मैं उन दिनों पुरानी गली में रहता था। जागता हुआ गली। रात के ११ बजे तक अकबरपुर की उस गली में रोशनी चमकती रहती थी। लगभग सारे घर व्यापार से जुड़े हुए हैं। ऊपर में रहने की व्यवस्था और ठीक निचे उनकी व्यवस्थित दुकान। शायद यहीं कारण है कि लोगों को कोई जल्दबाजी नहीं। सुबह की शुरुआत थोड़ी देर से भले उन्हें मंजूर था लेकिन रात को सभी एकमत अंधकार में ज्यादा समय चमचमाना पसंद करते हैं। मैं गोलू के दुकान पर अक्सर टमाटर चाट खाया करता था। अब सुना है उसने अपनी भूख को पैमाने के आसपास कहीं जमा लिया है। ठीक सोमरस की दुकान के बगल में। अब वह चटपटी चाट की जगह मसालेदार आलू भुनता है और भी कई व्यंजनों का बाजार है जो सोमरस के स्वाद को और मादक और स्वादिष्ट बनाते हैं। जहां लोग अपनी प्यास नहीं थकान मिटाने आते हैं। उन झंझावातों से छुटकारे के लिए जो उनके नसीब से उनके जीवन के हर सही-गलत फैसलों के साथ चिपका हुआ है। जिनके वर्तमान में भारी अवसाद है जहां भविष्य की चिताओं को घोंटा जा रहा है। ठीक गोलू के पुरानी दुकान के सामने जहां से वो महक पूरी तरह धुल चुकी है। वहां अब मात्र कुत्तों की भौंक और शांति है। वहीं सामने मेरे सहकर्मी मनोज भाई के कपड़ों की दुकान भी उसी गली के चकाचौंध में सुसज्जित है। जो लगभग हर बार मिलने पर यहीं कहते हैं
महाराज कभी कुछ हमारे गरीब खाने से भी खरीद लिया करो कहां राठौर की ठौर में हमें भूले जा रहे?
मैं थोड़ा खींझता हुआ नकली मुस्कान को अपने होंठों पर ढ़ोता हुआ उनसे कहता प्रभु फिर कभी और जल्दी से वहां से भाग जाता। मेरी चाल बहुत तेज नहीं होती थी लेकिन मेरा मन मुझे वहां से बहुत जल्दी कहीं पहुंचा देना चाहता था। मैं थोड़ा हीं आगे आया होता और सुरक्षित महसूस करता। जैसे मेरे झूठ ने मुझे इस बार भी बचा लिया है।
यह सोचते हुए मेरा साहस कमजोर जरूर होता लेकिन मस्तिष्क में दौड़ रही अशांति थोड़े समय के लिए थम जाती थी।
मैं उनसे पहली बार मनोज के दुकान पर हीं मिला था।
क्या आपको कमरे की जरूरत है?
मैं उनसे कहना चाहता था कि नहीं मुझे घर की जरूरत है। घर मेरे भीतर हमेशा से कौंधता रहा है। मैं बहुत जल्दी किसी भी कमरे को घर के रूप में देखने लगता हूं। उसे घर की तरह सजाने लगता हूं। फिर अचानक से बसंत खत्म होकर पतझड़ आरंभ हो जाता है। मैं उस पतझड़ को समेटकर दूसरे स्थान उसे बसंत की छांव में बदलता हूं। और यह मैं लगभग अपने बचपन के दिनों से करता आ रहा हूं।
नहीं मैंने यहीं पास में कमरा लिया है।
उनकी सूनी आंखें मुझे खुद में बसा लेना चाहती थी। अजीब सी भूख थी उनके भीतर मानों वो उस खाली जगह को किसी भी तरह भरना चाह रहे थे।
आप एक बार देख लिजिए, शायद आपको पसंद आ जाए?
ठीक है , चलिए मैं देख लेता हूं। मेरे कुछ दोस्तों को कमरे की जरूरत है। उस रास्ते मैं आपके काम आ जाऊं
वो मुझे अपने साथ लेकर आगे बढ़े। वो आगे-आगे चल रहे थे। मैं ठीक २ कदम उनसे पिछे रेंग रहा था। पतली और छोटी सिढियों पर। मकान बहुत पुराना था और थोड़ा बूढ़ा भी नजर आ रहा था। दरवाजों की ठीक-ठीक मरम्मत की आवश्यकता थी। खिड़कियां दूसरी दुनिया में प्रवेश करने के लायक नहीं बचीं थीं। जालियों को बारिश ने लगभग पूरी तरह झार दिया था। दीवारों पर कोई खरोंच नहीं। बच्चों के होने की कोई कहानी उस घर की दीवारों पर अंकित नहीं थी। बिल्कुल धुली हुई दीवार जिसने ना बच्चों की रूदन को सोखा था ना हीं उनकी हंसी उनके कानों पर कूदी थी। बिल्कुल हीं निर्जीव दीवारें। जीन पर अतीत का कोई वजन नहीं था। बिल्कुल हल्की दीवारें जहां बस हल्के रंगों की परत के कपड़े थे। जैसे किसी ने उसकी सजीवता चुरा ली हो। उसकी भावनाओं की हत्या कर दी हो। जो छत का सहारा मात्र थीं। यादों के वजन से बिल्कुल मुक्त। जिन्हें शायद कभी स्नेहिल स्पर्श भी नहीं मिला।
यह देखिए पूरा मकान खाली है। केवल मै हूं। बच्चे दिल्ली में रहते हैं। अब उनके घुटनों में मुझसे ज्यादा दर्द है। उनसे इतना भी नहीं चला जाता की यहां पहुंच सकें। और मैं अब यहां से दूर कहीं चलना नहीं चाहता। छोटा सा कारोबार है गल्ले का। कारोबार क्या बस गल्ला रखता हूं इन दुकान वालों के लिए निचे के कमरों में वहीं सब अटा पड़ा है। ऊपर सारा कुछ सघन सुनसान है। मैं ऊपर जब अकेला आता हूं तो ज्यादा शोर नहीं करता, थोड़ा डर लगता है। मौन रहना हीं विकल्प होता है। होंठों के हरकत करते हीं लगता है मानों घर कोई प्रश्न कर बैठेगा। हमारे बीच उठ रहे शोर को लेकर मैं निश्चिंत हूं। मैं घर से यह कह सकता हूं कि जबाब आपके पास है।
मैं थोड़ा मुस्कुराया और उन्हें देखने लगा।` `आपके लड़के आपकी इस मेहनत को कैसे देखते हैं? आप उनसे नहीं कहते कि आपकी मेहनत ने आपको गूंगा कर दिया है। आपसे वह सवाल पूछती है।
कहा है मैंने लेकिन उन्हें यह मेहनत पूरानी लगती है। उनका कहना है यह अब उनकी आदतों से बहुत पिछे छूट गया है।
तो क्या वो यहां कभी नहीं लौटेंगे?
लौटेंगे, मेहनत की ठीक-ठीक कीमत मिलते हीं वापस अपने घर लौट जाएंगे।
लेकिन यह भी तो घर है।
नहीं, यह मेरा घर है।
उनका कहना उचित था। देखिए मैं तो अभी इसी गली में आगे बढ़कर मंगलेश्वर मंदिर से बांए वाली गली में रहता हूं। नागेंद्र को रूम की जरूरत है। वह देख रहा है। मैं उसे लेकर आऊंगा।
ठीक है। यह आपके इंतजार में यहीं स्थूल पड़ा रहेगा। आप तो यहीं से आते जाते रहते हैं?
जी बिल्कुल।
मेरे वहां से निकलते हीं मनोज भाई मिले।
कैसा लगा? पसंद आया आपको?
मुझे जरूरत नहीं है। वो तो इन्होंने थोड़ी ज़िद की तो चला आया।
बहुत लोगों को इन्होंने दिखाया है, कोई यहां वापस आता हीं नहीं।
मैंने हंसते हुए कहा, मैं शायद वापस आऊंगा।
उस रात मेरे मस्तिष्क में घर शब्द कौंधता रहा। और बीतते दिनों में मैं घर शब्द की गहराई में डूबने लगा।
क्या है घर?
मेरे लिए घर की स्मृतियां बहुत हीं अस्थाई रही हैं। मैंने घर में भी खुद को यायावर हीं महसूस किया है। या यूं कहूं घर शब्द मेरे बचपन के दिनों में मेरे साथ था फिर घर अचानक से गांव में बदल गया। वर्तमान में मैं किसी से यह नहीं कहता की मैं घर जा रहा हूं। मैं गांव जा रहा हूं का यथार्थ सबसे पहले भविष्य से छुपे हुए वर्तमान में बड़बड़ाता है।
मेरा बचपन शक्तिनगर में बीता। मैं ४ वर्ष का था जब मैं गांव से वहां गया था। और उसे हीं अपना घर मान बैठा था। ऊंचे पहाड़ों और घने जंगलों के बीच बसाया गया कस्बा। उस समय वह कस्बा है या शहर की बीच के भेद कभी प्रश्न के रूप में मनोभूमि पर नहीं उतरे थे। फूआ का सघन आत्मिय प्रेम और फूफा जी का का बचवा मुझे सारे प्रश्नों से मुक्त करने के लिए पर्याप्त था। घर होने या ना होने का विचार कभी दिमाग़ को नहीं कुरेदता था। कालोनी में बसने वाले तमाम लोगों ने अपनी भावनाओं से उन कमरों को सींचा था। बच्चों के रूदन से लेकर बेटियों के विदाई के आंसूओं से धुले वह कमरे घर बनते जा रहे थे। जन्म की हंसी से मृत्यु की शोक तक में वह 1975 के मकान आज भी कईयों के लिए स्नेहिल स्मृतियों का संग्रहालय बन चुका है। जिसमें वह अपने होने का अतीत टटोलते हैं। कोई बाहरी उस अतीत में नहीं झांक सकता। जब तक हम सामने वाले वर्तमान को पूरी तरह नहीं समझ लेते या वह हमें अपने वर्तमान में प्रवेश की अनुमति नहीं देते हमें उनके अतीत को छूने का कोई हक नहीं। वर्तमान को अकेला छोड़ अतीत में नहीं जाया जा सकता। शायद यहीं कारण है कि उसे बिना महसूस किए दीवारों पर जमी दर्शन को अपने भविष्य की कल्पना से पोंछ देते हैं।
क्वार्टर नंबर
6-A 182 मुझे यह अब भी याद है। जो भविष्य में
6-A 265 तक का सफर भी तय किया। कालोनी के सभी मकान लगभग एक हीं रंग-ढंग के थे। जब मैं पहली बार भटका था तो मुझे कहा गया था .. कोई भी पूछे तो यह नंबर उसे बता देना। वो तुम्हें सही पते पर पहुंचा देगा। मैंने पहली बार सब्जी का स्वाद इसी क्वार्टर में चखा था। मैं हर रोज भोजन करते समय रोता रहता। सब्जी की कड़वी सच्चाई गले से नीचे नहीं उतरती थी। आज मैं करैली की कड़वाहट गटक जाता हूं। जीवन की भी। लेकिन तब के मीठे बचपन में मैं
दादा हो दादा कहकर रोता।
मानों आंखों से निकलते नमक से जीवन में मिठास बनी रहेगी। दादा का चेहरा ठीक-ठीक पिताजी के चेहरे के आसपास की रेखा से सजाया हुआ है। नाक को अगर नजर अंदाज कर दें तो सघन समानता देखी जा सकती है। पिताजी का बूढ़ा होना दादा के बूढ़े होने के साथ जिया जा सकता है। उनके साथ जब मैं मोटरसाइकिल से गांव जाता था तो उनके कुर्ते से वहीं समान खुशबू नथूनों तक पहुंचती थी।
वो सामने आकर बैठते और मैं उन्हें देखकर रोते-रोते खाने लगता। फूफा जी को अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ती। धीरे-धीरे इस कड़ी में पींकी दीदी ने भी हिस्सा लिया। निचे पडाइन आंटी की बड़ी लड़की। मुझे हमेशा यह उम्मीद रहती कि यह मुझे इस संकट से बाहर निकाल लेंगे। लेकिन वह मुझे और सरलता से सब्जियों के फायदे गिनाने लगते। मेरे शारिरिक सैष्ठव को निशाना बना मुझे फिर से अकेला छोड़ देते।
मैं ऐसा अकेला नहीं था। कोई और भी वहां थी जो मेरी उपस्थिति से अपने विपत्ति को काटना चाहती थी। वह
क्यों रो रही हो के प्रश्न में और तेज-तेज रोती। मैं उसके चुप होने का कारण कैसे बना यह मैं आज भी ढूंढ रहा हूं।
उस उम्र की शून्य तार्किक शक्ति में मैं सिर्फ वहां बैठ सकता था। वेदप्रकाश आचार्य जी की छोटी लड़की
सोनू उसकी रूदन से उपजी ज़िद में मुझे उसके सामने बैठना होता था। मैं दादा या पिंकी दीदी की तरह उसे कुछ समझाता नहीं था। मुझमें वह ज्ञान और धीरज भी नहीं था। मैं मात्र उसके रोने में अपने चुप होने का दुख साझा करता था। मेरे वहां आते हीं वह चुप हो जाती और मैं बिल्कुल शांत। मैंने पहली बार जली हुई घी के साथ चीनी वहीं खाई थी। बढ़ते उम्र के साथ मैं सब्जियां निगलने लगा और वह हंसने लगी। दोनों के दुख लगभग एक शांत जीवन का हिस्सा बने।
मुझे आसपास के सभी दया और आश्चर्य की दृष्टि से देखते थे। दया, क्योंकि मैं छोटा था और मां-पिता से दूर। और आश्चर्य यह कि मैं प्रसन्न था। मेरे एकांत में भी आंसूओं के लिए स्थान नहीं था।
लेकिन आंसू आए। और आंसूओं से मेरे भीतर जो सिढ़न पैदा हुई उसने मेरे जीवन को एक समय तक जर्जर बनाए रखा। जब तक मैंने साहित्य के मजदूरों से उसकी मरम्मत नहीं कराई। मैंने जब भी जीवन में सूखापन महसूस किया है अच्छी पुस्तकों और लेखकों ने मुझे सींचने का कार्य किया है।
थोथू
थोंथ एक शब्द होता है। जानवरों के मुंह के लंबे हिस्से को थोंथ कहा जाता है। और मुझे थोथू कह लोग अपना और अपने साथियों का मनोरंजन करते थे। उपहास उड़ाते थे। यह नाम मुझे किसने दिया इसके जबाब से मैं अब तक अनभिज्ञ हूं। यह मेरे अस्तित्व से कैसे जुड़ा? शायद यह प्रागैतिहासिक रहा होगा या प्राक्रतिक जो मेरे साथ चला आया होगा। यह शक्तिनगर तक कैसे आया मुझे यह भी नहीं पता। मुझे याद है गांव से केवल मैं मेरे बाल में कुछ जुएं और बाबा चले थे रास्ते में बारिश मिली थी। बारिश को हवा ने सूखा दिया था। जूएं फूआ रोज मेरे बालों से निकालती थी और बाबा वापस घर चले आए थे। लेकिन थोथू कहीं नहीं था।
थोथू नहीं तो ।
थोथू के थोथ पर चांची से कोने जाईब।
पहले इस थोंथ की लंबाई कम थी। घर के दो कमरों और चार छतों से अचानक यह लंबी यात्रा पर निकल पड़ा। पार्क और स्कूल की भीड़ में गुलाटियां मारने लगा।
फिर भी मेरे धैर्य ने मुझे आक्रामक नहीं बनाया था। फिर सामाजिक भीड़ ने मेरे धीरज की दीवार को तोड़ दिया। अंकित नरेंद्र वर्मा जब उसने पार्क में मुझे कहां थोथू कहीं का। तो मेरे क्रोध ने उसे चोटिल किया।
शाम को जब वर्मा आचार्य जी गुस्से से सने हुए अंकित का बैट लेकर बरामदे में पहुंचे तो मैं बिल्कुल डरा हुआ था। पुत्र प्रेम में क्रोधित वो मुझे मारना चाहता थे। उस रोज उन्होंने मुझे पहली बार घर ना होने का अहसास दिलाया था। ऐसा मारूंगा की भाग जाओगे वापस घर उस दिन मुझे पहली बार आभास हुआ की यह मेरा घर नहीं है। उनके क्रोध ने मुझे तो अनुशासित किया लेकिन उनके स्वयं के लड़के को और मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया। उसकी शरारतें बढ़ती गईं।
मैं अब अनुशासित हो गया था। और अनुशासन के पालन में मैं सिर्फ रोता रहता था। हिंसक कभी नहीं रहा। फूफा जी का कहना था उन्हें रेडियो मान लो।
विविध भारती है,विविध भारती
मान लिजिए की टेप है। टेप बोलता है तो आप चुप रहते हैं ना? मैं तब इस बात की गहराई नहीं समझता था। मैं उन्हें बहुत कमजोर और हारा हुआ मानता था। मैं मानता हूं वह उसे अपने डर से समाप्त कर सकते थे। लेकिन डर जैसी अस्थाई अवस्था जीवन को सूखा कर सकती हैं उसे लंबे समय तक सजीव रखने के लिए डर की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक संवाद के जबाब में व्यक्ति मन से खाली होता जाता है।
आज जीवन के इस पड़ाव पर अतीत में झांकता हूं तो पाता हूं कि यह कितना अद्भुत है। क्योंकि यह एक तरफा नहीं है। लचीला नहीं है। कमजोर के लिए अलग और संपन्न के लिए अलग। विपन्नता और संपन्नता को एक तराज़ू में तौलने जैसा है। सभी के लिए समान दृष्टि। दुर्बल के समक्ष प्रस्तुत आत्मसम्मान शक्तिशाली के समक्ष भी उसी रूप में प्रदर्शित होता है। उन्होंने आत्मसम्मान और आत्मसमर्पण की महीन झिल्ली को पारदर्शी बना दिया है। बिल्कुल सौम्य,साधारण और सरल व्यक्तित्व। भौतिक संसार के शिल्प से मुक्त आत्मीय संसार। वह अपने आसपास कितनी ऊर्जा बिखेर पाए यह मेरे लिए कभी प्रश्न रहा हीं नहीं। मैंने उनसे बहुत कुछ प्राप्त किया है। यह हमारी नीजि नैतिक जिम्मेदारी है कि हम भविष्य में क्या लेकर प्रवेश करेंगे। अतीत की कितनी धूल हम देह से झाड़ेंगे।
हरिओम के उद्घोष में सारे क्रोध,हिंसा,पिपासा को समाप्त कर देना साधारण नहीं है। सौम्य लोगों को दुनिया आज भी कमजोर मानती है जब तक सामने वाला उसे अभय दान ना दे डाले।
मैं उस समय रेडियो नहीं होना चाहता था और अब रेडियो का समय कितना पिछे छूट गया है? मैं यहां कानपुर में हूं। शक्तिनगर वहीं स्थूल पड़ा रोज बूढ़ा होता जा रहा है। प्रदूषण रोज उसे मैला कर रहे हैं। मुझे उस झूंड से वर्तमान में कोई शिकायत नहीं है। कोई अभियोग मैं उनपर नहीं मढ़ना चाहता। बहुसंख्यक ऐसे हीं फैसले लेता है। संख्याबल ऐसे हीं अकेले पड़े लोगों को नियंत्रित करता आया है।
थोथ पर बैठ कर यात्रा के लिए निकले लोग क्या अब रेडियो सुनते होंगे? उनकी अपनी यात्रा में यह शब्द शायद मृत भी हो गया हो। अब तो रेडियो बहुत पिछे छूट गया है।
थोथा शब्द भी। खिलंदड़ बचपन की चंचलता को इस शब्द ने अपने जंजीरों में जकड़ लिया था। जब मेरे क्रोध ने मुझे पूरी तरह से निगल लिया तो उन्हें मुझपर दया आई। मेरा बचपन पूरी तरह से अनुशासन की बली चढ़ता बदले की भूख में मर गया तो कहीं से शोर उठा .... अब तो इसे घर जाना है। मेरे विश्वास की हत्या करने के बाद वो झूंड विश्वस्त हो गया कि मैंने अपनी हार स्विकार कर ली है। ठीक उसी समय वह शब्द मेरे जीवन से कहीं दूर भाग गया।
या यहीं कहीं वर्तमान के खोखल में अटका है? अपने घर में जहां कोई नहीं रहना चाहता। जिस घर में बूढ़े बाबा के लड़के नहीं रहना चाहते। या मेरे जीवन के किसी खोखलेपन में वो छुपा हुआ है जो आज मेरे लिखे हुए में बाहर निकल रहा है।
सभी के भीतर खोखल है।
जैसे बूढ़े पेड़ में कोटर।
हमारे खोखल में सघन डर छुपा बैठा है जैसे पेड़ के कोटर में बिच्छू और सर्प बैठे होते हैं।
सूक्ष्म अनिच्छित घटना के घटते हीं हमारा डर हमें निगलने लगता है। जैसे अपने आरोग्य को बाधित होता देख कोटर में भारी हलचल होती है और सारा कुछ बिखरने लगता है।
ऊपर से हम कितने भी चैतन्य और सजग हो लेकिन डर का क्षणिक प्रतिबंध हमें असहज कर जाता है। गालों पर आंखों से बहता चांदी चिपकने लगता है और होंठों पर असंतोष की पपड़ी जम जाती है।
मेरे गांव के दूसरे पार अमिला धाम का मंदिर है वहां इस पेड़ पर अनगिनत लोगों की आत्मा पर कब्जा कि हुई बुरी शक्तियां कैद है। हर एक के नाम का किल इस पेड़ पर ठोका गया है। मैं उस थोथू शब्द को इस पेड़ में कैद करना चाहता हूं। हर एक पहचान के बाद पेड़ सूखता जा रहा है। मालाएं और चूड़ियों भारी संख्या में हवा के साथ हिलते पेड़ को उन शक्तियों का याद दिलाती हैं। मानों उनसे कहती हैं कि तुम्हारे जड़ों में हमारी आत्मा है अब तुम सूख चुके हो। बुरी शक्तियां न दिखते हुए भी अपना प्रभाव प्रबलता से समाज में बेखेरती है। और समाज उसका आलिंगन करता है। मैं उस आलिंगन से दूर भागता आया हूं। और उस दूर भागने में जब मैंने घर को घर जैसा बनते देखा ठीक उसी दौरान पिताजी की मृत्यु ने घर को खंडहर में बदल दिया। पूरा घर मानों एक चौकी के निचे सिमट आया था मां वहीं चौकी के निचे स्वयं को समेटी रहती। मानों रोशनी से कोई दुश्मनी हो। जैसे प्रकाश ने हीं उससे सारा कुछ छीना हो। या उस वैधव्य को छुपाने के लिए अंधकार की आवश्यकता थी। जिस श्रंगार को प्रकाश ने मूल्यहीन बना दिया था। देह से पसीने की नदी फूट पड़ी थी। गालों पर चांदी की पपड़ी हमेशा जमी रहती। बालों में लट पड़ने लगे थे। आंसूओं ने आंखों को कुंआ बना दिया था। धीरे-धीरे वह कुंआ सूखता गया बीतते दिनों में सिर्फ सूखी आवाज गले को छीलते हुए बाहर निकलती। जवांइडिस हर महींने उसे और बिमार करने के लिए शरीर से चिपक जाता। जब सभी को घर का सूनापन निगलने लगा था उस वक्त मां ने चौकी के निचे अपना संसार बसा लिया था।
चाची के समर्पण ने घर को पुनः विस्तृत किया और नेहा की चंचलता ने आंगन को वापस जीवित। मां को किसी बच्चे की तरह आंगन में लाकर बैठाया जाता। मां जब अपने पुराने दिनों को याद करती है तो मात्र इतना हीं कहती है। कुछु रहे घर में? एतना मेहनत कर के घर बनल और जब सुख करे के समय आइल तो.... इस वाक्य के बाद आंसू जीत जाते और बचे हुए शब्द उसमें धुलते रहते। अब मां ने उस चौकी के आसपास गृहस्थी बसा ली है। सभी सुख और दुख के पलों में यह स्थान सारी आपूर्ति का केंद्र बना रहता है। सारी जरूरतें इसी स्थान से पूरी होती हैं। विवाह के श्रंगार से अन्नप्राशन की भूख तक सारा कुछ इस जगह ने पूरा किया है।
घर सिर्फ शब्दों से अलंकृत एक ढांचा है। वास्तव में घर कभी पूर्ण होता हीं नहीं। वह सदैव अधूरा रहता है। हमारे वहां ठहरने और निकल जाने के बीच के अंतराल में वह बदलता रहता है। हमारे जन्म और मृत्यु के ठीक बीच में वह मात्र हमें अपने होने का भ्रम परोसता है। यह मेरा घर है यह कानूनी पन्नों पर लिखा हुआ हिसाब किताब है। संपत्ति मात्र। जिसे हमनें घर माना है। घर कहा है वह कब तक हमारे गृहस्थ जीवन को दिशा देगा कोई नहीं जानता। यहां सभी पलायित हैं। हर दूसरी से तीसरी पिढ़ी अपने घर आवश्यकता, जीवन शैली के ज्ञान और तरीकों के अनुसार बदलती आई है। विपन्नता भी स्थान परिवर्तन का मूल है। सभी भागते हुए जिस जगह विश्राम करने को ठहरते हैं वहीं घर है। जहां हम लौटकर वापस आते हैं वहीं घर है। कमरों से आरंभ होता सफर मकान से होता हुआ घर तक पहुंचता है। जैसे मेरे पूर्वज बलिया से मिर्जापुर आए और मिर्जापुर खुद सोनभद्र बन गया। ठीक वैसे हीं स्वयं घर की, घर के बाद की भी एक यात्रा होती है। उसी यात्रा में हमसे हमारा घर छूटता है।
घर जीवन और मृत्यु के मध्य की यात्रा का पराधीन और क्षीण साक्षी मात्र है।
मीनू के विवाह में जब मैं शक्तिनगर गया था तो अपने सबसे खुबसूरत और पहले घर को देखने की इच्छा हुई थी। मैं उन गलियों में दुबारा पहुंचा था। मुझे इस बार क्वाटर नंबर हीं नहीं रास्ते भी कंठस्थ थे।
6-A 182 विद्युत विहार कालोनी, शक्तिनगर सोनभद्र उत्तर प्रदेश प्रकृति की हथेली पर बसी एक सजीव रेखा जो रोज बूढ़ी हो रही है। जैसे चमड़ी हड्डियों को छोड़ने लगती है ठीक उसी प्रकार प्लास्टर झर रहे हैं मकानों के। जंगली वृक्ष की तनाएं टूटकर मिट्टी हो रहीं हैं। उन्हीं के मध्य इस कमरे के
दरवाजे के कोने पर उस निशान को मैंने दूबारा से देखा जो हमारे निश्चिंत नींद की देन थी। बने हुए के निशान में टूटा हुआ व्यापक उपलब्ध था। बनने के बाद भी टूटा हुआ जिंदा था। जिसकी सांसें वहीं सुन सकता है जिसने उसका भग्न और निर्माण होना दोनों देखा हो। क्षतिग्रस्त सिढि़यो पर हमारे कूदने के निशान नहीं थे लेकिन उनका टूटना वहां अब भी बचा हुआ था। उस छूटे हुए में हमारा कैवल्य छलांगें मार रहा था। बाल्कनी को देखकर मुझे उस रात्रि की ओलाविष्टी याद आई जब लगातार बारिश और तेज आंधी से त्राहिमाम करते कस्बे को फूफा ने बाल्कनी में पहसूंल फेंक शांत कर दिया था। बादलों के तेज गर्जन आकाशीय पुंज को उनके
अगस्त मुनी ... अगस्त मुनी के जयघोष ने को मौन और निश्तेज कर दिया था। चेचक के महीन दानों को निम और कपूर ने इसी कमरे में सोख लिया था। अब ऐसे चमत्कार नहीं होते या यूं कहूं बचपन की आंखों पर मोतियाबिंद चिपक गई है। वो चुन-चुनकर चित्रों को आंखों में उतारती है। आश्चर्य की लोलुपुता इतनी धुंधली और कमजोर हो जाती है कि यथार्थ कल्पना को निगलने लगता है। पीले रंग का दरवाजा आज भी उतना हीं ताजा था। मन हुआ एकबार दरवाजा खटखटा दूं तभी स्मृतियों के मैला होने का डर मुझे खखोरने लगा। शायद यहीं कारण था कि मैं यहां अकेला आया था। सिढि़यो की रेलिंग जहां से हम
शाकालाका बूम-बूम सिरीयल के संजू की तरह फिसलते थे वो नज़र आए। सघन मौन पसरा हुआ था। उस मौन में मुझे अपने बचपन की पुकार सुनाई दे रही थी। मैं भीतर से गीला हो रहा था। मैंने अपनी पुरानी चिख भी सुनी थी। चिख से ठीक पहले का शब्द भी मेरे कानों में उतरा था। कुछ पिघल रहा था मेरे भीतर जो इस उम्र तक कठोर बनता आया था। सोनू का रोना दरवाजे के बाहर कूद रहा था। लेकिन मैं इस बार उन आंसूओं में फिसलने के डर से नहीं रूका। मुझे अब सिसकियों से भी डर लगता है। बर्माइन आंटी के सिरियल की आवाज भी कानों में बजी थी। अंकित उनसे उस शोर के बीच, विज्ञापन के इंतजार में खाना मांग रहा था। मेरे सामने छत का रास्ता खुला था। निचे के घर से बाहर निकलकर सभी आस-पास के बच्चे छत पर घर-घर खेलते थे। खुले आसमान में खेलते हम कैसे एक उम्र के बाद छतों की आड़ में छुपना चाहते हैं। जीवन का वास्तविक स्वरूप जहां घर-घर खेलने के लिए असीम आकाश छोटा पड़ जाता है और घर बनाने के लिए ससीम जगह भी बहुत बड़ी।
मैं कुछ देर तक वहां ठहरा हुआ सारा अतीत पीता रहा। आसपास बसे लोगों के नाम मुझे आज भी स्मरण हैं। सभी के द्वारा अपनाए जाने की भूख से बीमार हुआ बचपन मेरी आंखों में किरकिरा रहा था। ऊंगली का स्पर्श पाते हीं सारा अतीत गालों पर लुढ़क आया। मैं बहुत जोर से चिखना चाहता था। फिर चुप रहा। मैं अपने हिस्से की चीख, मुस्कुराहट से बहुत पहले जी चुका हूं। बीते दिनों में जो शोर अनसुना था उसे आज भी कोई स्थान नहीं देगा यह मैं जानता हूं। सिर्फ ऊसर नहीं रहा था मेरा बचपन लेकिन अथाह प्रेम और स्नेह के नदी में यह काई हमेशा जमी रहती। जिससे उत्पन्न निराशा और क्रोध ने मुझे भीतर तक कमजोर बनाए रखा। मैं अपने भीतर कुछ मृत होता महसूस कर रहा था। शायद यहीं कारण था कि मैं किसी भी समूह का हिस्सा बन जाना चाहता था। अपने ठीक-ठीक को लेकर सभी के साथ उपस्थित रहना चाहता था। लेकिन मेरी यह भूख हमेशा अधूरी रही। उस कस्बे की अंतिम यात्रा में भी। काश हमें यह सुविधा होती कि भोगे हुए दुख और निराशा को चुन-चुनकर हम अपने वर्तमान से नोच डालते। सिर्फ हरे पत्तों और टहनियों का वर्तमान लिए हम आगे बढ़ते। पर क्या यह संभव है अपने जिये हुए को नकार पाना? अतीत की गहरी जड़ों को जीवन से उखाड़ फेंकना?
अरे तुम पीयूष हो ना?
मेरी आंखों में अभी भी पानी का धूंधलापन था। अतीत का सोता जो कभी भी फूट सकता था।
जी, आंटी प्रणाम कैसी हैं आप? चंदू कैसा है ,कहा है आजकल? यह सुरेंद्र आचार्य जी की पत्नी थीं। समय ने उनकी पहचान को मेरे लिए थोड़ा धुंधला कर दिया था। लेकिन बचपन की चंचलता में मेरा जीया हुआ अब भी पूरी तरह सूखा नहीं था। उसमें थोड़ी नमी अब भी बरकरार है।
मैं डरा हुआ अपनी आंखों को छुपा रहा था कि कहीं वह मुझे मेरे स्मृतियों में ना पकड़ लें। कहीं वह झरना ना फूट पड़े जो अभी के दर्शन से आंखों में फैला है। मैं वहां से निकलना चाहता था। मैं आसानी से निकल भी आया।
बहुत दिनों बाद दिखे बेटा। वो तो इलाहाबाद गया हुआ है।
अभी बंगाल में हूं आंटी। शादी में आया हूं। मैंने लगभग शब्दों को चबाते हुए अपनी बात पूरी की। वह भीतर सुरक्षित महसूस कर रहे थे।
छोटे ठहराव के बाद मैं वहां से दूर निकल आया। जैसे चंदू अपने घर से इलाहाबाद। मैं बंगाल।
इन सारी उहापोह में तैरता हुआ जब मैं नागेंद्र को लेकर उनके घर पहुंचा तो वहां ताला लगा हुआ था।
का मनोज भाई कहां गए?
दिल्ली महाराज।
नागेंद्र अपने हिमांचल प्रदेश के गांव जा पहुंचा है। अब वो उसे घर बुलाता है। या कह सकते हैं, उसके अस्तित्व में नौकरी और गांव की दूरी इतनी कम हो चुकी है कि वह उसे घर बुलाने लगा है।
मैं अभी गांव और शहर के बीच बनते बिगड़ते घरों में अपनी थकान मिटा रहा हूं। यह घर का हो जाने की और घर होने की लंबी यात्रा है।
बूढ़े बाबा दिल्ली के घर में या मकान में या शहर में.... कहां ठहरें हैं? जब भी उनसे मुलाकात होगी उनसे पूछूंगा।
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जिन मित्रों,सहयोगियों तथा निज जीवन के प्रेम पात्रों को यह जानने की उत्सुकता है कि क्या यह सत्य है? क्या यह ठीक-ठीक ऐसा हीं घटा था? यह फिक्शन है या नान फिक्शन?
जीये हुए का दर्शन जब भीतर फूटता है तो वह सत्य रूप में ही मन की भूमी पर उतरता है। विचारों का गुणा-भाग जब अंदर चहलकदमी करता है ठीक उस समय वह अपनी सत्यता और प्रमाण के सवालिया घेरे में खींचता चला आता है। मैं अपने लेखन में स्वयं को सदैव सत्य के इर्द-गिर्द रखना चाहता हूं। इससे मुझे मेरा नंगापन भी साफ दिखाई देता है। अपनी क्रूरता और विलासिता से हमें लंबी लड़ाई लड़नी होती है। मैं अभी नाम बदल दूं तो आप कहेंगे यह नान फिक्शन है। मैं, मैं के उच्चारण की तरह कोई किरदार आपके सामने परोस दूं तो भी आपका यहीं जबाब होगा। निजी लेखन में सच या झूठ जैसा कुछ होता हीं नहीं। लेखन स्वयं से निजी संवाद होता है।
आप इसे पढ़िए। यह आपका भी स्वयं से निजी संवाद सिद्ध होगा। बहुत सी आदतें ऐसी होती हैं जिनसे हमें निकलने में कठिनाईयां झेलनी पड़ती है। प्रेम का अंकुर किस क्षण हमें संतुष्ट कर देता है यह उसी संतुलन का भाव है। यह सभी पढ़ने वालों की यात्रा है।