अतीत में मैं पिताजी के साथ था लेकिन तस्वीर में नहीं हूं। चित्र में होने की भूख हमेशा अधूरी रहेगी का यथार्थ मुझे अतीत से दूर फेंक देता है। उस फेंके हुए स्मृति की मदद से मैंने इस तस्वीर की कल्पना की थी।
मैंने "कला" (शुरूचि) को कहा मेरे पास मेरे पिताजी कि तस्वीर है। क्या कुछ ऐसा हो सकता है जहां से मैं उनके साथ घट सकता हूं? क्योंकि कला हीं वो माध्यम है जिससे हम अतीत को ठीक-ठाक सूंघकर , महसूस कर , छूकर उसे जी सकते हैं।कला ने कहा आप तस्वीर भेजिए मैं देखती हूं। मैंने उसे अपनी और भैया की तस्वीर भेजी जो स्पष्ट थी। लेकिन पिताजी की तस्वीर थोड़ी धुंधलाई हुई उस तक पहुंच पाई थी। मैंने कला को कहा पिताजी को थोड़ा बूढ़ा और मुस्कुराता हुआ देखना है। क्या यह संभव है?
मैं हृदय से कोशिश करूंगी अभी मेरी ऊंगली भी हल्की कमजोर है। लेकिन प्रयास पूरा रहेगा।
मैं समयांतराल में कला से प्रश्न करता रहता।
क्या हुआ?
कैसा बन रहा है?
मैंने कुछ आधी अधूरी तस्वीरें देखीं तो हृदय में गुदगुदी सी हुई। रेखाएं ठीक कल्पना के आसपास भटक रहीं थीं। फिर एक दिन अचानक से कला ने कहा आपके पिताजी के होंठ को स्पष्ट रूप नहीं दे पा रही मैं। आप कुछ सहायता कर सकते हैं?
मैं पिताजी स्मृति चिन्ह ढूंढने लगा। मुझे उनका मुस्कुराना मेरे हृदय को स्वस्थ कर रहा था। उस स्मित को मैं पी रहा था लेकिन होंठ कैसे थे का जबाब किसी भी चिन्ह से बाहर नहीं आ रहा था। कुछ तस्वीरें जो अलग-अलग वेशभूषा में थी। प्रसन्न , मुक्त अपनों के संग जागता हुआ। कुछ अंजान लोगों के साथ स्वयं को व्यवस्थित करता हुआ। घास पर लेटे हुए कुछ जवानी की तस्वीरें। जनहित कार्यक्रमों को सजीव करती। कुछ जीवन के अंतिम दिनों को छूती क्लांत तस्वीरें। जिसपर ऊंगली रखते हीं मेरे अंदर कुछ तैरने लगा था। जो तैरता हुआ मेरे आंखों से बाहर निकल रहा था। कोई संताप जो भीतर जमा हुआ था। सारा कुछ मेरी आंखों में तैर रहा था लेकिन होंठ पत्थर के समान जमे हुए थे मानों उनपर जीवन में आगे भागते हुए पिछे उड़ती धूल जमा हो गई है जिसने उसे बांध दिया है। जहां होंठ थोड़े अव्यस्थित सा कुछ बुदबुदा रहे हों। बोलने और चुप रहने के मध्य किसी स्पंदन को महसूस करती हुई। जिसके बंधन ने मुझे क्षुब्ध कर दिया है की मानों वर्तमान की सीलन में सांस लेता मैं अतीत के जाले साफ करना भूल गया हूं। जो मैंने अपने कैशौर्य रहते वहां छोड़ आया था। मुझे तो वहीं रहना था अतीत के ठीक पास। बिल्कुल निर्लिप्त। लेकिन मैं बहुत आगे निकल आया हूं। पीछे उड़ती धूल अतीत को मैला करती जा रही है। मैं कुछ-कुछ भूल रहा हूं जो मुझे नहीं भूलना था।
मैं हारा हुआ कला के सामने नहीं जाना चाहता था। मैंने उससे कहा भैया ने पिताजी को प्राप्त किया है। वह ठीक-ठीक उनके करीब हैं। मैं जितना सतही,छिछला और यायावर हूं वह उतने हीं सघन और प्रौढ़ हैं। पिताजी के होंठ भैया के होंठों की तरह फड़फड़ाते थे। उन होंठों से कूदते शब्दों की आवाज भी वैसी हीं मुझको प्रेमपूर्ण मेरे कानों को स्पर्श करती हैं। स्नेहिल, स्निग्दध, समतल धुली हुई।
आप उनके होंठों को छूकर वहां तक पहुंच सकती हैं। उस रेखा के आसपास वो चिन्ह आपको मिल जाएगा जो मेरी स्मृति से बाहर निकल चुका है। मेरी परिधि से बहुत दूर। उन कटे हुए पेड़ों की तरह जिसे पिताजी ने सींचा था जो ठूंठ हो चुके हैं। जिनकी संख्या मुझे कभी याद नहीं थी। बस उस स्थान को याद रख पाया हूं जो अब ऊसर हो चुकी है। बिल्कुल मेरे वर्तमान की तरह बंजर जहां भविष्य की कोई कामना नहीं।
क्योंकि मेरा पिताजी के साथ रहना सिर्फ त्यौहारों और अपने मुक्तता के दिनों में संभव हो पाया था। मैं उनके अंतिम दर्शन ना कर पाने का अभाग्य कभी अपने उपस्थित से नहीं झाड़ पाऊंगा। कैसे अपने विलाप की पिपासा को बहाता हुआ, अपने प्रिय को खोने के दुख में उस पल को मुक्त छोड़ गया जिसे मुझे पूरी ताकत से सारी कमजोरी को बाहर धकेलता हुआ निगल जाना था।
इस तस्वीर का पूर्ण होना मेरा उस स्मृति को दोबारा छूने जैसा है जहां दुख को अपने भीतर से झारता हुआ मैं थोड़ा हल्का महसूस कर रहा हूं।
जब तस्वीर बात करने योग्य मेरे सामने आई तो कला ने पूछा कैसा बना है?
मैंने कहा धन्यवाद। जैसा मैं तब देख सकता था ठीक उसी के करीब। और पिताजी के बचपन का आरेख मैंने उन्हें भेज दिया।
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