सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Friday, August 12, 2022

जीवन की यात्रा


बीते बुधवार जब लखनऊ के लिए राखी की यात्रा का आरंभ हुआ। 
गली में गोलू की मां अपने जीवन के दूसरे यात्रा में प्रवेश कर चुकी है। उनके बड़े बेटे और पति जेल से वापस आ गए हैं जो पिछले दिनों जमीन के विवाद में हुए झड़प में पुलिस द्वारा भीतर कर दिए गए थे। अब गोलू की मां ठेले का चक्कर नहीं लगाती। अब तीनों दोस्त जिसमें एक अखबार देखता है,दूसरा बोलकर पढ़ता है और तीसरा मन में पढ़ता है को अपशब्द नहीं कहती। आधी उम्र वाला आदमी अब भी मसाले देता है जिससे चाट बनती है। गोलू अब भी मसाला खाता है जिससे चाट नहीं बनती,जिसे आम भाषा मे गुटखा कहते हैं। गोलू के ठेले के सामने से गुजरते हुए मैं उसे देखकर मुस्कुराया अक्सर वो शाम को ठेला लगाता है लेकिन उस रोज मौसम की मांग ने उसके लालच को बढ़ा दिया। मुझे देखकर उसने मुंह से गुटखा थूका और बना रहे चाट की ओर इशारा किया। मैंने इशारे में उसे मना किया और उसकी खुशी को बन रहे चाट की आवाज में महसूस किया। 
विजयनगर के लिए बस में चढ़ते हीं मैंने पूछा विजयनगर?
सामने से ज़बाब आया हां आज यह विजयनगर हीं जाएगी। हल्की तिखी मुस्कान लिए वो चेहरा मेरे सामने था जो मेरी पिछली लंबी यात्रा में मुझे ग़लत राह से सही रास्ते लेकर गया था। 
छोटे शहरों में बीतते दिनों के साथ सभी चेहरे जाने पहचाने लगते हैं। सभी से मुस्कुराहट का संबंध बन जाता है। बात भले हीं ना हो पर नजर पड़ते हीं चेहरा हरकत करने लग जाता है। यह वहीं चेहरा था जिसने पिछली लंबी यात्रा में मेरी छोटी गलती को सुधारा था। आप ग़लत बस में बैठ गए हैं यह बस विजयनगर नहीं जाएगी। फिर मैंने अपनी ग़लती सुधारी थी।
छोटी यात्राओं की यादें बहुत गहरी और चंचल होती हैं। वहां पहुंचकर वापस भागने की भूख इतनी प्रबल होती है कि भटकाव की संभावना समाप्त हो जाती है। सारा कुछ अपनी नियति से चल रहा होता है और मैं उसके साथ भाग रहा होता हूं।
लखनऊ में भीड़ को स्पर्श करते हीं सोचता हूं कि शहर में प्रवेश करते हीं मेट्रो ले लेनी चाहिए। लेकिन भाग कर जाना कहां है? वाला प्रश्न मुझे जड़ कर देता है। वास्तव में भागकर मुझे अपने जीवन की सबसे छोटी यात्रा पर हीं जाना है। जिसके लिए मुझे पैसे मिलते हैं। जिस यात्रा का सुख मात्र इतना है कि मैं शहर में हूं अच्छी जिंदगी जीने का नाटक कर रहा हूं। और वो नाटक सामने वालों के लिए मज़ा है। क्योंकि उस नाटक का रचयिता मैं हूं और दर्शक शहर। फिर मैं उस शहर को एक तारीख देकर आया हूं जिस शहर के प्रति मैं इमानदार हूं। 
फिर क्यों पकड़ना है मैट्रो? इस सवाल से लड़ता हुआ मैं बस में बैठा रहा।
घर पहुंचा तो आधी यात्रा तय करने की धूल मेरे पैरों से चिपकी हुई थी। जो अगले दिन तक घर के कोने कोने में अपनी उपस्थिति बिखेर देंगे या मेरी इसका ठीक-ठाक ज़बाब मेरे लिए ढूंढ पाना मुश्किल है।
बाबा को देखते हीं महसूस किया कि उन्होंने अपने बूढ़े होने की यात्रा थोड़ी और तय कर ली है। बहुत तेजी से वो बूढ़े होते जा रहे हैं। हथेलियों में रेखाओं की यात्रा थकती हुई नजर आती है। हथेलियों में काले धब्बों को देख मैं उन्हें कुछ देर देखता रहा तो बाबा ने पूछा का भईल? 
मैंने कहा हथेली में.. और शब्द अधूरे रह गए। बाबा ने कहा अब ७४ साल उम्र हो गईल भाई। अब तो यहीं सब बा।
उम्र की यात्रा सभी तय करते हैं। बूढ़े सभी होते हैं। लेकिन जिसके जीवन की यात्रा उसके उम्र की यात्रा से बड़ी होती है उसका बूढ़ा होना दुख देता है। उसको बूढ़ा होता देख एक टीस सी उठती है। ऐसे व्यक्ति अकेला बूढ़ा नहीं होता। वो सभी बूढ़े होते हैं जो उनसे जुड़े होते हैं।
बाबा ने कहा अब मेहनत नहीं किया जाता।
मैंने कहा अब आप आराम करिए बाबा, भागदौड़ थोड़ा कम करिए। 
बाबा ने कहा आपने कह दिया लेकिन कैसे करेंगे आराम? सब्जी लाना कोई भागदौड़ है?
बढ़ती उम्र के साथ रोज के काम भी भागदौड़ हीं होते हैं मैं यह बात बहुत आसानी से कह सकता था लेकिन उन्हें बातों की जरूरत नहीं है। मास्क के भीतर दबते आवाज जो कभी लोगों की आवाज हुआ करता था उसे मेरे सुझाव की जरूरत नहीं है। उन्हें सेवा और साथ की जरूरत है। उस सेवा की जिसका सभी वादा करते हैं मैं भी करता हूं। फिर कमाने की भूख में झूठे वादों को बिखेर अपना नाटक पूरा करने दूसरे शहर भाग जाता हूं। शहर को वादा किया है इस कारण नहीं, अपने झूठ को उम्मीद का चश्मा पहनाना है इसलिए। या वहां एक झूठा वादा अपने होने का करके आया हूं इसलिए। मेरी यात्रा का धूल भी ऐसा हीं है मेरे पिछे भागता हुआ। 
आजी की यात्रा रसोई घर से बाहर कमरे में आकर बच्चों तक सीमित है। बच्चों की यात्रा अब चलने और बोलने की ओर भागती है। फूआ की यात्रा में लखनऊ एक कमरे में सिमट गया है। सभी एक छोटी सी यात्रा के यात्री हैं।
-पीयूष चतुर्वेदी

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