खिड़की पर कोई बार-बार दश्तक दे रहा है। मैं उसकी पहचान करने में असफल हूं। थोड़ा शांत हूं। अकेले में होने सा। हल्का डर सा है। सुख या दुख ऐसा क्या है उस खिड़की के बाहर जो मुझसे मिलना चाहता है? मैं दुख को गले लगा सकता हूं पर सुख के चरखे को घूमाना आसान नहीं मेरे लिए। वह हर बार घूमते-घूमते दुख के पाले में जा गिरता है। उसका घूमना भी त्रासदी के समान होता है जहां से कुछ तय कर पाना मुश्किल हो जाता है। मैं कभी-कभी इन खिलाड़ियों को बंद कर देना चाहता हूं पर अजीब से अंधेरे की अनुभूति होती है जो अंदर से झकझोर कर रख देती है। उस अंधेरे में सुख, दुख की चिंता समाप्त हो जाती है और रोशनी की तलाश जन्म लेती है। पर अब मुझमें ढूंढने की ताकत न रही हो मानों। मैं अंत में हारकर बस खिड़कियों पर बैठा सबका स्वागत कर रहा हूं। जो मिले जीतना मिले उसे अपनाने का मन बना लिया है। जैसे परछाई प्रकाश को अपनाती है। सुख या दुख या दोनों मानों उस त्रासदी में जीने जैसा। https://itspc1.blogspot.com
मेरा सारा जीया हुआ अतीत अब भी मुझमें उतना ही व्यापक है जितना मुझमें मेरी श्वास। कभी-कभी लगता है अतीत वह पेड़ है जिससे मैं सांस ले रहा हूं। क्योंकि हर रात जब मेरा अतीत सो रहा होता है मेरा दम घुटता है। इसलिए हर रोज वर्तमान के दरवाजे पर खड़े होकर मैं अतीत की खिड़की में झांकता हूं। जहां मेरी सांसे तेज, लंबी और गहरी होती हैं।
सफरनामा
- Piyush Chaturvedi
- Kanpur, Uttar Pradesh , India
- मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।
Friday, April 3, 2020
खिड़की पर कोई बार-बार दश्तक दे रहा है
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