हमारे चलने में और दौड़ने में भेद होता है। हमारा रेंगना इस बात का सूचक है कि हम किसी दौड़ में शामिल नहीं। अपना जीवन हम अपने लिए जी रहे हैं। अपने साथ जुड़े दो-चार लोगों के लिए। जिसे आज परिवार कहते हैं। पहले परिवार बड़ा हुआ करता था और घर छोटे। आज घर बड़े होते हैं और परिवार बहुत छोटा। इतना छोटा जैसे लाल चिंटी। बस चिंटी जैसा अनुशासन नहीं होता। उम्र के साथ पुनः नए घर और नवीन परिवार की आवश्यकता जीवन का दरवाजा खटखटाती है। लगता है जैसे एक संतुष्टि है जो हर कोई प्राप्त करना चाहता है। एक नियत उम्र के बाद अगर संतुष्टि प्राप्त नहीं हुई तो हमारा उस कमरे में दम घुटने लगेगा। दौड़ने वाला व्यक्ति किसी प्रतियोगी की भांति भटकता रहता है। कुछ हासिल करने की लगन और असफल होने की टीस के बीच भागता रहता है। सफल हो जाने पर संतुष्टि समाप्त हो जाती है और असफल होने पर संतोष का सहारा रहता है। और परिवार की कहानी संतुष्टि और सफल दोनों के लिए समान रहती है। संतुष्टि और सफलता दोनों अपने जीवन में बहुत कम लोगों की उपस्थिति स्विकार्य करती हैं। दोनों दोस्त हैं लेकिन लगते नहीं हैं। जैसे पक्ष- विपक्ष के नेता। सारा खेल अंतर बना रहे,भेद दिखता रहे के पक्ष में खेला जा रहा है। समाज उसे कंधे पर टांके घूमता है और लड़ता रहता है।
मैं न चल रहा हूं ना दौड़ रहा हूं। मैं इस दोनों के बीच में कहीं रेंगने का कार्य कर रहा हूं। वैसे तो मैं इंसान हूं लेकिन फिर भी रेंगता हूं। रेंगते हुए देखने का समय ज्यादा मिल जाता है। दूसरे शब्दों में रेंगते हुए चलता हूं। चलता इस लिए हूं क्योंकि कहीं जाना है। जाना मुझे रोज अपने काम पर हीं होता है। काम पर जाते हुए मैं कमरे से कुछ समय पहले निकलता हूं। साथी मेरे कुछ समय पहले निकल जाते हैं क्योंकि वो चलते हैं। मैं रेंगते हुए चलता हूं इसलिए मुझे ज्यादा समय लगता है वहां तक पहुंचने में। अपने गली से होता हुआ मैं सारा कुछ घटित हो रहा यथार्थ जीने लगता हूं। एक बाबा जो हर सुबह कुछ अटपटा सा बोलता है जैसे "तुमने वादा किया था अब दो, तुम देश के मुख्यमंत्री हो, राज्य के प्रधानमंत्री ने मुझसे कहा था। अखबारों में तुमने छाप रखा है" इस बात को सुनकर मुझे हंसी आई थी। राज्य के प्रधानमंत्री... लेकिन अखबार के विज्ञापनों ने और समाचार चैनलों ने मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री का नाम दे दिया है। भविष्य के प्रधानमंत्री के संज्ञा को आम आदमी वर्तमान का सच मान बैठा है। ऐसे हीं व्यक्तव्यों से भरे हुए बाबा हर रोज सरकार को कोसते हैं। अपनी आंखों देखी को अखबार के विज्ञापन से तौलते हैं फिर एक विचार प्रस्तुत करते हैं। कभी-कभी उन विचारों में अपशब्दों का भी स्थान होता है लेकिन उन्हें पता है कि उनकी खबर कभी अखबार में नहीं आएगी। आ भी गई तो अखबार में सारा लिखा सच थोड़ी होता है। सरकारी विज्ञापन सच थोड़ी होते हैं। वो भी कह देंगे सब झूठ है।
थोड़ी दूरी पर एक निर्माणाधीन मकान के बाहरी तीन दोस्त एक अखबार के साथ बैठे होते हैं। मकान कुछ दिन में दुकान का रूप धरने के प्रयास में है। दुकान इन तीनों में से किसी की नहीं होगी। एक के माथे पर तिलक लगा होता है। और घुटने से सटा भकुली रखा होता है। यह दुकान इसकी हो सकती थी लेकिन अब नहीं होगी। क्योंकि परिवार बड़ा हो गया है। अब वो इस परिवार वाले कल्पना में व्यवस्थित नहीं आते। इसलिए ज्यादा समय बाहर सिढ़ीयों पर बीत जाता है। एक दोस्त बहुत करीब से मोटा चश्मा लगाए अखबार को पढ़ता है और दूसरा ठीक उसके पिछे बैठा अखबार को देखता है। देखते हुए वो सुन नहीं रहा होता क्योंकि उसकी आंखें कुछ और हीं ढूंढ़ती हैं। लेकिन वो मन में पढ़ता है। लेकिन वो मन में क्या पढ़ता है किसी को पता नहीं चलता। मुझे भी नहीं। मुझे अब भी याद है बचपन में स्कूल में आचार्य जी कहते बिना कोई शोर किए मन में पढ़ो। मेरे बगल में बैठा चवन्नी क्या पढ़ता था मुझे अब तक पता नहीं चला। लेकिन चवन्नी सबसे कहता फिरता था कि वह सबके मन की बात पढ़ लेता है। मुझे भी ऐसा लगा था जब अपने ठीक बाईं ओर बैठे कार्तिकेय के मन की बात को उसने पढ़ा था। उसने कहा तू पूनम को पढ़ रहा है? कार्तिकेय ने कहा नहीं पूनम को चितरंजन पढ़ रहा है। तब मुझे लगा कार्तिकेय भी शायद मन की बात पढ़ता है। उसी समय मुझे यह भी पता चला की चवन्नी मन की बात नहीं पढ़ पाता वो तुक्का मारता है। क्योंकि मैं पूनम और चितरंजन दोनों के बारे में उसकी दाईं ओर बैठा रक्षाबंधन वाला अध्याय पढ़ रहा था। तभी मुझे अहसास हुआ मन की बात पढ़ना मात्र एक प्रकार से जुआ का खेल है। जहां जीत और हार दोनों की प्रायिकता समान है। इसलिए तिलकधारी बाबा को भी नहीं मालूम पड़ता की सामने वाला मन में क्या पढ़ रहा है। लेकिन वो बोलकर पढ़ने वाले से ज्यादा तेज पढ़ता है। और बोलकर पढ़ने वाला व्यक्ति बस इतनी आवाज में पढ़ता है कि तिलकधारी तक उसकी आवाज पहुंच जाए। तिलकधारी सारा बोला हुआ ध्यान से सुनता है। वहीं पिछे बैठा व्यक्ति तिलकधारी को हर पन्ने बदलने के बाद हाथों और आंख से नाउम्मीदी का इशारा करता है फिर अगले पन्ने पर नजर मटकाने लगता है।
कुछ दूरी पर तोंद मटकाता हुआ आधी उम्र का व्यक्ति मसाला सुखाता है। पास से गुजरने पर मसाले की सौंधी महक नाक को छूती है। उस महक में मां याद आती है। बहुत पहले जब गांव गांव हुआ करता था मां मसाले सील-बट्टा पर पिसती थी। मां के हाथ से पूरे दिन मसाले की महक आती थी। ऐसी हीं खुशबू इस गली में फैलती है। आधी उम्र का व्यक्ति हर दिन एक हीं कपड़े में नजर आता है। "अशोक मसाला" का टी शर्ट मानों उसे याद दिलाता हो कि सुबह तुम्हें मसाला सुखाना है। मसाला सुखाने में आधी उम्र निकल गई है बाकी निकल जाएगी की थकान में वह हर वक्त गुटखा अपने मुंह में गुलगुलाता रहता है। कानपुर में गुटखा को मसाला कहते हैं लेकिन आधी उम्र वाला आदमी गुटखा वाला मसाला खाता है और सब्जी वाला सुखाता है। मसाला खाने में उसे संतुष्टि मिलती है जीवन बीतते जाने का और मसाला सुखाने में उसे सफलता की महक का अहसास होता है।
थोड़ी दूर पर गोलू की मां जिसका बेटा गोलू हर शाम चाट,फूल्की,मोमोज का ठेला लगाता है एक बड़ा सा लोहा का तावा लिए टूटे ईंट के टुकड़े से रगड़ती है। मानों उसके लिए वो ठेला पहले हो और घर बाद में। ज्यादा समय गोलू की मां ठेले के आसपास भटकते हुए बिताती है। इसमें उसकी सफलता थी या संतुष्टि इसके बारे में उसने कभी नहीं सोचा था। यह उसका काम है और ठेला पर काम करने से उसका घर चलता है यहीं उसकी मान्यता थी। गोलू शाम को चाट बनाने के लिए आधी उम्र वाले आदमी से मसाला लेता है। गोलू चाट बनाते वक्त चाट नहीं खाता। गोलू भी मसाला खाता है। अखबार पढ़ने,मन में पढ़ने और सुनने वाले तीनों दोस्त उसके ठेले पर टमाटर चाट खाते हैं। तीनों को चाट नहीं चाट मसाला पसंद आता है। गोलू की मां तीनों को तिखी नजर से देखती है और बड़बड़ाती हुई ठेले का चक्कर लगाने लगती है। उसको ऐसा करते देख गोलू अपने मूंह से गुटखा थूकता है और तीनों दोस्त से साठ रूपए मांगता है। गोलू की मां गोलू को तवा पर गुस्सा निकालते हुए देखती है। शाम के वक्त कोई अखबार नहीं पढ़ता, नहीं तो गोलू की मां अपने ठेले के अपमान की खबर उस अखबार में ढूंढती।
तिलकधारी भी इस उम्मीद में सीढ़ियों पर हर सुबह बैठता है कि किसी रोज़ उसकी भी खबर अखबार में छपेगी। उसके अपमान की खबर, उसके टूटते परिवार की खबर। गोलू के चाट की खबर। आधे उम्र वाले आदमी के मसाले की खबर, गोलू के मां के भारी तवा मांजने की खबर। उसी खबर को उसके दोनों साथी हर रोज अखबार में ढूंढते हैं लेकिन कुछ भी हाथ नहीं लगता। अपनी भकुली लिए वो दो सिढी़ ऊपर चढ़ जाता है। और बोलकर पढ़ने और मन में पढ़ने वाले दोस्त अपने घर चले जाते हैं। उनको घर जाते हुए अटपटे बाबा हर रोज देखते हैं। उनको देखते हीं वो फिर बड़बड़ाने लगते हैं "अखबार में ढूंढ रहा है। जहां सारा झूठ पड़ा है वहां अपना सच ढूंढ रहा है" फिर तीनों की नजरें मिलती हैं और तीनों तीन रास्ते निकल जाते हैं। बीते दिनों मैंने तीन को चार होते देखा। किसी के हाथ में अखबार नहीं था। खबरें अटपटा बाबा सुना रहे थे। जिसकी आवाज सिर्फ तिलकधारी तक नहीं पूरे मुहल्ले में गूंज रही थी। "चलते-चलते दौड़ना सीख लिया सभी ने। सफलता और संतुष्टि में संतुलन को चुनना भूल गए सभी। ऐसी संतुष्टि किस काम की जहां प्रेम और सम्मान का संतुलन ना हो? और ऐसी सफलता किस काम की जहां अपनों के लिए स्थान ना हो? सुन लो सभी आज की ताज़ा खबर एक बूढ़े बाप को संतुष्ट परिवार ने परिवार से बाहर फेंक दिया है। वो पूरा दिन सिढी़यों को संतुलन बनाकर बैठा रहता है। गोलू की मां सबसे संतुलित है और गोलू सबसे संतुष्ट। आधी उम्र का आदमी झूठा है वह मसाले में मिलावट करता है। अरे ओ तिलकधारी तुम नाशमझ हो चाट से खुशबू चाट मसाले की नहीं गोलू के संतुलन और उसके मां के मेहनत की आती है। तिलकधारी के आंखों में आंसू थे। उसने खुद से जुड़ी खबर को आज सुन लिया था। उन्हें आज इस पल में संतुष्टि और सफलता दोनों हाथ लगी थी। अब उन्हें अपने संतुष्ट परिवार से कोई अर्थ नहीं था। गोलू की मां गोलू के भविष्य को लेकर संतुष्ट थी। आधी उम्र वाले आदमी ने अशोक मसाले लिखा टी शर्ट उतार फेंका था। उसे अपने झूठ पर अफसोस था। अटपटा बाबा आज सफल महसूस कर रहा था। अब दोनों दोस्तों ने अखबार पढ़ना बंद कर दिया। अब सभी अटपटा बाबा को सुनते हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी
1 comment:
Bhut sundar rachna.
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