सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Wednesday, December 24, 2025

मैं बहुत धीरे चलता हूं - विनोद कुमार शुक्ल (स्मरण)


दादा का संसार- २६-१२-२०२५

वह धीमा चलते थे।
इतना धीमा की पैरों के निचे चिपकी धूल सुरक्षित महसूस करते थे। पत्तों की झुरमुट थोड़ी कम तकलीफ से गुजरती थी। इतना धीमा की चिटियां भी उनके साथ चल सके। 

वह धीमा बोलते थे।
जिसके शोर में पत्तों का संवाद सुनाई दे। इतना धीमा जिससे पक्षियों का डर जन्म ना ले। इतना धीमा की उसे सुनने के लिए चिड़िया उनके कंधे पर जा बैठती।

वह सरल लिखते थे। 
इतना सरल कि उसे शांत मन से हीं पढ़ा जा सकता है। 

वह जीवन लिखते थे। 
जिसे जीने के लिए ठहराव की आवश्यकता होती है। 

वह संसार लिखते थे। 
आसपास फैला अलौकिक संसार। 
. उन्होंने पेड़ का खड़ा होना लिखा।
. पहाड़ का चुप रहना लिखा।
. उसके पत्तों का संवाद लिखा।
. बौना पहाड़ लिखा।
. हरी घास की छप्पर लिखी।
. पौधे पर जमी ओश की बूंदें लिखीं।
. चिटियों की यात्रा लिखी।
. अमरूद का टूसा लिखा।
. छूही मिट्टी लिखी।
. घर का चूल्हा लिखा।
. खुद का बूढ़ा होना लिखा।
. पत्नी से और का प्रेम लिखा।
. आदिवासीयों का संतोष लिखा। 
. फूल लिखे।
. बाग लिखे।
. मनुष्य का तितली और तितली का मनुष्य होना लिखा।
. चिड़िया की भाषा लिखी।
.तिनको से बना घर लिखा।
. खिड़की पर फुदकते पक्षी को लिखा। 
. खाली जगह बनाते हाथी को लिखा।
. दीवार को लिखा।
. उसमें बसे खिड़की को भी। 


धरती को खटखटाया अपनी कलम से, गिलहरी की चंचलता को जिया। खिड़की का अपनापन और दरवाजे के खुलेपन के बीच खिड़की से आकाश का विस्तार लिखा। 
अमलतास के फूल चुने। प्रकृति का श्रृंगार लिखा। 
मन कि हलचल और हृदय का संतोष लिखा। भीतर की सभी मिश्रीत मानवीय भाव को पहचान दी। वह भाव जो सार्वजनिक है लेकिन सभी का अपना निज है। जिसे किसी द्वारा कुरेदा जाना पसंद नहीं है। उस भाव को उन्होंने अपने समान्य और चमत्कारिक शब्दों से स्पर्श किया। 

अपनी अतीत की स्मृतियों को सहजता से अगोरा। उन्हें अपनी कल्पनाओं के आलिंगन से जादुई यथार्थ के जरिए पन्नों पर जीवित किया। 

जो भी इस लेख में 'था' है वह सदैव जीवित रहेगा। वह सदैव वर्तमान में 'है' के साथ सजीव रहेगा।

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दिनांक-३०-१०-२०२५ (विचार)

विनोद जी का प्रवेश मेरे जीवन में निर्मल जी से बहुत पहले हो गया था। जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूं कि कैसे एक यात्रा के दौरान मूंगफली के ठोंगा में उनका लेखन मेरे आंखों से गुजरा और हृदय में जम गया। 
निर्मल के संबंध में मैंने फूफा जी से पूछा था कि आपने निर्मल वर्मा जी को पढ़ा है? (उनसे किताबों पर संवाद होता रहता है) उन्होंने कहा बहुत पहले परिंदे पढ़ा था। मैंने निर्मल संसार में जीना आरंभ कर दिया। सभी को काफ्का द्वारा अपने पिता को लिखे पत्र पढ़ने चाहिए। जर्मन और चेक गणराज्य के साहित्य भी। निर्मल की छाप वहां दिखती है। निजी और इमानदार। 
शुक्ल संसार कल्पना की चरखी पर ज्यादा चलता है और उतना हीं हमारे यथार्थ को सुंदर बनाता जाता है। आप मानिए या ना मानिए लेकिन आप चिड़िया से बात करने लग जाते हैं। 
विनोद जी बिमार हैं उनके फेफड़ों में पानी भर आया है और मैंने अपनी सांस दबती हुई महसूस की।‌ यह तस्वीर देखते हीं मेरी आंखें भर आईं और ना जाने कब झरना फूटा और तकिया गीला करता मैं सिसकने लगा, मुझे इसका स्मरण नहीं रहा। चारों ओर फैले एकांत में जब मुझे मेरा रोना सुनाई पड़ने लगा तब मुझे अहसास हुआ यह कितना आत्मीय है। सुबह काम पर आते वक्त अचानक मेरे मन में एक कंकड़ गिरा और सारा पानी आंखों से बाहर छलकने के लिए आतुर होने लगा। चार फूल हैं और दुनिया है में, मैं शुक्ल संसार का एक फूल हूं और जो दुनिया में कई दुनिया बसती है उनमें से एक हैं विनोद जी। 

 इस अवस्था में विनोद जी कहते हैं ,लिखना मेरे लिए सांस लेने जैसा है।

विनोद जी को पढ़ना उन्हें देखना उन्हें सुनना मेरे लिए सांस लेने जैसा है। शब्दशः.... ध्वनिश:

पुनश्च,दिनांक -२४/१२/२०२५ (देहांत)

विनोद जी ने बिना किसी शोर के बिल्कुल अपनी प्रभावशाली रचनाओं की तरह जो बहुत हीं साधारण और तार्किक होती हैं। जिसे समझने के लिए ठहराव का आलिंगन करना पड़ता है। अपने आसपास के सभी साधारण चित्रों को जीते हुए दूसरी दुनिया को जन्म दिया। दीवार में एक खिड़की रहती थी उस दुनिया का साक्षी है। बहुत सी खाली दुनिया इस दुनिया में बना , कल उन्होंने  "आकाश को खटखटाते हुए धरती" से आकाश की ओर धीरे मगर आगे चलते हुए अपनी अंतिम यात्रा के लिए प्रस्थान किया।   यह यात्रा भी एक कविता है। स्वाभाविक मौत मरने के बाद की जिंदा कविता। छूही मिट्टी सी कविता। 

छोड़ गए वो अपने ढ़ेर सारे संसार में अपना शुक्ल संसार
शुक्ल संसार का भौतिक स्वरूप अब निष्प्राण हो चुका है यह संदेश सुन आंसू नहीं रूक रहे थे। कुछ मरा है मेरे भीतर आज सुबह हीं। 
हताशा से बैठा मैं...उस कविता को याद कर रहा था। 
वो क्या है जो मुझसे बाहर निकल गया है?
जब मैं स्वयं के प्रति घृणा से भरा हुआ था उन दिनों विनोद जी ने हीं मुझे नए संसार में प्रवेश कराया था। 
परमेश्वर है कि नहीं के मध्य मैंने विनोद जी को चुना। कल्पना और यथार्थ के मध्य *शुक्ल संसार* को नया संसार माना। 
नास्तिकता और आस्तिकता के भ्रम को पाटने के लिए जब मैं बंगाल के मठों में भटक रहा था। अलग-अलग संस्थाओं में अपनी रिक्तता को भर रहा था तब विनोद जी की एक पंक्ति पढ़ी थी ईश्वर है कि नहीं के शंका में
मुझे मनुष्य बना दो सभी को सुखी कर दो। 
ठीक उसी रोज विनोद जी मेरे लिए ईश्वर बन गए। मैं मनुष्य बनने के लिए आगे बढ़ा। 
आश्चर्य के प्रारंभ में जब यथार्थ एक उपन्यास की तरह बड़ा हो रहा था तो गुलाटियां मारता हुआ वह अधिक ऊंचाई से निचे जा गिरा था। उसकी सांसें लगभग शून्य हो रहीं थीं। आंखों की पुतलियां भीतर कहीं छुपती जा रही थी।कांपता हुआ लगभग थरथराता हुआ जब वो शांत हो रहा था उस पसरे मौन में सभी का रूदन स्वाभाविक था। तभी उपन्यास की लेखिका उसकी मां घर के देवता बाबा से उसका आश्चर्य, उसकी कल्पना, उसका यथार्थ,उसका वर्तमान और ढ़ेर सारा भविष्य वापस मांग रही थी। अपने देंह को पटकते हुए उसके बचे हुए संसार की भीख। और ठीक उसी वक्त उपन्यास का पन्ना पलटा। इस पृष्ठ पर वह तेज से रोया और लंबी गहरी लगभग नथूनों को फ़ाड़ देने वाली श्वास लेना आरंभ किया।
उस दिन मुझे आभास हुआ कि मैं थोड़ा-थोड़ा मनुष्य बनता जा रहा हूं। मैंने उस दिन भगवान की आवश्यकता को चुनौती नहीं दिया। चमत्कार को स्वीकारा भी नहीं। 
लेकिन ईश्वर है कि नहीं कि शंका में सभी का सम्मान होना चाहिए। बिना किसी अभियोग के संसार सुखी होना चाहिए।
विनोद जी को नमन्। भावपूर्ण श्रद्धांजलि।‌
यथार्थ कि यात्रा पर कल्पना अपने यथार्थ के फूल बिखेरता आगे बढ़ रहा है। 

मैं बहुत धीरे चलता हूं।
पर पिछे नहीं चलता।
-विनोद कुमार शुक्ल

#शुक्ल_संसार
चार फूल हैं और आप हैं


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परिशिष्ट 
यह कितना हास्यास्पद है कि मुझे मेरे सबसे प्रिय लेखक छत्तीसगढ़ के मेरी पहली यात्रा के दौरान फटे रद्दी पन्ने में मुंगफली के गंध के बीच मिले।

और उससे भी अलौकिक यह रहा कि विनोद जी के पुराने संस्करण की किताबों में उनका दूरभाष क्रमांक अंकित होता था। वर्तमान में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।
उन तक पहुंच पाना भी उतना हीं सरल है जितना उनसे प्रेम में पड़ना। 
मैंने उनसे बात करते हुए यहीं कहा कि दादा में बोलू होना चाहता हूं। और वो अपनी कल्पनाओं से बाहर निकल मेरे यथार्थ में हंस रहे थे। 

बच्चों सी शाश्वत और धुली हुई हंसी। 
यह साइकिल पत्रिका के पुराने अंक हैं।
कभी-कभी सोचता हूं यह बच्चों में बांट दूं। लेकिन अपने भीतर पल रहे बच्चे की हत्या करने से डरता हूं। मैं उस हंसी के लिए इसे संभाले रखा हूं ताकि मैं किसी अपने से यथार्थ में विनोद जी जैसी हंसी गुनगुना सकूं। 

दुनिया में जीने के लिए इसपर ठहरना आवश्यक है।
एक दुनिया है जहां समय है, भ्रम है,पीड़ा है, मृत्यु है।
दूसरी दुनिया वह जिसमें सब कुछ शाश्वत है। 
हमारे सामान्य अनुभव समय की दुनिया में होते हैं।
लेकिन ध्यान और स्मृति के चारों ओर दूसरी दुनिया की भी झलक मिल जाती है।

मेरे लिए यह वहीं दुनिया है।


पीयूष चतुर्वेदी - कानपुर उत्तर प्रदेश 


Friday, December 12, 2025

ये साला वो वाला साला नहीं है।

ये साला वो वाला साला नहीं है। 
जिस साले के लिए साला जेल हो जाए।
ये साला मर्यादित साला है।
इस साला से सुप्रीम कोर्ट का मान बढ़ता है।
इस साला के तेज में गृहमंत्री की क्रोनोलाजी से पर्दा उठता है।
ये वाला साला नेहरू जी के समय वाले साला से अलग है। 
बल्लभ भाई पटेल जी गृहमंत्री थे लेकिन उन्होंने साला कब बोला इसकी खबर प्रथम सेवक को नहीं.. लेकिन प्रधान सेवक को साला जरूर होगा।
इस साला से संसद की गरिमा बनी रहती है।
इस साला से अध्यक्ष जी को क्रोध नहीं आता। आंखें नहीं जलतीं।
सौम्य सजीली मुस्कान बनी रहती है।
इस साला में भड़वा और कटुआ जैसा अपमान नहीं है। 
यह साला शुद्धता की गारंटी है। कुंदन सा खरा।
ये साला गाली वाला साला नहीं है। 
ये साला रिश्ता वाला साला है। 
इस साला से लंबा निभाया जा सकता है। 
इस साला का कोई जात धर्म नहीं।‌
ये साला समदर्शी है।‌
क्योंकि ये साला तुम्हारा वाला साला नहीं है। 
जो पूरी जिंदगी खिर्र-खिर्र करता रहे।
अपना वाला साला गाली होता है। 
ये वाला साला में रिश्तों से संलग्न अंग शामिल नहीं है। कुछ लोगों को साला इतना छूट तो होना हीं चाहिए कि वो साला बोल सकें। कम से कम सड़क पर ना सही लेकिन साला संसद में बोल सकें।‌
अब साला देश का गृहमंत्री संसद में भी साला नहीं बोल सकता तो काहे का लोकतंत्र? और कौने बात की आजादी?
अब साला आदमी साला भी ना बोलने पाए तो साला काहे की जिंदगी? 
फिर साला ऐसी जिंदगी किस काम की?

बोल तो वो चु से चुतिया भी सकते थे।‌ या उससे भी अलग कुछ और गहरा और घिनौना लेकिन साला चु से चुनाव आयोग बोले।‌ नहीं तो साला  से चुतड़ पर चार लात भी मार सकते थे।
जैसे लिखा तो‌ बहुत कुछ जा सकता है लेकिन लिखा वहीं जाए तो बोला गया है। ये नहीं कि साला जो खुद से मनमानी पके जा रहा है। 
कि साला कल को आए और बता गए देखो नेहरू जी ने 1952 में दिन शनिवार को साला बोला था।

Thursday, November 6, 2025

घर जीवन और मृत्यु के मध्य की यात्रा का पराधीन और क्षीण साक्षी मात्र है- पीयूष चतुर्वेदी

मैं उन दिनों पुरानी गली में रहता था। जागता हुआ गली। रात के ११ बजे तक अकबरपुर की उस गली में रोशनी चमकती रहती थी। लगभग सारे घर व्यापार से जुड़े हुए हैं। ऊपर में रहने की व्यवस्था और ठीक निचे उनकी व्यवस्थित दुकान। शायद यहीं कारण है कि लोगों को कोई जल्दबाजी नहीं। सुबह की शुरुआत थोड़ी देर से भले उन्हें मंजूर था लेकिन रात को सभी एकमत अंधकार में ज्यादा समय चमचमाना पसंद करते हैं। मैं गोलू के दुकान पर अक्सर टमाटर चाट खाया करता था। अब सुना है उसने अपनी भूख को पैमाने के आसपास कहीं जमा लिया है। ठीक सोमरस की दुकान के बगल में। अब वह चटपटी चाट की जगह मसालेदार आलू भुनता है और भी कई व्यंजनों का बाजार है जो सोमरस के स्वाद को और मादक और स्वादिष्ट बनाते हैं। जहां लोग अपनी प्यास नहीं थकान मिटाने आते हैं। उन झंझावातों से छुटकारे के लिए जो उनके नसीब से उनके जीवन के हर सही-गलत फैसलों के साथ चिपका हुआ है। जिनके वर्तमान में भारी अवसाद है जहां भविष्य की चिताओं को घोंटा जा रहा है। ठीक गोलू के पुरानी दुकान के सामने जहां से वो महक पूरी तरह धुल चुकी है। वहां अब मात्र कुत्तों की भौंक और शांति है। वहीं सामने मेरे सहकर्मी मनोज भाई के कपड़ों की दुकान भी उसी गली के चकाचौंध में सुसज्जित है। जो लगभग हर बार मिलने पर यहीं कहते हैं महाराज कभी कुछ हमारे गरीब खाने से भी खरीद लिया करो कहां राठौर की ठौर में हमें भूले जा रहे? 

मैं थोड़ा खींझता हुआ नकली मुस्कान को अपने होंठों पर ढ़ोता हुआ उनसे कहता प्रभु फिर कभी और जल्दी से वहां से भाग जाता। मेरी चाल बहुत तेज नहीं होती थी लेकिन मेरा मन मुझे वहां से बहुत जल्दी कहीं पहुंचा देना चाहता था। मैं थोड़ा हीं आगे आया होता और सुरक्षित महसूस करता। जैसे मेरे झूठ ने मुझे इस बार भी बचा लिया है। 
यह सोचते हुए मेरा साहस कमजोर जरूर होता लेकिन मस्तिष्क में दौड़ रही अशांति थोड़े समय के लिए थम जाती थी। 

मैं उनसे पहली बार मनोज के दुकान पर हीं मिला था।
क्या आपको कमरे की जरूरत है?

मैं उनसे कहना चाहता था कि नहीं मुझे घर की जरूरत है। घर मेरे भीतर हमेशा से कौंधता रहा है। मैं बहुत जल्दी किसी भी कमरे को घर के रूप में देखने लगता हूं। उसे घर की तरह सजाने लगता हूं। फिर अचानक से बसंत खत्म होकर पतझड़ आरंभ हो जाता है। मैं उस पतझड़ को समेटकर दूसरे स्थान उसे बसंत की छांव में बदलता हूं। और यह मैं लगभग अपने बचपन के दिनों से करता आ रहा हूं। 

नहीं मैंने यहीं पास में कमरा लिया है।

उनकी सूनी आंखें मुझे खुद में बसा लेना चाहती थी। अजीब सी भूख थी उनके भीतर मानों वो उस खाली जगह को किसी भी तरह भरना चाह रहे थे। 

आप एक बार देख लिजिए, शायद आपको पसंद आ जाए?

ठीक है , चलिए मैं देख लेता हूं। मेरे कुछ दोस्तों को कमरे की जरूरत है। उस रास्ते मैं आपके काम आ जाऊं

वो मुझे अपने साथ लेकर आगे बढ़े। वो आगे-आगे चल रहे थे। मैं ठीक २ कदम उनसे पिछे रेंग रहा था। पतली और छोटी सिढियों पर। मकान बहुत पुराना था और थोड़ा बूढ़ा भी नजर आ रहा था‌। दरवाजों की ठीक-ठीक मरम्मत की आवश्यकता थी। खिड़कियां दूसरी दुनिया में प्रवेश करने के लायक नहीं बचीं थीं। जालियों को बारिश ने लगभग पूरी तरह झार दिया था। दीवारों पर कोई खरोंच नहीं। बच्चों के होने की कोई कहानी उस घर की दीवारों पर अंकित नहीं थी। बिल्कुल धुली हुई दीवार जिसने ना बच्चों की रूदन को सोखा था ना हीं उनकी हंसी उनके कानों पर कूदी थी। बिल्कुल हीं निर्जीव दीवारें। जीन पर अतीत का कोई वजन नहीं था। बिल्कुल हल्की दीवारें जहां बस हल्के रंगों की परत के कपड़े थे। जैसे किसी ने उसकी सजीवता चुरा ली हो। उसकी भावनाओं की हत्या कर दी हो। जो छत का सहारा मात्र थीं। यादों के वजन से बिल्कुल मुक्त। जिन्हें शायद कभी स्नेहिल स्पर्श भी नहीं मिला। 

यह देखिए पूरा मकान खाली है। केवल मै हूं। बच्चे दिल्ली में रहते हैं। अब उनके घुटनों में मुझसे ज्यादा दर्द है। उनसे इतना भी नहीं चला जाता की यहां पहुंच सकें। और मैं अब यहां से दूर कहीं चलना नहीं चाहता। छोटा सा कारोबार है गल्ले का। कारोबार क्या बस गल्ला रखता हूं इन दुकान वालों के लिए निचे के कमरों में वहीं सब अटा पड़ा है। ऊपर सारा कुछ सघन सुनसान है। मैं ऊपर जब अकेला आता हूं तो ज्यादा शोर नहीं करता, थोड़ा डर लगता है। मौन रहना हीं विकल्प होता है। होंठों के हरकत करते हीं लगता है मानों घर कोई प्रश्न कर बैठेगा। हमारे बीच उठ रहे शोर को लेकर मैं निश्चिंत हूं। मैं घर से यह कह सकता हूं कि जबाब आपके पास है।

मैं थोड़ा मुस्कुराया और उन्हें देखने लगा।` `आपके लड़के आपकी इस मेहनत को कैसे देखते हैं? आप उनसे नहीं कहते कि आपकी मेहनत ने आपको गूंगा कर दिया है। आपसे वह सवाल पूछती है।

कहा है मैंने लेकिन उन्हें यह मेहनत पूरानी लगती है। उनका कहना है यह अब उनकी आदतों से बहुत पिछे छूट गया है।

तो क्या वो यहां कभी नहीं लौटेंगे?

लौटेंगे, मेहनत की ठीक-ठीक कीमत मिलते हीं वापस अपने घर लौट जाएंगे।

लेकिन यह भी तो घर है।

नहीं, यह मेरा घर है।

उनका कहना उचित था। देखिए मैं तो अभी इसी गली में आगे बढ़कर मंगलेश्वर मंदिर से बांए वाली गली में रहता हूं। नागेंद्र को रूम की जरूरत है। वह देख रहा है। मैं उसे लेकर आऊंगा।

ठीक है। यह आपके इंतजार में यहीं स्थूल पड़ा रहेगा। आप तो यहीं से आते जाते रहते हैं?

जी बिल्कुल।

मेरे वहां से निकलते हीं मनोज भाई मिले। 
कैसा लगा? पसंद आया आपको?

मुझे जरूरत नहीं है। वो तो इन्होंने थोड़ी ज़िद की तो चला आया।

बहुत लोगों को इन्होंने दिखाया है, कोई यहां वापस आता हीं नहीं।

मैंने हंसते हुए कहा, मैं शायद वापस आऊंगा।

उस रात मेरे मस्तिष्क में घर शब्द कौंधता रहा। और बीतते दिनों में मैं घर शब्द की गहराई में डूबने लगा।  

क्या है घर?

मेरे लिए घर की स्मृतियां बहुत हीं अस्थाई रही हैं। मैंने घर में भी खुद को यायावर हीं महसूस किया है। या यूं कहूं घर शब्द मेरे बचपन के दिनों में मेरे साथ था फिर घर अचानक से गांव में बदल गया। वर्तमान में मैं किसी से यह नहीं कहता की मैं घर जा रहा हूं। मैं गांव जा रहा हूं का यथार्थ सबसे पहले भविष्य से छुपे हुए वर्तमान में बड़बड़ाता है। 

मेरा बचपन शक्तिनगर में बीता। मैं ४ वर्ष का था जब मैं गांव से वहां गया था। और उसे हीं अपना घर मान बैठा था। ऊंचे पहाड़ों और घने जंगलों के बीच बसाया गया कस्बा। उस समय वह कस्बा है या शहर की बीच के भेद कभी प्रश्न के रूप में मनोभूमि पर नहीं उतरे थे। फूआ का सघन आत्मिय प्रेम और फूफा जी का का बचवा मुझे सारे प्रश्नों से मुक्त करने के लिए पर्याप्त था। घर होने या ना होने का विचार कभी दिमाग़ को नहीं कुरेदता था। कालोनी में बसने वाले तमाम लोगों ने अपनी भावनाओं से उन कमरों को सींचा था। बच्चों के रूदन से लेकर बेटियों के विदाई के आंसूओं से धुले वह कमरे घर बनते जा रहे थे। जन्म की हंसी से मृत्यु की शोक तक में वह 1975 के मकान आज भी कईयों के लिए स्नेहिल स्मृतियों का संग्रहालय बन चुका है। जिसमें वह अपने होने का अतीत टटोलते हैं। कोई बाहरी उस अतीत में नहीं झांक सकता। जब तक हम सामने वाले वर्तमान को पूरी तरह नहीं समझ लेते या वह हमें अपने वर्तमान में प्रवेश की अनुमति नहीं देते हमें उनके अतीत को छूने का कोई हक नहीं। वर्तमान को अकेला छोड़ अतीत में नहीं जाया जा सकता। शायद यहीं कारण है कि उसे बिना महसूस किए दीवारों पर जमी दर्शन को अपने भविष्य की कल्पना से पोंछ देते हैं। 
क्वार्टर नंबर 6-A 182 मुझे यह अब भी याद है। जो भविष्य में 6-A 265 तक का सफर भी तय किया। कालोनी के सभी मकान लगभग एक हीं रंग-ढंग के थे। जब मैं पहली बार भटका था तो मुझे कहा गया था .. कोई भी पूछे तो यह नंबर उसे बता देना। वो‌ तुम्हें सही पते पर पहुंचा देगा। मैंने पहली बार सब्जी का स्वाद इसी क्वार्टर में चखा था। मैं हर रोज भोजन करते समय रोता रहता। सब्जी की कड़वी सच्चाई गले से नीचे नहीं उतरती थी। आज मैं करैली की कड़वाहट गटक जाता हूं। जीवन की भी। लेकिन तब के मीठे बचपन में मैं दादा हो दादा कहकर रोता। मानों आंखों से निकलते नमक से जीवन में मिठास बनी रहेगी। 
दादा का चेहरा ठीक-ठीक पिताजी के चेहरे के आसपास की रेखा से सजाया हुआ है। नाक को अगर नजर अंदाज कर दें तो सघन समानता देखी जा सकती है। पिताजी का बूढ़ा होना दादा के बूढ़े होने के साथ जिया जा सकता है। उनके साथ जब मैं मोटरसाइकिल से गांव जाता था तो उनके कुर्ते से वहीं समान खुशबू नथूनों तक पहुंचती थी।
वो सामने आकर बैठते और मैं उन्हें देखकर रोते-रोते खाने लगता।  फूफा जी को अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ती। धीरे-धीरे इस कड़ी में पींकी दीदी ने भी हिस्सा लिया। निचे पडाइन आंटी की बड़ी लड़की। मुझे हमेशा यह उम्मीद रहती कि यह मुझे इस संकट से बाहर निकाल लेंगे। लेकिन वह मुझे और सरलता से सब्जियों के फायदे गिनाने लगते। मेरे शारिरिक सैष्ठव को निशाना बना मुझे फिर से अकेला छोड़ देते। 
मैं ऐसा अकेला नहीं था। कोई और भी वहां थी जो मेरी उपस्थिति से अपने विपत्ति को काटना चाहती थी। वह क्यों रो रही हो के प्रश्न में और तेज-तेज रोती। मैं उसके चुप होने का कारण कैसे बना यह मैं आज भी ढूंढ रहा हूं। उस उम्र की शून्य तार्किक शक्ति में मैं सिर्फ वहां बैठ सकता था। वेदप्रकाश आचार्य जी की छोटी लड़की सोनू उसकी रूदन से उपजी ज़िद में मुझे उसके सामने बैठना होता था। मैं दादा या पिंकी दीदी की तरह उसे कुछ समझाता नहीं था। मुझमें वह ज्ञान और धीरज भी नहीं था। मैं मात्र उसके रोने में अपने चुप होने का दुख साझा करता था। मेरे वहां आते हीं वह चुप हो जाती और मैं बिल्कुल शांत। मैंने पहली बार जली हुई घी के साथ चीनी वहीं खाई थी। बढ़ते उम्र के साथ मैं सब्जियां निगलने लगा और वह हंसने लगी। दोनों के दुख लगभग एक शांत जीवन का हिस्सा बने। मुझे आसपास के सभी दया और आश्चर्य की दृष्टि से देखते थे। दया, क्योंकि मैं छोटा था और मां-पिता से दूर। और आश्चर्य यह कि मैं प्रसन्न था। मेरे एकांत में भी आंसूओं के लिए स्थान नहीं था। 
लेकिन आंसू आए। और आंसूओं से मेरे भीतर जो सिढ़न पैदा हुई उसने मेरे जीवन को एक समय तक जर्जर बनाए रखा। जब तक मैंने साहित्य के मजदूरों से उसकी मरम्मत नहीं कराई। मैंने जब भी जीवन में सूखापन महसूस किया है अच्छी पुस्तकों और लेखकों ने मुझे सींचने का कार्य किया है।

थोथू
थोंथ एक शब्द होता है। जानवरों के मुंह के लंबे हिस्से को थोंथ कहा जाता है। और मुझे थोथू कह लोग अपना और अपने साथियों का मनोरंजन करते थे। उपहास उड़ाते थे। यह नाम मुझे किसने दिया इसके जबाब से मैं अब तक अनभिज्ञ हूं। यह मेरे अस्तित्व से कैसे जुड़ा? शायद यह प्रागैतिहासिक रहा होगा या प्राक्रतिक जो मेरे साथ चला आया होगा। यह शक्तिनगर तक कैसे आया मुझे यह भी नहीं पता। मुझे याद है गांव से केवल मैं मेरे बाल में कुछ जुएं और बाबा चले थे रास्ते में बारिश मिली थी। बारिश को हवा ने सूखा दिया था। जूएं फूआ रोज मेरे बालों से निकालती थी और बाबा वापस घर चले आए थे। लेकिन थोथू कहीं नहीं था।

थोथू नहीं तो ।
थोथू के थोथ पर चांची से कोने जाईब।

पहले इस थोंथ की लंबाई कम थी। घर के दो कमरों और चार छतों से अचानक यह लंबी यात्रा पर निकल पड़ा। पार्क और स्कूल की भीड़ में गुलाटियां मारने लगा। 

फिर भी मेरे धैर्य ने मुझे आक्रामक नहीं बनाया था। फिर सामाजिक भीड़ ने मेरे धीरज की दीवार को तोड़ दिया। अंकित नरेंद्र वर्मा जब उसने पार्क में मुझे कहां थोथू कहीं का। तो मेरे क्रोध ने उसे चोटिल किया। 
शाम को जब वर्मा आचार्य जी गुस्से से सने हुए अंकित का बैट लेकर बरामदे में पहुंचे तो मैं बिल्कुल डरा हुआ था। पुत्र प्रेम में क्रोधित वो मुझे मारना चाहता थे। उस रोज उन्होंने मुझे पहली बार घर ना होने का अहसास दिलाया था। ऐसा मारूंगा की भाग जाओगे वापस घर उस दिन मुझे पहली बार आभास हुआ की यह मेरा घर नहीं है। उनके क्रोध ने मुझे तो अनुशासित किया लेकिन उनके स्वयं के लड़के को और मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया। उसकी शरारतें बढ़ती गईं। 
मैं अब अनुशासित हो गया था। और अनुशासन के पालन में मैं सिर्फ रोता रहता था। हिंसक कभी नहीं रहा। फूफा जी का कहना था उन्हें रेडियो मान लो।

विविध भारती है,विविध भारती

मान लिजिए की टेप है। टेप बोलता है तो आप चुप रहते हैं ना? 
मैं तब इस बात की गहराई नहीं समझता था। मैं उन्हें बहुत कमजोर और हारा हुआ मानता था। मैं मानता हूं वह उसे अपने डर से समाप्त कर सकते थे। लेकिन डर जैसी अस्थाई अवस्था जीवन को सूखा कर सकती हैं उसे लंबे समय तक सजीव रखने के लिए डर की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक संवाद के जबाब में व्यक्ति मन से खाली होता जाता है। 
आज जीवन के इस पड़ाव पर अतीत में झांकता हूं तो पाता हूं कि यह कितना अद्भुत है। क्योंकि यह एक तरफा नहीं है। लचीला नहीं है। कमजोर के लिए अलग और संपन्न के लिए अलग। विपन्नता और संपन्नता को एक तराज़ू में तौलने जैसा है। सभी के लिए समान दृष्टि। दुर्बल के समक्ष प्रस्तुत आत्मसम्मान शक्तिशाली के समक्ष भी उसी रूप में प्रदर्शित होता है‌। उन्होंने आत्मसम्मान और आत्मसमर्पण की महीन झिल्ली को पारदर्शी बना दिया है। बिल्कुल सौम्य,साधारण और सरल व्यक्तित्व। भौतिक संसार के शिल्प से मुक्त आत्मीय संसार। वह अपने आसपास कितनी ऊर्जा बिखेर पाए यह मेरे लिए कभी प्रश्न रहा हीं नहीं। मैंने उनसे बहुत कुछ प्राप्त किया है। यह हमारी नीजि नैतिक जिम्मेदारी है कि हम भविष्य में क्या लेकर प्रवेश करेंगे। अतीत की कितनी धूल हम देह से झाड़ेंगे। 
हरिओम के उद्घोष में सारे क्रोध,हिंसा,पिपासा को समाप्त कर देना साधारण नहीं है। सौम्य लोगों को दुनिया आज भी कमजोर मानती है जब तक सामने वाला उसे अभय दान ना दे डाले।
मैं उस समय रेडियो नहीं होना चाहता था और अब रेडियो का समय कितना पिछे छूट गया है? मैं यहां कानपुर में हूं। शक्तिनगर वहीं स्थूल पड़ा रोज बूढ़ा होता जा रहा है। प्रदूषण रोज उसे मैला कर रहे हैं। मुझे उस झूंड से वर्तमान में कोई शिकायत नहीं है। कोई अभियोग मैं उनपर नहीं मढ़ना चाहता। बहुसंख्यक ऐसे हीं फैसले लेता है। संख्याबल ऐसे हीं अकेले पड़े लोगों को नियंत्रित करता आया है। 
थोथ पर बैठ कर यात्रा के लिए निकले लोग क्या अब रेडियो सुनते होंगे? उनकी अपनी यात्रा में यह शब्द शायद मृत भी हो गया हो। अब तो रेडियो बहुत पिछे छूट गया है। 
थोथा शब्द भी। खिलंदड़ बचपन की चंचलता को इस शब्द ने अपने जंजीरों में जकड़ लिया था। जब मेरे क्रोध ने मुझे पूरी तरह से निगल लिया तो उन्हें मुझपर दया आई। मेरा बचपन पूरी तरह से अनुशासन की बली चढ़ता बदले की भूख में मर गया तो कहीं से शोर उठा .... अब तो इसे घर जाना है। मेरे विश्वास की हत्या करने के बाद वो झूंड विश्वस्त हो गया कि मैंने अपनी हार स्विकार कर ली है।  ठीक उसी समय वह शब्द मेरे जीवन से कहीं दूर भाग गया। 
या यहीं कहीं वर्तमान के खोखल में अटका है? अपने घर में जहां कोई नहीं रहना चाहता। जिस घर में बूढ़े बाबा के लड़के नहीं रहना चाहते। या मेरे जीवन के किसी खोखलेपन में वो छुपा हुआ है जो आज मेरे लिखे हुए में बाहर निकल रहा है। 

सभी के भीतर खोखल है। 
जैसे बूढ़े पेड़ में कोटर।
हमारे खोखल में सघन डर छुपा बैठा है जैसे पेड़ के कोटर में बिच्छू और सर्प बैठे होते हैं। 
सूक्ष्म अनिच्छित घटना के घटते हीं हमारा डर हमें निगलने लगता है। जैसे अपने आरोग्य को बाधित होता देख कोटर में भारी हलचल होती है और सारा कुछ बिखरने लगता है। 
ऊपर से हम कितने भी चैतन्य और सजग हो लेकिन डर का क्षणिक प्रतिबंध हमें असहज कर जाता है। गालों पर आंखों से बहता चांदी चिपकने लगता है और होंठों पर असंतोष की पपड़ी जम जाती है।

मेरे गांव के दूसरे पार अमिला धाम का मंदिर है वहां इस पेड़ पर अनगिनत लोगों की आत्मा पर कब्जा कि हुई बुरी शक्तियां कैद है। हर एक के नाम का किल इस पेड़ पर ठोका गया है। मैं उस थोथू शब्द को इस पेड़ में कैद करना चाहता हूं। हर एक पहचान के बाद पेड़ सूखता जा रहा है। मालाएं और चूड़ियों भारी संख्या में हवा के साथ हिलते पेड़ को उन शक्तियों का याद दिलाती हैं। मानों उनसे कहती हैं कि तुम्हारे जड़ों में हमारी आत्मा है अब तुम सूख चुके हो। बुरी शक्तियां न दिखते हुए भी अपना प्रभाव प्रबलता से समाज में बेखेरती है। और समाज उसका आलिंगन करता है। मैं उस आलिंगन से दूर भागता आया हूं। और उस दूर भागने में जब मैंने घर को घर जैसा बनते देखा ठीक उसी दौरान पिताजी की मृत्यु ने घर को खंडहर में बदल दिया। पूरा घर मानों एक चौकी के निचे सिमट आया था मां वहीं चौकी के निचे स्वयं को समेटी रहती। मानों रोशनी से कोई दुश्मनी हो। जैसे प्रकाश ने हीं उससे सारा कुछ छीना हो। या उस वैधव्य को छुपाने के लिए अंधकार की आवश्यकता थी। जिस श्रंगार को प्रकाश ने मूल्यहीन बना दिया था। देह से पसीने की नदी फूट पड़ी थी। गालों पर चांदी की पपड़ी हमेशा जमी रहती। बालों में लट पड़ने लगे थे। आंसूओं ने आंखों को कुंआ बना दिया था। धीरे-धीरे वह कुंआ सूखता गया बीतते दिनों में सिर्फ सूखी आवाज गले को छीलते हुए बाहर निकलती। जवांइडिस हर महींने उसे और बिमार करने के लिए शरीर से चिपक जाता। जब सभी को घर का सूनापन निगलने लगा था उस वक्त मां ने चौकी के निचे अपना संसार बसा लिया था। 

चाची के समर्पण ने घर को पुनः विस्तृत किया और नेहा की चंचलता ने आंगन को वापस जीवित। मां को किसी बच्चे की तरह आंगन में लाकर बैठाया जाता। मां जब अपने पुराने दिनों को याद करती है तो मात्र इतना हीं कहती है। कुछु रहे घर में? एतना मेहनत कर के घर बनल और जब सुख करे के समय आइल तो.... इस वाक्य के बाद आंसू जीत जाते और बचे हुए शब्द उसमें धुलते रहते। अब मां ने उस चौकी के आसपास गृहस्थी बसा ली है। सभी सुख और दुख के पलों में यह स्थान सारी आपूर्ति का केंद्र बना रहता है। सारी जरूरतें इसी स्थान से पूरी होती हैं। विवाह के श्रंगार से अन्नप्राशन की भूख तक सारा कुछ इस जगह ने पूरा किया है।


घर सिर्फ शब्दों से अलंकृत एक ढांचा है। वास्तव में घर कभी पूर्ण होता हीं नहीं। वह सदैव अधूरा रहता है। हमारे वहां ठहरने और निकल जाने के बीच के अंतराल में वह बदलता रहता है। हमारे जन्म और मृत्यु के ठीक बीच में वह मात्र हमें अपने होने का भ्रम परोसता है। यह मेरा घर है  यह कानूनी पन्नों पर लिखा हुआ हिसाब किताब है। संपत्ति मात्र। जिसे हमनें घर माना है। घर कहा है वह कब तक हमारे गृहस्थ जीवन को दिशा देगा कोई नहीं जानता। यहां सभी पलायित हैं। हर दूसरी से तीसरी पिढ़ी अपने घर आवश्यकता, जीवन शैली के ज्ञान और तरीकों के अनुसार बदलती आई है। विपन्नता भी स्थान परिवर्तन का मूल है। सभी भागते हुए जिस जगह विश्राम करने को ठहरते हैं वहीं घर है। जहां हम लौटकर वापस आते हैं वहीं घर है। कमरों से आरंभ होता सफर मकान से होता हुआ घर तक पहुंचता है। जैसे मेरे पूर्वज बलिया से मिर्जापुर आए और मिर्जापुर खुद सोनभद्र बन गया। ठीक वैसे हीं स्वयं घर की, घर के बाद की भी एक यात्रा होती है। उसी यात्रा में हमसे हमारा घर छूटता है। 
घर जीवन और मृत्यु के मध्य की यात्रा का पराधीन और क्षीण साक्षी मात्र है।

मीनू के विवाह में जब मैं शक्तिनगर गया था तो अपने सबसे खुबसूरत और पहले घर को देखने की इच्छा हुई थी। मैं उन गलियों में दुबारा पहुंचा था। मुझे इस बार क्वाटर नंबर हीं नहीं रास्ते भी कंठस्थ थे। 6-A 182 विद्युत विहार कालोनी, शक्तिनगर सोनभद्र उत्तर प्रदेश प्रकृति की हथेली पर बसी एक सजीव रेखा जो रोज बूढ़ी हो रही है। जैसे चमड़ी हड्डियों को छोड़ने लगती है ठीक उसी प्रकार प्लास्टर झर रहे हैं मकानों के। जंगली वृक्ष की तनाएं टूटकर मिट्टी हो रहीं हैं। उन्हीं के मध्य इस कमरे के दरवाजे के कोने पर उस निशान को मैंने दूबारा से देखा जो हमारे निश्चिंत नींद की देन थी। बने हुए के निशान में टूटा हुआ व्यापक उपलब्ध था। बनने के बाद भी टूटा हुआ जिंदा था। जिसकी सांसें वहीं सुन सकता है जिसने उसका भग्न और निर्माण होना दोनों देखा हो। क्षतिग्रस्त सिढि़यो पर हमारे कूदने के निशान नहीं थे लेकिन उनका टूटना वहां अब भी बचा हुआ था। उस छूटे हुए में हमारा कैवल्य छलांगें मार रहा था। बाल्कनी को देखकर मुझे उस रात्रि की ओलाविष्टी याद आई जब लगातार बारिश और तेज आंधी से त्राहिमाम करते कस्बे को फूफा ने बाल्कनी में पहसूंल फेंक शांत कर दिया था। बादलों के तेज गर्जन आकाशीय पुंज को उनके अगस्त मुनी ... अगस्त मुनी के जयघोष ने को मौन और निश्तेज कर दिया था। चेचक के महीन दानों को निम और कपूर ने इसी कमरे में सोख लिया था। अब ऐसे चमत्कार नहीं होते या यूं कहूं बचपन की आंखों पर मोतियाबिंद चिपक गई है। वो चुन-चुनकर चित्रों को आंखों में उतारती है। आश्चर्य की लोलुपुता इतनी धुंधली और कमजोर हो जाती है कि यथार्थ कल्पना को निगलने लगता है। पीले रंग का दरवाजा आज भी उतना हीं ताजा था। मन हुआ एकबार दरवाजा खटखटा दूं तभी स्मृतियों के मैला होने का डर मुझे खखोरने लगा। शायद यहीं कारण था कि मैं यहां अकेला आया था। सिढि़यो की रेलिंग जहां से हम शाकालाका बूम-बूम सिरीयल के संजू की तरह फिसलते थे वो नज़र आए। सघन मौन पसरा हुआ था। उस मौन में मुझे अपने बचपन की पुकार सुनाई दे रही थी। मैं भीतर से गीला हो रहा था। मैंने अपनी पुरानी चिख भी सुनी थी।  चिख से ठीक पहले का शब्द भी मेरे कानों में उतरा था। कुछ पिघल रहा था मेरे भीतर जो इस उम्र तक कठोर बनता आया था। सोनू का रोना दरवाजे के बाहर कूद रहा था। लेकिन मैं इस बार उन आंसूओं में फिसलने के डर से नहीं रूका। मुझे अब सिसकियों से भी डर लगता है। बर्माइन आंटी के सिरियल की आवाज भी कानों में बजी थी। अंकित उनसे उस शोर के बीच, विज्ञापन के इंतजार में खाना मांग रहा था। 
मेरे सामने छत का रास्ता खुला था। निचे के घर से बाहर निकलकर सभी आस-पास के बच्चे छत पर घर-घर खेलते थे। खुले आसमान में खेलते हम कैसे एक उम्र के बाद छतों की आड़ में छुपना चाहते हैं। जीवन का वास्तविक स्वरूप जहां घर-घर खेलने के लिए असीम आकाश छोटा पड़ जाता है और घर बनाने के लिए ससीम जगह भी बहुत बड़ी। 
मैं कुछ देर तक वहां ठहरा हुआ सारा अतीत पीता रहा। आसपास बसे लोगों के नाम मुझे आज भी स्मरण हैं। सभी के द्वारा अपनाए जाने की भूख से बीमार हुआ बचपन मेरी आंखों में किरकिरा रहा था। ऊंगली का स्पर्श पाते हीं सारा अतीत गालों पर लुढ़क आया। मैं बहुत जोर से चिखना चाहता था। फिर चुप रहा। मैं अपने हिस्से की चीख, मुस्कुराहट से बहुत पहले जी चुका हूं। बीते दिनों में जो शोर अनसुना था उसे आज भी कोई स्थान नहीं देगा यह मैं जानता हूं। सिर्फ ऊसर नहीं रहा था मेरा बचपन लेकिन अथाह प्रेम और स्नेह के नदी में यह काई हमेशा जमी रहती। जिससे उत्पन्न निराशा और क्रोध ने मुझे भीतर तक कमजोर बनाए रखा। मैं अपने भीतर कुछ मृत होता महसूस कर रहा था। शायद यहीं कारण था कि मैं किसी भी समूह का हिस्सा बन जाना चाहता था। अपने ठीक-ठीक को लेकर सभी के साथ उपस्थित रहना चाहता था। लेकिन मेरी यह भूख हमेशा अधूरी रही। उस कस्बे की अंतिम यात्रा में भी। काश हमें यह सुविधा होती कि भोगे हुए दुख और निराशा को चुन-चुनकर हम अपने वर्तमान से नोच डालते। सिर्फ हरे पत्तों और टहनियों का वर्तमान लिए हम आगे बढ़ते। पर क्या यह संभव है अपने जिये हुए को नकार पाना? अतीत की गहरी जड़ों को जीवन से उखाड़ फेंकना?

अरे तुम पीयूष हो ना? 
मेरी आंखों में अभी भी पानी का धूंधलापन था। अतीत का सोता जो कभी भी फूट सकता था। 
जी, आंटी प्रणाम कैसी हैं आप? चंदू कैसा है ,कहा है आजकल? यह सुरेंद्र आचार्य जी की पत्नी थीं। समय ने उनकी पहचान को मेरे लिए थोड़ा धुंधला कर दिया था। लेकिन बचपन की चंचलता में मेरा जीया हुआ अब भी पूरी तरह सूखा नहीं था। उसमें थोड़ी नमी अब भी बरकरार है।

मैं डरा हुआ अपनी आंखों को छुपा रहा था कि कहीं वह मुझे मेरे स्मृतियों में ना पकड़ लें। कहीं वह झरना ना फूट पड़े जो अभी के दर्शन से आंखों में फैला है। मैं वहां से निकलना चाहता था। मैं आसानी से निकल भी आया। 
बहुत दिनों बाद दिखे बेटा। वो तो इलाहाबाद गया हुआ है।

अभी बंगाल में हूं आंटी। शादी में आया हूं। मैंने लगभग शब्दों को चबाते हुए अपनी बात पूरी की। वह भीतर सुरक्षित महसूस कर रहे थे। 
छोटे ठहराव के बाद मैं वहां से दूर निकल आया। जैसे चंदू अपने घर से इलाहाबाद। मैं बंगाल।

इन सारी उहापोह में तैरता हुआ जब मैं नागेंद्र को लेकर उनके घर पहुंचा तो वहां ताला लगा हुआ था। 

का मनोज भाई कहां गए?

दिल्ली महाराज। 

नागेंद्र अपने हिमांचल प्रदेश के गांव जा पहुंचा है। अब वो उसे घर बुलाता है। या कह सकते हैं, उसके अस्तित्व में नौकरी और गांव की दूरी इतनी कम हो चुकी है कि वह उसे घर बुलाने लगा है। 
मैं अभी गांव और शहर के बीच बनते बिगड़ते घरों में अपनी थकान मिटा रहा हूं। यह घर का हो जाने की और घर होने की लंबी यात्रा है।

बूढ़े बाबा दिल्ली के घर में या मकान में या शहर में.... कहां ठहरें हैं? जब भी उनसे मुलाकात होगी उनसे पूछूंगा। 





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जिन मित्रों,सहयोगियों तथा निज जीवन के प्रेम पात्रों को यह जानने की उत्सुकता है कि क्या यह सत्य है? क्या यह ठीक-ठीक ऐसा हीं घटा था? यह फिक्शन है या नान फिक्शन? 
जीये हुए का दर्शन जब भीतर फूटता है तो वह सत्य रूप में ही मन की भूमी पर उतरता है। विचारों का गुणा-भाग जब अंदर चहलकदमी करता है ठीक उस समय वह अपनी सत्यता और प्रमाण के सवालिया घेरे में खींचता चला आता है। मैं अपने लेखन में स्वयं को सदैव सत्य के इर्द-गिर्द रखना चाहता हूं। इससे मुझे मेरा नंगापन भी साफ दिखाई देता है। अपनी क्रूरता और विलासिता से हमें लंबी लड़ाई लड़नी होती है। मैं अभी नाम बदल दूं तो आप कहेंगे यह नान फिक्शन है। मैं, मैं के उच्चारण की तरह कोई किरदार आपके सामने परोस दूं तो भी आपका यहीं जबाब होगा। निजी लेखन में सच या झूठ जैसा कुछ होता हीं नहीं। लेखन स्वयं से निजी संवाद होता है। 
आप इसे पढ़िए। यह आपका भी स्वयं से निजी संवाद सिद्ध होगा। बहुत सी आदतें ऐसी होती हैं जिनसे हमें निकलने में कठिनाईयां झेलनी पड़ती है।  प्रेम का अंकुर किस क्षण हमें संतुष्ट कर देता है यह उसी संतुलन का भाव है। यह सभी पढ़ने वालों की यात्रा है। 

Sunday, November 2, 2025

उस हत्या में उसके कला का उदय हुआ था- पीयूष चतुर्वेदी

मेरे सुख और दुख का कोई पैमाना नहीं है। वह मात्र एक बिंदु है जो दृढ़ है। उसे मैं भी समय के चलते चक्र के साथ नहीं बदल सकता। 

ऊंचे और निचले स्तर का स्थाई बिंदू।
जो अपने यथार्थ को लिए सदैव शास्वत है। 

जो वर्तमान और भविष्य के तमाम बंधनों से मुक्त है। बीच में घट रहा सारा कुछ संतोष और असंतोष के पैमाने पर तैरता जीवन है। जीवन को जीने का यात्रा मात्र। 
जिसे मैं महसूस कर रहा हूं। देख रहा हूं। मुझे गहरे पानी में तैरना नहीं आता लेकिन उथले पानी में डूबकियां लगाकर खुद को भींगा लेता हूं। मानों जैसे भींगने की यात्रा।

मृत्यु के पश्चात पिताजी के अंतिम दर्शन ना कर पाने से बड़ा दुख मेरे लिए जीवन में कुछ भी नहीं हो सकता। मेरा रूदन इतना सघन था कि मैं उनके पास जाने का प्रयास करता और मुझे अपनों द्वारा उस मिट्टी के लोथे से दूर फेंक दिया जाता। उस दुस्वप्न को मैं रोज अपने स्वप्निल संसार में धोना चाहता हूं लेकिन वो आज भी वैसा मेरे सापने तैरता है। हास्पिटल की दवाइयों की तीखी गंध और सूट में लिपटा हुआ। 

और वह गूंगी, बहरी, अंधी महिला जिसे सिर्फ सूप और अनाज का स्पर्श करा दिया जाता था। जिसे सभी गूंगी के नाम से बुलाते थे। मैंने उसका यहीं नाम सुना था। अब वह इस दुनिया में नहीं रहीं। यह कितना त्रासदी भरा है कि आपको आपके नाम से ना पुकारा जाए। किसी का अलग होना उसके अस्तित्व की हीं हत्या कर दे।

उस हत्या में उसके कला का उदय हुआ था। सूप और अनाज को छूते हीं वह हं..हं.. ऐं...ऐं... का शोर करती अपने काम में लग जाती। आस पास बैठे सभी अपने आंख को आराम देने के प्रयास में लगे रहते और वह अनाज को सूप से फटकती रहतीं। उनकी आवाज में अपने सारे किए हुए काम का समापन हिलते हाथों से होता। यह कितना दिव्य था। अंधे आंखों में जो रुपए चमकते थे। उसके काम को, उनकी मेहनत को देखते हुए। जो खुशी होती थी वह अनमोल है।

इसके अतिरिक्त सारा कुछ यायावर है।
जैसे सबसे खुबसूरत कल्पना शुक्ल संसार है।
सबसे स्वच्छ यथार्थ निर्मल संसार।

इससे इतर जो कुछ भी है वह मात्र यात्रा है आरंभ या अंत नहीं।

Sunday, October 26, 2025

लिखना ज़रूरी था,तस्वीर से कहीं अधिक।


का अम्मा लागत है बाल डाई कराए हऊ?
एकदम मधुबाला शर्मा जाए तुमका देख के

अम्मा

अम्मा चाय बनाती हैं। 
प्रसन्न लौंग और कूटी हुई मसाले के साथ जो इलाइची तैरती है। उस पर दबी हुई अदरक की स्वाद लिए गाढ़ी चाय। 

चाय का पहला घूंट शरीर की थकान वाली तार को ऐसा खींचता है कि पूरा शरीर ताजा हो सकता है। 

अम्मा ऐसा का मिलावत हो तुम चाय मा?

कुछौ नहीं बेटा बस उमर को स्वाद है

उम्र का स्वाद- `क्या सच में ऐसा हीं है?` क्योंकि जब उनका लड़का चाय बनाता है तो वह बूढ़ा स्वाद उस कुल्हड़ में ढूंढने से नहीं मिलता।

अम्मा आज तुम्हारे चाय मा उ स्वाद ना आ रो है

अम्मा शर्मा गईं
अम्मा आज भी बहुत शुद्ध और जवान शर्माती हैं। उनके शर्म में बुढ़ापे की परत नहीं है।
जैसे कोई स्त्री अपने पति के पहले दर्शन या मीठे स्पर्श से लजाता है।

दूसरी बना रहे लल्ला
नहीं अम्मा अब बस

मैं हर बार उनकी तस्वीर लेना चाहता हूं।

का अम्मा फोटो खींच लें तुम्हाई एक?

अम्मा लजाते हुए... अब हमाई उमर कहां बच्चा हमें लाज आती है।

लेकिन लिखना ज़रूरी था।
तस्वीर से कहीं अधिक

सूखे को कुछ बूंदों की आवश्यकता है।

यह एक प्रकार का हिंसात्मक सौन्दर्य है।
अपनी
प्रसन्नता
आश्चर्य
सरलता
और विशेष रूप से संपन्नता
को भरसक वापस पाने के क्रम में एक मीठा अपराध। जहां क्षोभ , क्षुधा के सूखे पत्तों का शोर मौजूद ना हो।

रूदन के स्वर में आलोक फैलाता श्रृंगार।

आंखों से बहती चांदी के द्रव्य को मैंने कैद किया है। 

सारे आश्चर्य भीतर की सहजता को नहीं स्विकार करते। कुछ उससे लड़ते हैं। 
हम उसमें भी अपने लिए कुछ सजे हुए पत्ते चुनते हैं जिसमें हमारा निर्मोही होना तो नहीं लेकिन सूखा होना झलकता है। 

और उस सूखे को कुछ बूंदों की आवश्यकता है

इसलिए यह हमें जरूरी लगने लगता है
और यह जरूरी है भी

कुछ अपनों में प्रकाश देखना

मैं खंडहर हूं

मैं खंडहर हूं।
जल खंडहर

बाढ़ का पानी जब खेतों से वापस जाता है ठीक उसके बाद का बचा हुआ जल। जिससे हल्की सड़न और काई जागती है।

मैं खंडहर हूं।
घर खंडहर

रिश्तों के टूट जाने के बाद जो ठीक अकेला रहता है। वहीं बचा हुआ अपनापन। 

मैं खंडहर हूं।
पेड़ खंडहर

मोटे तने पर पक्षियों द्वारा बने कोटर में बचा हुआ खोखलापन। जिसमें थोड़ी जगह हमेशा बची रहेगी।

मैं खंडहर हूं।
`मिट्टी खंडहर`

पत्तों की ढ़हती जीवन में मिट्टी का ठीक-ठाक स्पर्श। जिसमें चिड़िया की चोंच से उपजा चर-पर का संगीत है।
या बांबी की शक्ल में टूटा हुआ घर जहां कोई अस्थाई तौर पर भटकेगा।

ईश्वर है कि नहीं की शंका में।
कहता हूं -_ `मुझे अच्छा मनुष्य बना दो। (विनोद कुमार शुक्ल जी)

सभी को सुखी कर दो।

स्वार्थ हमारे विवेक को निगले उससे पहले हमें यात्रा पर निकल जाना चाहिए- पीयूष चतुर्वेदी

स्वार्थ हमारे विवेक को निगले उससे पहले हमें यात्रा पर निकल जाना चाहिए

मुझे इस यात्रा को सफल बनाने के लिए लगभग २ वर्ष कुछ ठीक-ठाक महिनों का समय लगा।

मेरी निजी इक्छाओं और कुछ छुटपुट जिम्मेदारियों से ठसाठस भरे जीवन ने मेरी यात्रा की इच्छा को पंगु बना दिया था।

 मानों देह पर जमी धूल मैं कभी साफ नहीं कर पाऊंगा।

जिस वाहन से मुझे यात्रा करनी है वह अपने सारी भौतिकता को समाप्त कर गया हो।

फिर बिते दिनों २ वर्षों से भी अधिक समय से फूआ द्वारा मिलते, व्यस्तता के उलाहने, अति धन संचय के ताने और स्वस्थ नोंक-झोंक ने ईंधन का काम किया।

मैं एक वहां पहुंच गया जहां की दूरी बहुत अधिक नहीं थी। जहां इतनी लंबी अवधि को पोषित करना मात्र एक क्रूरतम वर्तमान हो सकता है और कुछ भी नहीं।

बहुत कुछ अच्छा खिला देने के प्रयास
कहीं बेहतर जगह घूमा देने की भूख
बहुत कुछ भेंट कर देने की लालसा के बीच

इस यात्रा के अंत में मैं अपना मौन लिए वापस कमरे की दीवार को ताक रहा हूं। 

मौन इतना ताजा है कि अभी भी बीते दिनों के दुहराते उच्चारण होंठ से बाहर कूद जा रहे हैं।

जल्दी वापस आने के वादे के साथ सारा कुछ अपने साथ समेट लाया हूं।

यह जानते हुए की यह सीमा इतनी छोटी और सुखी है कि मुझे और अधिक गाढ़ी स्मृतियों का समान इकठ्ठा करना था लेकिन।

स्वार्थ की नगरी में जरूरत का मशीन ठीक करने के लिए मैं अधूरा भाग आया हूं।

जैसे-जैसे काम की पपड़ी देह पर जमती जाएगी स्मृतियां अदृश्य होकर चहलकदमी करेंगी

हम एक रोज ऐसे खांसते-खांसते जानवर हो जाएंगे।

घर के सामने के जो पेड़ सारे काटे जा चुके हैं उनके ठूॅंठ जीवन को मानों धीरे-धीरे निगल रहे हैं। 
इस वर्ष के प्रारंभ से मैं सबसे ज्यादा अपनी स्वास के लिए लड़ा हूं। 
बेतहासा खांसता हुए बीतते महीनों ने अब मास्क की ओट में खुद को छुपा लिया है। 
घनी पेड़ों की छांव में मैं खुद को जब मुक्त करता हूं और जंगल कटने के अफ़सोस से भर जाता हूं। 
पिताजी का बसाया हुआ जंगल जीवन जीने की लालच में हमनें नोच दिया और उसे नोचते हीं शहर की ओर भाग आए। 
क्या इसकी कोई माफी है ? 
या मुझे अपने पाप को पूर्णतः स्विकार करने के लिए कदम के पेड़ के समाप्त होने का इंतजार करना होगा। 
या उसके खत्म होते हीं मैं पूरी तरह गांव से दूर भाग जाऊंगा? 
अब गांव जाना सिमीत हो चुका है। कुछ विशेष कार्यक्रम और आयोजन से इतर कोई विशेष कारण नहीं सूझता। 
यह उहापोह मुझे भीतर तक झकझोर देता है लेकिन समाज का ऐसा हीं निर्माण भविष्य में भी नजर आएगा। रोटी के चक्कर काटता हुआ आदमी पलायन की धुन पर थिरकेगा। 
जब विनोद जी लिखते हैं कटे हुए पेड़ के ठूॅंठ जंगल कटने के कदम हैं
मेरी नजर में यह विस्थापन का भी कदम है।
मनुष्य सारा कुछ समाप्त करते हुए भविष्य की सड़क पर कूदता है। उसे नोचता हुआ उजाड़ता हुआ। 
अतीत के सबूतों को दबाता हुआ। सारी क्रूर हत्याओं के बाद वह स्वयं को नई जगह पर नए लोगों के बीच अच्छे मनुष्य की तरह पेश करता है। 

मुझे अपने मनुष्य होने पर कुछ भीतर तक खरोच महसूस होती है। 
अच्छा मनुष्य होना मुझे स्वप्न सा लगता है। 
इन सबके बीच इमानदार होना एक धोखा है जो हम सभी को देते हैं। यह जानते हुए की हम सिर्फ अंजान लोगों के सामने अपनी झूठी कहानी में इमानदार हैं। जो हमसे अंजान है हम सिर्फ उसकी नजर में इमानदार हैं। 
शायद यहीं कारण है कि निर्मल जी कहते हैं कि अपने अतीत की चिरफाड़ सभी को करनी चाहिए।
मैं उस अतीत में कुछ ढूंढ रहा हूं। 
कुछ पत्ते 
कुछ जड़ें 
जिनमें बेल की जड़ें प्रमुख हैं। 
जो स्याही वाले कमरे के निचे कहीं दबी हैं। 
जो फैलना चाहती हैं। 
बढ़ना चाहती हैं।






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सांस अंदर बाहर हो रही थी। 
आंखों में हल्का तनाव बीच-बीच में आता फिर अचानक कभी होंठ गालों पर परसने लगते। 
स्वप्न था स्वप्निल संसार का स्वप्न
यथार्थ और कल्पना के मध्य अटके भविष्य में कूद जाने का स्वप्न।

सौम्यता और क्रूरता को ढ़ोता हुआ आगे बढ़ते जाने का स्वप्न।
कुछ पाने की लालसा और खो जाने के डर के बीच चेहरे का भाव कभी पिघलता कभी ठोस होता महसूस हो रहा था।

कहीं जाने की इच्छा में पहाड़ थे। 
पढ़ने की इच्छा में ढ़ेर सारी सुन्दर किताबें।
दुनियाभर की बेहतरीन फिल्मों को आंखों में घटता देखने का सुख। 

फिर एक रोज कमजोर से नींद में मैं पहाड़ों पर दूर कहीं घूम रहा था। मुंह में बर्फिली हवा ने प्रवेश किया और थकी हुई खांसी आई। 
मैं देर तक खांसता रहा। गांव के मेले की धूल मानों भीड़ के पैरों से उड़कर मेरे गले में चिपक गया हो। कोई चौराहे पर पड़ा कूड़ा घर जिसके आस-पास उससे अधिक क्षमता का कूड़ा फैला है वह मेरे नाक को जला रहा है। मैं पहले छींकता हूं फिर खांसता हूं।

मैं उस रोज से खांसता जा रहा हूं। 
सारे प्रकार की दवाइयां चखने के बाद अब कुछ भी छक के उदरस्थ करने की इच्छा डरी हुई रहती है। 

कोई कहता है ठंडा नहीं खाना।
कोई कहता है पीने से बचो। 
किसी ने तो प्याज तक से परहेज़ की सलाह दे डाली। 

आर्युवेद की बिना साइड इफैक्ट और एलोपैथ की साइड इफेक्ट्स दवाइयों ने भी उसे कोई दंड नहीं दिया तो मैं अपनी शिकायत लेकर होम्योपैथी में भागा।

अब मैं लगभग हर सुबह गर्म और गुनगुने पानी के बीच के अंतर को टोहता हुआ मैं खूब जोर से खांसता हूं।
कि शायद वह जो फंसा हुआ है गले में कहीं वो मेरे इस इंतजार के सम्मान में मुझे माफ़ कर देगा। 

होम्योपैथिक गोलीयों की गिनती करता हुआ मैं खुद को बहुत असहाय महसूस करता हूं। 
गले को साफ करना पूरे दिन को शांत करने की वर्जिश है कि शायद ये दिन मुझे शांत रहने देगा। 
गुड़ की मीठी चटचटाहट भी उस व्याकुलता को शांत नहीं करता। 

मास्क के भीतर बह रहा पसीना होंठों के आसपास तैरता रहता है। इस अराजकता को मैं सड़कों किनारे विस्तारित दुकान की तरह देखता हूं। जहां चलना कष्टदायक है। सांस लेना मुश्किल है।

डाक्टर कहते हैं यह जरूरी है। 
निरिह भूख से भी जरूरी। 
धुली हवा से भी। 
सुनिश्चित बारिश से भी।
धवल प्रकाश से भी।
निश्छल प्रेम से भी।
मीठे चुंबन से भी।
कोमल संभोग से भी।


और सांस खींचने से भी ज्यादा आवश्यक है। गंदी सांस लेते हीं अंदर सब मैला हो जाएगा। क्या करेंगे ऐसी गंदगी का? बाहर क्या कम गंदगी है जो भीतर भी समेटना है? मास्क की विशेषता अतुल्य है। इसे छोड़ा नहीं जा सकता है। कोरोना ने हमें यहीं दिया है।

आपने तो देखा होगा? अब दवाइयां कम असर करती हैं या समय लेती हैं। अब देखिए आप कब से खांसे जा रहे हैं?

उनकी बातें उचित हैं। मैं खांस रहा हूं। लेकिन मैं उस खांसने को ठीक-ठीक खांसता हुआ यहां लिख नहीं पा रहा।

भोजन के प्रति मैं कभी उतना उत्साहित नहीं रहा लेकिन स्वास्थ्य का अवसान उसमें हिसाब-किताब किए बैठा है।

कितना शुद्ध है सारा कुछ जिसका हम भोग कर रहे हैं या कितनी वास्तविकता है हमारे इर्द-गिर्द जो हमें निगल रही है?

किसे पता था की प्रकृति को नोचते हुए हम एक रोज ऐसे खांसते-खांसते जानवर हो जाएंगे।

Saturday, August 9, 2025

बंदरों की हूक सुनते-सुनते यदि हम गूंगे हो जाएं तो भी मनुष्य का अत्याचार जारी रहेगा

मैं आज चिड़िया घर दूसरी तीसरी बार गया था। 
जब पहली बार गया लखनऊ के चिड़िया घर में गया था उस समय पक्षियों के होने या ना होने भाव से अंजान था। मैं चिड़ियों से कहीं ज्यादा उन जानवरों के प्रति आकर्षित था जिनका शोर चिड़िया घर के नाम से नहीं जन्मता। फिर इंदिरा गांधी जी के जहाज ने सारा आकर्षण खींच लिया।
डिस्कवरी चैनल को देख जितनी समझ उस वक्त तक जग पाई थी वह मात्र मनोरंजन के आसपास घूम रही थी। एक निरिह आकर्षण जो उन जानवरों की उपस्थिति में मात्र एक प्रसन्नता को जन्म दे रही थी। जो गालों को गुदगुदा रही थी। नपा तुला उत्साह जिसमें देखने और देखे जाने का बोध शामिल था।
दूसरी बार के देखने में एक गहरा आक्रोश और अफ़सोस मन को झकझोर रहा था। 
मैं अपने दोस्तों के साथ गया था। बंदरों सा हुड़दंग और पक्षियों के कलरव के बीच जानवरों को कैद किए जाने का क्रोध। 
क्यों ऐसी स्थिति का जन्म हुआ? 
और यदि यह सारा कुछ उन्हें बचाने का प्रयास था तो वह कितना इमानदार है? 
क्यों उन्हें कैद में देखकर हम तालियां बजा रहे हैं? उन्हें पिंजरे में ललकार रहे हैं? उनकी एक गुर्राहट के लिए कानों को थका रहे हैं? 
क्या आने वाले दिनों में हम सफल रहेंगे? उस प्रयोजन का कोई परिणाम हमें प्राप्त होगा? क्योंकि हमारे परिवर्तन का प्रयास इतना मिलावटी है कि वह कभी सफल नहीं होने वाला। 
बंदरों की हूक सुनते-सुनते यदि हम गूंगे हो जाएं तो भी मनुष्य का अत्याचार जारी रहेगा। 
मनुष्य भी प्रकृति है लेकिन हमारी समझ ने सबसे ज्यादा प्रकृति को नष्ट किया है।
आज के दर्शन में मैं उन सारे शिकायतों को स्वयं से दूर होता हुआ पाया। सतीश से बात करते हुए बीच-बीच में मेरा असंतोष बाहर की ओर भाग रहा था। 

फिर यथार्थ की बंदरों की उछल के साथ बजती तालियों ने मेरे असंतोष को थोड़ा स्थान दिया। बाघ को देखने के बाद मुंह पर हाथ धरे लगभग नाटकीय ढंग से जो मेरी नकल के आसपास कहीं था ओ भाई थाब ने मेरे सारी शिकायतों को कहीं भीतर निगल लिया था। 
पक्षियों के शोर में जगमग होते इसके आश्चर्य को देख मैं मौन हो गया था। 

कुछ समय के लिए मुझे स्वयं से घिन्न भी आई। एक गहरी गाढ़ी बदबू जो मेरे भीतर के लालच से जन्मी थी वह उस पानी से भी अधिक बदबूदार थी जो उन पक्षियों के लिए रखा गया था। एक क्रूर पशुता मैं अपने स्वभाव में महसूस कर रहा था। मानों मैं हीं मूल कारण हूं इस दोहन का। मैं इस कृत्रिम सौंदर्य को देखने नहीं इसे और नकली बनाने आया हूं।
प्रकृति को वास्तविक रूप से हमारी जरूरतों ने नहीं हमारी लालच और स्वार्थ ने नंगा किया है। इस बात का आभास मुझे तब हुआ जब यथार्थ के मुंह से गाय... गाय का शोर उठा। 
हम इन्हीं के बीच थे या वहां तक पहुंचे थे। जहां सेवाजनीत शुद्ध पोषण था। फिर एक रोज हमारी भूखी मानसिकताओं ने अपनी सीमा लांघी और हमनें उस भोजन श्रृंखला को निगल लिया। अब हम अपने विज्ञान को पोषित करने के क्रम में धीरे-धीरे उसे कुतर रहे हैं।
और मैंने उसे तेंदुए के सामने खड़ा कर दिया। उस प्रसन्नता के प्रस्ताव को मंजूरी देने के लिए जिसकी उसे जरूरत हीं नहीं थी। यह सारा कुछ उसकी इक्छा सूची में कहीं नहीं था। झूठी और अशुद्ध इक्छाओं की जो डायरी अभी लिखनी प्रारंभ हुई है उसकी स्याही जब तक समाप्त होगी उस समय तक स्याही वाले कमरे में फैली बेल की जड़ें पूर्णरूप से सूख जाएगी।

यह लिखते हुए मैं अपने लालची स्वभाव से विद्रोह कर रहा हूं। मुझे आगे ऐसा होने से पूर्व बेल का पत्ता है। सूखा पत्ता जो समर्पित है संपूर्ण है। 
बरामदे के उस घोंसले को बनता देखना है जहां चिड़िया मुक्त भाव से तीनके इकट्ठा कर रही है। 
जहां उसके उड़ने की भूख में किसी पिंजरे का डर नहीं।










Thursday, June 12, 2025

असफलता और लालच के क्षणों में उनकी आलोचना में भी शामिल रहा हूं- पीयूष चतुर्वेदी



यह मेरे लिए दिसंबर २०१५ के प्रथम सप्ताह को जवान होते हुए देखना है।
विवाह की लंबी तैयारी ने उन्हें शारीरिक रूप से थोड़ा थका दिया था। लेकिन उनका जोश उनके हर कार्य और फैसले में दिखाई देता था। 
मुझे एक फोन डायरेक्ट्री बाबा ने दी थी जिसमें उत्तर प्रदेश के सभी चुने हुए प्रतिनिधियों के नंबर थे और एक लिस्ट थी मुझे उस लिस्ट की सहायता से फोन डायरेक्ट्री को और छोटा बनाना था। 

मैंने लगभग सारे नेताओं के नाम और नंबर को सार्टलिस्ट कर लिया था। 
बाबा को उन सभी लोगों से व्यक्तिगत वार्ता कर विवाह के लिए आमंत्रित करना था हालांकि उन्हें कार्ड पहले भी भेजे जा चुके थे। उनकी आवाज खारी हो गई थी। गर्म पानी और नमक के गरारे ने गले की गरारी में फंसे रूखेपन को आराम नहीं दिया था। वो उसी फंसती और घरघराती आवाज में सभी को आमंत्रित कर रहे थे।

उनमें एक नाम राजा भैया का भी था। 
अन्य दलों के और नेताओं का भी। 

मैं राजनीति को कल्याणकारी योजनाओं की सबसे कमजोर कड़ी मानता हूं। 
और वर्तमान समय में यह और भी मैला हो गया है।

बाबा के सम्मान और असम्मान को मैंने बचपन से देखा है। असफलता और लालच के क्षणों में उनकी आलोचना में भी शामिल रहा हूं। 
अब भी मिल रहे सम्मान में कितना स्वच्छ और धुला हुआ सम्मान उन्हें मिलता है मैं उस तक नहीं पहुंच पाता। 
लेकिन यह सारा कुछ जो दिख रहा होता है.. जो बिल्कुल हीं औपचारिक है। उसके पिछे की दुर्गंध हम नहीं सूंघ सकते। उसकी सुगंध को महसूस करना मेरे परिधी में नहीं है। 
लेकिन उस स्थिति को जीने के लिए एक यात्रा की आवश्यकता होती है। 
लंबी और संघर्षशील यात्रा। कुछ फैसले में सेवा और त्याग को ऊपर रखने से ऐसी घटनाओं के हम साक्षी बनते हैं। 
व्यवहार की स्थिरता में उपजे संयम से चारित्रिक उत्थान को देखा जा सकता है।

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