सड़क पर खड़ा सामने नजरें फेरता हूं तो दो सड़कें नजर आती हैं। फिर आगे दूर जाते-जाते सड़कों की संख्या बढ़ती है। कहीं दो राहें, तो कहीं तिराहे और ना जाने कितनी राहें निकलती जाती हैं। कहीं चौड़ी तो कहीं पतली कहीं तो मानों हमारे पैरों के निशान जीतना। मुख्य सड़क से निकलती हर सड़क की दूरी कम होती जाती है क्योंकि हर सड़क का अंत जल्दी होता है। वो किसी ना किसी घर से जा टकराती है। उस घर तक पहुंचने में सड़क की भी अपनी अलग कहानी होती है। वो कहानी जो सड़कें किसी से नहीं कहती पर चलने वाले को रूककर एक बार उस कहानी को जरूर सुनना चाहिए। उस कहानी का वक्ता सड़कें नहीं होती। उसका वक्ता उसकी स्थिति, उसके बगल लहराते पेड़-पौधे। चोट खाकर पैदा हुए गड्ढे। उसपर बन रहे वाहनों के पहिए के निशान। मनुष्य के पैरों के निशान होते हैं। दूर जाने वाले मुसाफिर मुख्य सड़क का सहारा लेते हैं, मुख्य सड़क बहुत दूर तक का सफर तय करती है। इतनी दूर जिसकी कल्पना करना मुश्किल है। बचपन से आजतक सड़कों पर चलता आया पर कितनी दूर का जबाव अब तक नहीं मिला। शायद घर वाली सड़क का मिल जाना इसका मुख्य कारण रहा हो इसी कारण घर वाला रास्ता आते ही दूरी समाप्त हो जाती है। और कितनी दूर वाले प्रश्न का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। सड़कों के जाल में पैर फसांकर चलते हुए मंजिल का पता नहीं पर घर वाले सड़क पर आते हीं सुकून मिल जाता है। ऐसे हीं दूर जाने वालों का भी घर मुख्य सड़कों के बाजूओं से अलग होता मिल जाता है और सुकून दे जाता होगा। पर कोई तो होगा जो दूर बहुत दूर जाता होगा। जहां सड़कें समाप्त हो जाती होगीं। जहां सुकून की नदी बहती होगी। मैं अक्सर सोचता हूं कि अगर मेरा घर न होता मेरे घर की सड़कें ना होती तो मैं भी उस मुख्य सड़क पर अपने पैर फंसाकर दूर कहीं, बहुत दूर सुकून की नदी में गोते लगाने अवश्य जाता।

No comments:
Post a Comment