थोड़ी देर में बताता हूं।
मैं नहीं जानता था कि मैं आगे क्या बताने वाला हूं। मैं इतनी दूर से मूल रूप से उनसे हीं मिलने आया था। जानता है सत्तू हम जब भी यहां आते थे कुछ आर्डर करते तो पप्पू काका पहले हीं धीरे से कहा देते कि वो ना आर्डर करो, ठीक नहीं बनाते सब और खुद हीं खुद बता जाते। जैसे उन्हें हमारे स्वाद का पता हो और यह संबंध हमारे बीच दूसरी या तीसरी बार से हीं स्थापित हो गया था।
मैं और मेरे मित्र विजय चौधरी ने इस रेस्टोरेंट को ढूंढ़ा था इससे पहले हम बगिया पर खाते थे, जहां बरगद के पेड़ में उसने बेसिंग लगा रखा था। हो सकेगा तो अभी आगे चला जाएगा।
लेकिन मेरी सारी इच्छा कहीं स्वाहा हो गई थी। मैंने फोन बाहर निकाला और विश्राम काका को फोन मिलाया।
(विश्राम काका)
विश्राम काका , कालेज के सिक्योरिटी गार्ड और हमारे चाय वाहक। मसालेदार और मलाईदार चाय के सूत्र धार। जो खुद को फूलन देवी के गैंग का डाकू बताते थे।
"जब उन्ने सरेंडर करो तब हमनें भी सरेंडर कै दौ कुछ रोज जेल में गुज़ारो फिर यहां आई गए"उनके बारे प्रागैतिहासिक था कि वो बचपन से हीं डकैत थे। बचपन में बगिया से फलों का डाका डाला, किशोरावस्था में लड़कियों के दिल पर
जवानी के दिनों में घर लूटे और अब बुढ़ापे में कालेज के लड़कों के स्वाद पर कब्जा किए बैठे हैं। कैंटीन की चाय छोड़ सभी उनके चाय के दिवाने हुआ करते थे।
वो चुतरवेदी....वो चतुरपादी साहब कहां हैं? चाय तो लेई लौ।
उनके इस प्रेम के विरोध में मैं मात्र "काका...काका गजब करते हैं आप.... कहता हुआ उनके चाय का स्वाद ले पाया और हफ्ते में दो दिन मलाई वाली चाय मुफ्त। मैं आज भी चाय के लिए पागल नहीं हूं। तब भी नहीं था बस उस स्वाद से और काका के अंदाज से प्रेम था फिर वो स्वाद कभी दूबारा मिला भी नहीं। लोग कहते हैं बनारस की चाय बहुत स्वादिष्ट होती है और प्रसिद्धि प्राप्त भी लेकिन वहां विश्राम काका का मसाला मुझे कभी नहीं मिला। काका अक्सर रात में बंदूक कन्धे पर टांगे कहा करते थे "चुतरवेदी हम तुमहरे बियाह में चाय बनईबे, हमका लेई के चलिहौ तो?"
मैं यह वादा पूरा नहीं कर पाया मैंने दूबारा उस ओर कभी सोचा तक नहीं। आज यहां आकर उन्हें फोन किया तो वह नंबर किसी और को आवंटित हो गया है। रितिका पाण्डेय नाम की लड़की ने फोन उठाया जिसने इस नाम को आजतक नहीं सुना। वह बिल्कुल अंजान है।
"आप चाय पिती है?"
नहीं..ये कैसा सवाल है? रांग नंबर है भाई साहब।
मैं भी इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था यह काफी उजड़ा हुआ सवाल था। शायद मेरी व्यग्रता के कारण यह मेरे मुंह से फूट पड़ा...
अब मैं मानता हूं, और माफी चाहता हूं आपसे, लेकिन यह नंबर पहले विश्राम काका के नाम पर रजिस्टर्ड था वो बहुत हीं सुलझी हुई चाय बनाते थे।
अच्छा-अच्छा, फिर एक हस... सी आवाज जैसे उनके होंठ हिले हों। मानों एक छोटी सी अधूरी हंसी बाहर आई हो।
ठीक है.. रांग नंबर।
उनका दूसरा नंबर भी स्विच आफ मिला।
सर क्या लगा दूं?
हाथ धोना है मुझे।
जी, आगे।
हाथ धोकर मैं वापस लौट रहा था तो काऊंटर पर एक लगभग मेरी हीं उम्र की लड़की बैठी हुई थी। पहले इसपर अंकल जी बैठा करते थे। "परमानंद जी"
पप्पू भैया ने नौकरी छोड़ दी है भैया।
कब?
पिताजी के देहांत के बाद। ६ साल हो गए शायद।
अंकल का देहांत हो गया?
हां, उसने नज़रें निचे किए हुए हीं टूटते शब्दों अपनी बात पूरी की। शायद उन्हें डर था कि उनकी नजरें ऊपर करते हीं उसमें तैरते पानी में मैं कुछ ढूंढने लगूंगा।
आप जानते थे उन्हें?
नहीं, पहचानता था। मैं अक्सर यहां आया करता था। दोस्तों के साथ। वो भी मुझे पहचानते थे।
अच्छा।
फिर हमारे बीच एक सघन निरवता बैठ गई। मैंने कुछ नहीं बोला मानों अच्छा बोलना इस संवाद को समाप्त करने के पूर्व का संबोधन हो। तब मुझे लगा कि कितना जरुरी होता है किसी को जानना। मैं सिर्फ इन लोगों को पहचानता था। पप्पू काका को भी मैं कितना जानता था? उन्हें भी सिर्फ पहचानता हीं था। जैसे मुझे यहां के भोजन की पहचान थी ठीक वैसी हीं इन लोगों की।
(न्यू आगरा रेस्टोरेंट मैन्यू का प्रमुख पृष्ठ)
मैं वापस अपने स्थान पर आकर बैठ गया। मैन्यू देखा अब उसमें साफ प्लेट की सुविधा नहीं थी लेकिन दाम अब भी मितव्यई थे। बस रूप रेखा बदल दी गई थी। युवा सोच ने अपने दायरे को और बड़ा कर लिया था। शायद यहीं कारण था कि आनलाइन आर्डर की संख्या ज्यादा थी। हमनें खाना आर्डर किया। लड़के ने दोबारा वहीं बात दुहराई, सर रोटी का पहले बता दीजियेगा।
हम्म।
मैंने सतीश और राकेश को बताया की अंकल जी का देहांत हो गया है। और उनके जाने के बाद हीं पप्पू काका ने नौकरी बदल दी। मेरे मोबाइल में उनकी फोटो जरूर होगी। मैं अपना ड्राइव खंगालने लगा लेकिन पप्पू काका किसी तस्वीर में नहीं आए। अंकल जी का चेहरा एक तस्वीर को छुआ हुआ मिला मैंने सत्तू को दिखाया देख.. यहीं है ये सारी फोटोस यहीं की है।
हमारे भोजन करते हुए दो १४-१५ साल के लड़के जो शायद जुड़वां थे वो एक विदेशी यात्री के साथ रेस्टोरेंट में प्रवेश किए।
उस लड़के ने उस यात्री के लिए दाल तड़का और रोटी आर्डर किया। और बैठकर उनसे बातें करता रहा। शायद वो उन्हें कहीं घूमता हुआ मिला था जिसे सस्ते रेस्टोरेंट में खाना की आवश्यकता था। उसके व्यवहार से साफ नजर आ रहा था की वह गरीब विदेशी है नहीं तो ताजगंज की चकाचौंध छोड़कर कोई भी अंग्रेज चुंगी में नहीं भटकता। बाद में उसने उन लड़कों से कहा कि वह जर्मनी से है। और कल वाराणसी जाने वाला है। वहां कुछ दिन रहेगा फिर वापस चला जाएगा। उनमें से एक खाते हुए उसकी तस्वीरें उतार रहा था और वो हर बार मुस्कुरा देता और बाद में उन्हें कहता कि फोटो अपलोड ना करें। दूसरा लड़का उसे खाने का सही तरीका बता रहा था क्योंकि वो रोटी को सूखा मूंह में डालकर दाल चम्मच से मुंह में घोलता था। लड़के ने उसे बताया कि रोटी को दाल में डूबोकर खाया जाता है। और वो या... या.. लाईक दिस करता हुआ खाता गया।
भोजन करने के बाद हम बगिया तक आगे आए।
"सुपर मार्केट"
हम यहां से ज़रूर सामान लिया करते थे, तुझे पता है मैंने पहला सिंथाल परफ्यूम यहीं से लिया था।
"जुगनू इलेक्ट्रॉनिक शाॅप"
यहां इस दुकान के आगे एक फूल्की वाला लगाया करता था जो करारी सूजी के बतासे बनाया करता था।
"जतीन मोबाइल शाॅप"
ये पहली दुकान थी जहां मोबाइल ई .एम .आई. पर मिला करता था।
"जतीन घड़ी दुकान"
यहां से चौबे ने अपना पहला चश्मा बनवाया था। हमनें भी चश्मे हीं चश्में के ९९ रूपए वाले चश्मे यहीं से लिए थे। "९९ रूपए में चश्में हीं चश्में" अब भी कहीं चश्मा दुकान देखकर बड़बड़ाने लगता हूं। उसके साथ मिले कवर में मैंने बहुत दिनों तक सिक्के इकट्ठे कर रखे थे अभी उनमें पुराने पेन कैद हैं।
"गौरव स्विटस"
यहां पूरे दिन नाश्ता मिलता है। भोजन के समय में भी नाश्ता हीं मिलता है।
"बैंक आफ बड़ौदा"
यहां हमारे अकाउंट खोले गए थे, स्कालरशिप के लिए जो आज तक नहीं आई लेकिन पासबुक अब भी कहीं फाइल में पड़ा हुआ है।
"शेखावत जूस कार्नर"
यहां हम जूस पीने आते थे। एक रोज मैंने और पाठक ने एक खुबसूरत लड़की को अपने सुनहरे बालों के साथ खेलते हुए देखा तो रोज आने लगे। कुछ दिनों के बाद उसने आना बंद कर दिया तो हमारे आने की संख्या में भी गिरावट आई। फिर हमारा बिल्कुल हीं निम्नतम होगा गया लेकिन हम उस गुमनाम लड़की के खुबसूरती को हास्टल तक फैला आए थे। इसके बगल में एक मोबाइल शाॅप थी देख अभी भी है। यह चोरी के मोबाइल खरीदा करता था।
मैं और आगे जाना चाहता था,
सौ फुटा
कहरई
पन्ना पैलेस
बरौली अहीर
सिकंदरा रोड और भी...
लेकिन विश्राम काका की कोई खबर ना होने के कारण मैंने आगे जाने की इच्छा को समाप्त कर दिया।
"बिरयानी शाॅप"
यहां मैं हैंकी के साथ पहली बार भारी उत्साह पाले जीभ से होंठों को गिला करता हुआ एक लालची भाव चेहरे पर ढ़ोता हुआ मस्जिद के पास चिकन बिरयानी खाने आया था। नहीं-नहीं वो रूमाल नहीं था। मेरा दोस्त था, अभी भी है। उसकी लम्बाई छोटी थी और दिमाग गर्म इसलिए यह सब एक मजाक जैसा हुआ करता था। मुर्गे को कटता हुआ देख तथा उन्हें लफेटकर सींक में भोगा पर आग पर सींकता देख मुझे उबकाई आ गई थी। और मैं काफी देर तक कै.. कै.. करता रहा था। नहीं मैंने उल्टी नहीं की बस कोशिश करता रहा और कटे हुए मुर्गे का दृश्य लिए वर्षों घुमता रहा अब भी चिकन शाप देखकर कै... कै.. की आवाज निकल आती है।
ऐसी तमाम स्मृतियों के बारे में मैं अपने साथियों को बताता हुआ हंसता रहा। फिर हम सदर बाजार गए। जहां के मार्डन बुक डिपोट से हमनें कुछ किताबें खरीदीं तथा पंछी स्टोर से रंग बिरंगे पेठा की ढ़ेर में अपने जेब के स्वादानुसार आगरा का प्रसिद्ध पेठा लिया। कुछ दोस्तों ने भी इच्छा जाहिर की थी उनके लिए भी। और फिर आई.एस.बी.टी. होते हुए वापस कानपुर के लिए निकल पड़े।
और यह लिखते हुए मैं भीतर तक प्रसन्नता से भरा हुआ हूं। यात्रा की सघनता ने यह स्वीकार कर लिया है कि मेरा पप्पू काका से मिलना ना मिलना नियति मात्र है। उनसे मिलकर मैं थोड़ा और हरा जरूर महसूस करता क्योंकि उनसे मिलना मेरी यात्रा के मूल में था। यदि मैं उसे उन्मूलित करना भी चाहूं तो नहीं कर सकता और मिलना चाहा तो वह भी संभव नहीं हो सका। संभव रहा उसे गहराई से महसूस कर पाना। जिए हुए को और गाढ़े पन से आंखों में उतार पाना। कुछ भी मुझसे चिपका हुआ नहीं रहने वाला सारा कुछ धीरे-धीरे ऐसे हीं फिसलता जाएगा। लेकिन मैं वर्तमान में आनंद से भरा हुआ हूं। मैं स्वयं को बहुत हीं छिछला इंसान मानता हूं। मेरा जीया हुआ सारा कुछ छिछला है। उन्हें पूरा किया कुछ संबंधों ने। मेरा इस शहर और यहां की स्मृतियों से ऐसा हीं संबंध है।
वास्तविकता में मेरी पहचान बनाने के लिए मैं इस शहर को सदैव धन्यवाद करता रहूंगा।
कुछ अमूल्य रिश्ते हीं कारण रहे जिसके कारण मैं उन तक पहुंच पाया और अपने वर्तमान को नोच-नोच कर उसमें सुराख बना पाया और वहां पहुंचा जहां मेरी आवाज़ आज भी सघन अंधकार में खोई हुई थी। ये सारा दर्शन उसी नीरवता में मिले एक आवाज की तरह है जिसे मैं लंबे समय से ढूंढ रहा था।
मैं इन सब के बीच अपनी जिए हुए स्मृतियों को कहीं कैद कर लूंगा।
आप सोच नहीं सकते "मैं अपनी स्मृतियों में भींगकर आया हूं।"