खिड़की पर कोई बार-बार दश्तक दे रहा है। मैं उसकी पहचान करने में असफल हूं। थोड़ा शांत हूं। अकेले में होने सा। हल्का डर सा है। सुख या दुख ऐसा क्या है उस खिड़की के बाहर जो मुझसे मिलना चाहता है? मैं दुख को गले लगा सकता हूं पर सुख के चरखे को घूमाना आसान नहीं मेरे लिए। वह हर बार घूमते-घूमते दुख के पाले में जा गिरता है। उसका घूमना भी त्रासदी के समान होता है जहां से कुछ तय कर पाना मुश्किल हो जाता है। मैं कभी-कभी इन खिलाड़ियों को बंद कर देना चाहता हूं पर अजीब से अंधेरे की अनुभूति होती है जो अंदर से झकझोर कर रख देती है। उस अंधेरे में सुख, दुख की चिंता समाप्त हो जाती है और रोशनी की तलाश जन्म लेती है। पर अब मुझमें ढूंढने की ताकत न रही हो मानों। मैं अंत में हारकर बस खिड़कियों पर बैठा सबका स्वागत कर रहा हूं। जो मिले जीतना मिले उसे अपनाने का मन बना लिया है। जैसे परछाई प्रकाश को अपनाती है। सुख या दुख या दोनों मानों उस त्रासदी में जीने जैसा। https://itspc1.blogspot.com

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