सफरनामा

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Kanpur, Uttar Pradesh , India
मुझे पता है गांव कभी शहर नहीं हो सकता और शहर कभी गांव। गांव को शहर बनाने के लिए लोगों को गांव की हत्या करनी पड़ेगी और शहर को गांव बनाने के लिए शहर को इंसानों की हत्या। मुझे अक्सर लगता है मैं बचपन में गांव को मारकर शहर में बसा था। और शहर मुझे मारे इससे पहले मैं भोर की पहली ट्रेन पकड़ बूढ़ा हुआ गांव में वापिस बस जाउंगा।

Sunday, April 16, 2023

पूर्णिमा स्वर्ग में रहती है

मैं अक्सर अपने बचपन की यात्रा करना चाहता हूं। खुद को देखना चाहता हूं। अपने दोस्तों से मिलना चाहता हूं। क्योंकि उस समय के दोस्त भी वर्तमान में दोस्त नहीं लगते। जो साथ में साइकिल पर बैठ शहर नापा करते थे। बारी-बारी साइकिल खींचा करते फिर थककर कहीं खाली पेट भर अंजुली पानी पिया करते थे। उनकी भी धारणा मेरे प्रति ऐसी हीं होगी। मैं कभी अपने स्कूल के मित्र गौरव, महेश्वर,बादल, अरविंद, नितेश,राकेश रंजन किसी से बात करता हूं तो आज के दिनों की बात नहीं करता। विद्यालय के दिनों की बात करता हूं। दोस्त वहीं बनते हैं। बढ़ते उम्र और पड़ाव में हमें दोस्त कहीं नहीं मिलते। हमें साथी मिलते हैं। सलाहकार मिलते हैं लेकिन दोस्त नहीं। दोस्ती जैसी स्वतंत्रता मैंने उम्र के किसी पड़ाव पर महसूस नहीं की। शायद यहीं कारण है कि मैं अपने दोस्तों से पुराने दिनों में मिलना पसंद करता हूं। वह भी करते हैं। हमारी बातें उन्हीं पुराने दिनों की होती है। उसी कस्बे के आसपास की जिसका कोना-कोना हमारे भीतर ऐसा बसा है जहां हम आंख बंद करके दौड़ सकते हैं। मैंने यहां चलने के क्रम में और चलते जाने के क्रम में खुद को खड़ा पाया है।


 "उन सभी के लिए जो साथ हैं"


पूर्णिमा स्वर्ग में रहती है

छठवीं कक्षा की बात है। नरेंद्र तिवारी और चितरंजन गिरी दोनों मेरे अच्छे वाले दोस्त थे। चितरंजन नहीं है लेकिन आज भी मेरा दोस्त है। नरेंद्र है लेकिन दोस्त है या नहीं यह मैंने कभी उससे नहीं पूछा। पिछली बार मिला था तो दोस्त की तरह मिला था जैसे बाकी के दोस्त मिले थे। पूर्णिमा की खूबसूरती को मैंने चांद के आसपास देखा था कहीं अपने सपने में या कक्षा में बैठे ख्यालों में। उस दिन से जिस रोज नरेंद्र ने उसके स्वर्ग में रहने की बात कही थी। चितरंजन बोलता था वह कोयले के बीच बसे एक कस्बे में रहती है। उसके पिताजी उसे कोयले में खुद को रोज खर्च करते हैं। लेकिन उसकी खूबसूरती को देख हमने उसकी बात का खंडन कर दिया था। फिर चितरंजन ने रजिस्टर से उसके घर का पता निकाला और हमारे सामने रख दिया। वो सच में कोयले के कस्बे में रहती थी। नरेंद्र ने चितरंजन को देखते हुए कहा मेले पापा बिदली के बीच में लहते हैं इसलिए मैं तमकता हूं‌। लेकिन इथके पापा तो कोयले के बीत में लहते हैं फिर ये कैसे तमकती है? चूतिया हो क्या एकदम ? तोतला साला। कोयले से हीं तो बिजली बनती है। और हीरा भी समझे चितरंजन ने डांटते हुए उसे कहा। तुम भी इसी लिए चमक रहे हो क्योंकि उसके पापा कोयले में खर्च होते हैं। मतलब हर चमकती हुई और सुंदर चीज के पीछे कोयला है? मैंने चितरंजन से पूछा। नहीं पूर्णिमा के घर के पीछे कोयला है। उस कोयले से हीरा निकलता है। जो हीरा उसके पिताजी को मिली थी। उन्होंने चुपके से वो हीरा घर लाकर पूर्णिमा को दिया था। उसी की चमक उसकी देंह से चिपक गई है। वो हीरा हमेशा अपने पास रखती है। एक दिन प्रार्थना सभा में सभी छात्र शामिल थे। दूसरी ओर कक्षाचार्या ममता बहन जी के मदद से सभी बच्चों को बस्ता जांच किया गया पूर्णिमा के बैग से कुछ सामान बरामद किए गए जो विद्यार्थी और विद्यालय दोनों के नियम के पक्ष में नहीं थे। नरेंद्र धीरे-धीरे बोल रहा था हीला मिल गया ...हीला मिल गया... पूर्लिमा के बस्ते से हीला मिला है हीला। मैंने कहा हीरा तो उसके पास रहता है बैग में नहीं। चितरंजन ने भी साथ दिया। लेकिन नरेंद्र अपनी बात दोहराता रहा... हीला मिल गया भाई मेली बात मान वो चमक लहा था बिल्कुल बादथाह फिल्म वाले हीले की तरह। उसके बाद पूर्णिमा कभी स्कूल नहीं आई। मैं रोज उस आकाश की ओर देखता जहां पूर्णिमा बैठती थी। वहां सिर्फ ग्रह नजर आते थे। नरेंद्र अपनी जांघ पर गंदे इशारे करते हुए बोला देखा कहा था हीला स्कूल वालों को मिल गया है इथलिए वो अब स्थकूल नहीं आती। क्योंकि उथका हीला खो दया है। वो काली हो दई होदी। हीला जिथके पाथ होता है वह गोला हो जाता है। तेरे पास कौन सा हीरा है तोतले? चितरंजन ने गुदगुदी करते हुए उससे पूछा। मेरे पाथ आईना है भाई। मैं उथमें खुद को देखकल गोला कल लेता हूं। हम तीनों उस आसमान की ओर देखते हुए हंसे जहां पूर्णिमा बैठती थी। वह दोबारा विद्यालय कभी नहीं आई। लेकिन मैं उसे सपने में आकाश में उड़ते हुए देखता। सपने में मैंने एक रात देखा जैसे कक्षा पृथ्वी है, पूर्णिमा चांद और सभी साथ पढ़ने वाले तारों की तरह उसके आसपास टिमटिमा रहे हैं। फिर एक लंबी गोली करवट लेते हीं मैंने खुद को कक्षा में पाया जहां ममता बहन जी हाथ में छड़ी लिए सभी का बस्ता जांच रहीं थीं। और उन्होंने तेज आवाज में कहा सभी बच्चे अपने बैग खोलकर रखो। पता है ना पिछले दिनों पूर्णिमा के बैग से आईना मिला था। आज किसी के पास कुछ मिला तो बहुत मार पड़ेगी। इतना सुनते हीं हम दोनों नरेंद्र पर हंसने लगे। उसके बाद नरेंद्र कभी स्कूल नहीं आया। कुछ दिन बाद उसके भाई राघवेन्द्र ने बताया कि उसका आईना टूट गया है। कुछ दिन के बाद राघवेन्द्र ने भी विद्यालय आना छोड़ दिया। पूर्णिमा को दोबारा फिर किसी ने नहीं देखा। 

थाला थाका लाका बूम बूम

सूर्योदय बुक स्टाल शक्तिनगर की सबसे प्रसिद्ध किताब की दुकान। छोटे शहर में हालांकि हर चीज प्रसिद्ध होती है लेकिन सूर्योदय बाकी सभी से अधिक प्रसिद्ध था। 
जैसे मिठाई के लिए सत्कार और यादव मिष्ठान भंडार। कपड़े के लिए रवि ड्रेसेस। फोटो के लिए पप्पू फोटो स्टूडियो। एक कारण यह भी था इन सभी दुकान वालों के बच्चे अपने विद्यालय में अध्ययन करते थे। इनके अभिभावक को विशिष्ट अभिभावक का दर्जा प्राप्त था। मिठाई और किताब के लिए आचार्य जी के श्री मुख से इन्हीं दुकानों के नाम बाहर कूदते थे। और इन सभी से अलग रवि ड्रेसेस ने अपनी दुकान के प्लास्टिक थैला पर लिखा रखा था "मम्मी.. मम्मी चलो ना रवि ड्रेसेस" और यह एक पंक्ति लंबे सड़क को छोटा कर देती थी। एक बनियाइन लेने पर भी दुकान के मालिक द्वारा ५ पन्नी भेंट की जाती थी। मानों जैसे पूरे शहर में रवि ड्रेसेस का प्लास्टिक का थैला फैला हुआ है। सब्जी से लेकर कपड़ा तक उसी थैले में लाया ले जाया जा रहा था। इसी बीच एक खबर उड़ती हुई विद्यालय की ओर पहुंची "संजू का पेंसिल सूर्योदय बुक स्टाल पर आ गया है" 
संजू का पेंसिल "साकालाका बूम बूम" वाले संजू का पेंसिल जिसके ऊपर एक आकर्षक मुखौटा हुआ करता था। जिससे बनाई हुई हर वस्तु वास्तविक हो जाती है। अब कोई भी संपन्न परिवार का बच्चा नटराज की पेंसिल नहीं खरीदता था। नटराज अब गरीबों की पेंसिल थी। नरेंद्र अमीर था उसने संजू की पेंसिल खरीदी। लेकिन छोटे मन से रबर बनाने के लिए कुतरता गया। उस पेंसिल में कोई जादू नहीं था। फिर उस मुखौटे को वह नटराज के पेंसिल में लगाने लगा। वह तब भी अमीर था। अमीर दिखते हुए उसने बोला "तंदू की पेंथिल..तंदू की पेंथिल थाले तूतीया बनाते हैं तीबी वाले औल वो दुतान वाला भी थाला तोल है" थाला थाका लाका बूम बूम 
संजू के झूठ से हम उबर हीं रहे थे कि दूसरा प्रसंग सभी के कानों में कूदा गया। "रिक्की प्वाइंटींग" के बल्ले में स्प्रिंग था" 
वर्ल्डकप मैच के फाइनल में आस्ट्रेलिया अच्छी तरह जीत गया था उस जीत में भारत की हार से हमारे बीच दो महत्वपूर्ण खबर फैली हुई थी। सचिन को सोने का बैट दिया गया है और रिक्की प्वाइंटींग के बैट में स्प्रिंग है। हां बे पापा बोल लहे थे घल पल की इसके बैत में स्प्लंग है। नरेंद्र ने जोर लगाते हुए उस बात का समर्थन किया। और सचिन का बैट सात करोड़ का है इसका अनुमान सभी दोस्तों ने मिलकर लगा लिया था। मैं इस स्प्रिंग वाले किस्से के साथ लंबे समय तक टहलता रहा। आस्ट्रेलिया के वर्ल्डकप हारने के बाद मैंने इस झूठ को खुद से दूर फेंका।

साले वो तुझे हीं देख रही है

हर इंसान एक ऐसे दौर से गुजरता है जब संस्कार के आगे हार्मोन्स जीतने लगता है। और ऐसा लगभग सभी के साथ होता है। फिर हम उस दौर में थे जहां हम इंसान थे हीं नहीं। इंसान बनने के क्रम में भटकते अबोध छात्र थे जिसे वो सब प्राप्त करना था जो आंखों के सामने दिख जाए। जो मन को भा जाए। उसी प्राप्ति के सफर में कुछ उसकी नदी में उतरकर उड़ने लगते हैं। कुछ उसकी टीस लिए धरती पर तैरते हैं। उड़ने वालों के पंख कमजोर होते हैं और तैरने वाला छटपटाकर शांत हो जाता है।
जिनसे में एक था शहनवाज़ जो प्रार्थना सभा में अपने सिर को हल्का झटका देकर त्रिपल बजाता था। तिरछी नज़रों से किसी को देखता हुआ इस उम्मीद में कोई उसे आकर बोले की वाह! तुम बहुत अच्छा त्रिपल बजाते हो। मुझसे दोस्ती करोगे? पर ऐसा कभी किसी ने नहीं कहा। और ना शहनवाज ने किसी से कभी कुछ कहा। उसने अपने भीतर छुपे सारे शब्दों को एक धुन में उतार दिया और पूरा सभागार उसकी आवाज सुना तो, लेकिन समझा कोई नहीं। उसके पीछे का मूल कारण यह था कि दीपक ने एक लड़की को उसे दिखाते हुए प्रागैतिहासिक शब्द कहा था जिसे हर वो लड़का सुनना चाहता है जो किशोरावस्था से बाहर कूद रहा होता है... देख तुझे हीं देख रही है बे।
ऐसे हीं बहुत से अंग्रेजी मिडियम से आए लड़कों ने हीं प्यार नाम की परछाईं सब पर बिखेर दी। पर भैया-बहन कहकर पूरे क्लास को संबोधित करने के अंधेरे में वो परछाईं गुम हो गई। सभी संस्कार की अग्नी लिए अपने भीतर उग रहे प्यार को जलाते रहे। 
कुछ लोग किसी से किसी का नंबर जुगाड़ करते रहे। प्रदीप ने तो ना जाने कितनों को घड़ी देने का वादा कर रखा था। करता भी क्यों नहीं? उसकी घड़ी की दूकान जो थी। पर उसकी घड़ी दुकानों में सजती ज्यादा और बिकती कम थी। 
कुछ को नंबर मिला नहीं और कुछ को मिला तो घर का। पर उस दौर में घर मतलब केवल पिताजी हुआ करते थे। मोबाईल और सीम दोनों के दाम की सीमा इतनी ज्यादा थी कि उसे पार कर पाना सभी के बस की बात नहीं। इसलिए हर हाथ में फोन नहीं हुआ करता था। सिमित हाथ की उंगलियां सीमित समय के लिए तेज गति से सक्रिय हुआ करतीं थीं। तब मिनट का नहीं सेकेंड का दौर था। अब घंटों का दौर है। कुछ सेकेंड को अपनी ऊंगली पर नचाते वीर विद्यार्थियों ने प्रयास भी किया पर एक रूखी आवाज ने प्यार के फूल को मुरझा कर रख दिया। तब आज जैसा नहीं था। चिट्ठी भी डाकिया घर के बड़े को हीं देकर आता था। 
कुछ पिछा करते-करते घर तक जा पहुंचते। क्वाटर नंबर देख आते और खुशी से झूम उठते इतना कि साइकल का हैंडल छोड़ हवा में उड़ने लग जाते।
4D56 शायद सभी ने याद कर रखा था। और आज भी बहुतों को है।
जो कुछ नहीं कर पाते थे वो वहीं शांत होकर नजरें चुराए एक दूसरे को देखते रहते। उन रिश्तों का असल में कोई नाम नहीं है। पर नाम इनका भी जरूर होना चाहिए। जो तेरी वाली, मेरी वाली मुहावरों से मुक्त होते हैं। सबसे अंजान खुद में कहीं कुछ ढूंढते हुए। इस उम्मीद में " कि साले वो तुझे हीं देख रही है"

अबे थुनो पेंथिल के थिलके को दूध में उबालने थे लबल "मितौना" बनता है।

शिशु
प्रथम
द्वितीय तक की पढ़ाई में सभी साफ-साफ बोलने की लड़ाई अपने जिह्वा से लड़ रहे थे। और लिखने की लड़ाई में पेंसिल से। कुछ उसमें सफल हुए। और कुछ नरेंद्र जैसे अब भी साफ बोलने की लड़ाई में सामने वाले से लड़ रहे होंगे। जब मैं पिछली बार मिला था तो आवाज़ में थोड़ी सफाई थी। पेंसिल स्वच्छ लिखने का हथियार हुआ करता था आचार्य जी कहते मोती जैसे अक्षर बनाने का प्रयास करो। देखो मृगेंद्र के अक्षर वर्ग "ख" में पढ़ता है मोतियों जैसे बनते हैं। मृगेंद्र एक बार विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में विवेकानंद बनाया गया था। उसका चेहरा वास्तव में उनसे मिलता हुआ दिखाई दे रहा था। मैंने महसूस किया उसका सुलेख विवेकानंद बनने के बाद सुधरा था‌। इसलिए मैंने विवेकानंद पर भाषण दिया कि मेरे भी अक्षर में सुधार होगा। मैंने अंतर महसूस भी किया। उस प्रतियोगिता में मुझे पुरस्कार के तौर पर पेंसिल बाक्स और रबर मिला था। पेंसिल का जोर इसलिए दिया जाता क्योंकि तीसरी कक्षा से पेन से लिखना आरंभ होता था। इसी बीच नरेंद्र ने विशिष्ट खोज की घोषणा की। 
अबे थुनो पेंथिल के थिलके को दूध में उबालने थे लबल "मितौना" बनता है। यह बात चर्चा का विषय बना रबर बनाने के आविष्कार में २ रूपए की पेंसिल को दोनों ओर से छीला जाने लगा। मैंने भी अपनी पेंसिल को आविष्कार की आंधी में उड़ा दिया। उसके अवशेष किताबों के बीच इकठ्ठा किए जाने लगे। लड़कों की पेंसिल छोटी होती गई और किताब मोटी। कुछ लड़कों ने आविष्कार को आगे बढ़ाते हुए उसे दूध में उबाला और एक तीखी गंध का आविष्कार कर अपने रूपए हवा में उडा़ दिए। एक अफवाह और उड़ी की पंकज के घर के सामने रबर बनाने वाले पेड़ का पत्ता है। कुछ दोस्त उस पेड़ को देखने गए लेकिन उनकी पीठ पेंसिल के इतनी जल्दी खत्म हो जाने के सवाल से ज्यादातर बच्चों ने रबर के आविष्कार में अपने अभिभावक से ऐसा आशीर्वाद प्राप्त किया था कि किसी की हिम्मत उस पत्ते को तोड़ने की नहीं हुई। 
ऐसी हीं दूसरी अफवाह लड़कियों की ओर से शोर करती हुई फैली कि मोर के पंख को काॅपी के बीच में चाक के साथ रखने से मोर की पंखुड़ियों बड़ी हो जाती हैं। इस शोध ने विद्यालय की चाक के खर्चे को दोगुना कर दिया। बच्चों के बैग के भीतरी हिस्सों में चमचमाता हुआ सफेद ताजमहल बनने लगा। लेकिन पंखुड़ियां ठीक वैसी हीं पन्नों के मध्य उनमें दबी रहीं। मैं प्रमाणित करता हूं/करती हूं कि इस उत्तर पुस्तिका के एक भी पृष्ठ बर्बाद नहीं करूंगा/करूंगी। इसे स्वच्छ रखने का हर संभव प्रयास करूंगा/करूंगी के संकल्प से दूर वह इन आविष्कारों को अपने साथ लिए रद्दी की दुकानों पर नए सत्र के आरंभ में तौली जाती रही। जो वापस कालोनी में बदाम पट्टी और मुंगफली वाले अपने बेचे गए सामान के साथ हमें वापस दे जाते थे।

गुलाब का फूल
इकलएयर्स का काफी
पेंसिल बाक्स
और ना जाने क्या-क्या...

कोई मुझसे पूछे कि तुम्हारा सबसे प्रिय मित्र कौन है? तो मेरा जबाब चितरंजन होगा। जिसे सभी चितु बुलाते थे। जिससे अक्सर आचार्य जी द्वारा पूछा जाता , तो बेटा चितरंजन... चितरंजन का नाम सुना है? वह खड़ा होकर जोश में कहता जी आचार्य जी चितरंजन में रेल कारखाना है। और दांत दिखाकर हंस देता। चितरंजन अब इस दुनिया में नहीं है उसकी हंसी और बेहतरीन बातों को मैं अब भी अपने आसपास देख पाता हूं। बिल्कुल पुराने दिनों जैसी। निश्छल,शांत और सौम्य। जब तक वो मेरे इस संसार में था हमारी हर तीसरे दिन बात हुआ करती थी। उसके चले जाने के कुछ दिनों तक मैं उसे अपने बिल्कुल करीब पाता था। उन दिनों में जहां हम साथ घूमा करते थे। चिल्का झील में स्कूल से सभी दोस्तों के साथ वह भी था। अंतिम मुलाकात शक्तिनगर के इंडियन काफी हाउस में हुई थी। मैं उसे हमेशा अपने वर्तमान में देखता हूं। वर्तमान में मैंने चितु का के लिए मेरे संसार में घर बनाया है जहां वह नहीं रहता लेकिन मैं जब भी वहां जाता हूं उससे मुलाकात हो जाती है। जिस मुलाकात को मैं बुढ़ापे तक देखना चाहता हूं जहां हम साथ में थकें। 
मुझे लगता था वह किसी बड़े रियासत का मालिक है। क्योंकि गिरी परिवार के बहुत से लोग शक्तिनगर में देखने को मिलते थे। आज भी हैं।उसके बाबा के मूंछों ने मेरे इस भ्रम को और ज्यादा सघन किया था। लेकिन एक बार भटकते हुए मैं उसके घर की ओर पहुंचा जहां की स्थिति उसके देंह से पहचान पाना मुश्किल थी। गिरी परिवार किन्हीं रियासतों का मालिक नहीं अपने हीं घर में कई बार विस्थापित मजबूर आम भारतवासी था जिसने औद्योगिक विकास की जहरीली हवा को सबसे ज्यादा अपने भीतर ग्रहण किया था और सबसे अल्प उस विकास से लाभान्वित था। चितरंजन मेरा सबसे अच्छा दोस्त इसलिए था क्योंकि मेरे उम्र का होने का बावजूद उसकी समझ मुझसे ज्यादा थी। वो चंचल था लेकिन सधा हुआ। शरारती था लेकिन मौन की परिधि से परिचित। छोटा था लेकिन बड़ों के बीच अच्छी पैठ थी। पढ़ाई में ठीक-ठाक था लेकिन बुद्धि का प्रखर। उसने सारे कार्य सीमा में रहकर किए लेकिन प्यार कि उसने जीवन के वृत से बाहर कूदकर किया। बिल्कुल स्वतंत्र मन से। और अंतिम समय तक उससे करता रहा। हमारे अंतिम बात में उसके वयस्क होने के बाद का प्रथम प्रेम शामिल था। अपनी प्रेमिका को वह तरह-तरह के उपहार भेंट किया करता। 
डायरी
पेन
गुलाब का फूल
इकलएयर्स का काफी
पेंसिल बाक्स
और ना जाने क्या-क्या...
लेकिन प्रेमिका इस बात से सदैव अंजान रही। या अंजान रहने का नाटक किया? चितरंजन उसे नाटक कहता था। शायद यहीं कारण था कि एक वर्ष विद्यालय में आयोजित रक्षाबंधन के कार्यक्रम में प्रेमिका में हाथ में खुद के लिए राखी देख वह घबराया था और बांधे जाने पर उसके आंख के कोने में पानी जमा हो गया था। हिम्मत कर उसने राखी को कलाई से दूर किया और प्रेमिका के आंख से जलप्रपात फूट पड़ी। जिसके फूटते हीं चितरंजन पहाड़ों सा पिटा। उसके भीतर से प्रेम की मिट्टी को अनुशासन प्रमुख द्वारा निकालकर गमले में भरा गया और चितु को बंजर किया गया। अगली सुबह उस गमले में गेंदे के फूल का पौधा लगा था।
चितरंजन के साथ मैंने जीवन को बहुत करीब से देखा था। प्रेम में पड़े चितु को अनुशासन प्रमुख बंजर नहीं कर पाए क्योंकि उसने प्रेम करना सीखा नहीं था। प्रेम कहीं उसके आत्मा में बसा हुआ था‌। गमले में लगे फूल को देखकर हम दोनों ने साथ में एक फिल्म देखी थी। गुरुदत्त जी की कागज के फूल मुझे उस समय वह ज्यादा समझ नहीं आई लेकिन चितरंजन उस फिल्म को देखने के बाद अक्सर यह कहते सुना गया कि दुनिया माधरचोद हया राजू जान जाया इहै सच बाटे। 
मैंने कुछ दिन पहले कागज के फूल दोबारा देखी फिर समझ पाया कि उसकी सोच कितनी निविड़ थी। मैंने भी फिल्म पूरी करके वहीं बात दोहराई जो चितरंजन ने दोहराई थी। 
पहली गंदी अंग्रेजी फिल्म भी मैंने उसी के साथ देखी थी जिसमें और भी दोस्त शामिल थे। उसके पहले मैंने अंग्रेजी फिल्मों में टाइटेनिक, स्टूवर्ट लिटिल और स्पाइडर मैन देखी थी वो भी हिंदी भाषा में। विनय सेठ की व्यवस्था में हमनें झूंड में पहली बार नंगी अंग्रेजी फिल्म देखी। बादल, अरविंद, कार्तिकेय, अनूप,गौरव,महेश्वर, अभिजीत और भी दोस्त उस रहस्य को एक साथ समझ रहे थे जिससे विनय ने परिचय कराया था। वो सभी को समान अनुपात में समझ में आयी थी। फिर विनय ने सभी को वासना ने बारे में समझाया। वो हम सभी से इन मामलों में कहीं अधिक ज्ञानी था। अंग्रेजी मीडियम में पढ़ता था यह भी एक कारण हो सकता है। उसे छोड़ हम सभी हिंदी मीडियम से थे लेकिन उस फिल्म की अंग्रेजी सभी को समझ आई थी। सभी ने देंह में अजीब सी गुदगुदी महसूस की थी। सभी ने अपनी टांगों के बीच पहली बार कुछ अलग महसूस किया था। जो उस स्थिति का प्रथम था। मानों जैसे सभी अचानक से पहले से ज्यादा बड़े हो गए हों। बढ़ते समय में भागते हुए सभी बड़े होने लगे लेकिन हम सभी के बड़े होने में और चितु के बड़े होने में अंतर था। हम अपने लिए बड़े हो रहे थे और चितरंजन समाज के लिए। हमारे बड़े होने में घर की बातें थीं उसके बड़े होने में कस्बे की। हम नौकरी के लिए लड़ रहे थे वो जीवन के लिए लड़ रहा था। उस लड़ाई को वह अधूरा छोड़ बहुत दूर हमारे बीच बस गया।
जिसे ढूंढने के लिए गूगल नहीं करना पड़ता। फोन नहीं देखना होता। फिल्म कागज के फूल देखकर चितु की बात दोहरानी पड़ती है । गमले की कैद मिट्टी को आजाद करना पड़ता है। खुद के बचपन से बात करनी होती है। फिर उस बचपन का पहला चेहरा चितु होता है।

WWE

वैसे तो बहुत से चैनल घरों में प्रवेश कर गए थे। कुछ सीरियल के जहां टी.वी. एक किरदार बाल्टी भर-भर रोता था। फिर हर घर की माताएं उसपर चर्चा करती थीं और शाम को कालोनी की भीड़ पार्क में पहुंचती जहां कुमकुम के पति और अपर्णा के प्रेमी को पार्क में पलथीमार बैठकर दमभर गरियाया जाता था। तुलसी के पति मिहिर को प्रेम किया जाता। उन्हीं पर शाम के समय बच्चों के लिए सोनपरी
साकालाका बूम बूम
बिकराल घबराल
शरारत 
करिश्मा का करिश्मा जैसे धारावाहिक आया करते थे। जिसे देखने के लिए बच्चों को अपनी हर शरारत के साथ अभिभावकों के समझ बैठकर समझौता करना होता था। सभी धारावाहिक का संजू और फ्रूटी बनना चाहते थे लेकिन किसी के भी जीवन में नाहीं वो जादुई पेंसिल थी ना हीं अलतु अंकल और सोनपरी। सभी भूत से डरते थे लेकिन कभी कोई बिकराल उन्हें बचाने नहीं आया। इस दुनिया से अलग एक स्पोर्ट्स चैनल हुआ करता था टेन स्पोर्ट्स जो हमारी उम्र के सभी लड़कों को आकर्षित करता था। जहां शाम को WWE का चैंपियनशिप आया करता था RAW और SMAKEDOWN जिसमें दो पहलवान आपस में नंगे बदन मृत्यु के करीब पहुंचने तक लड़ा करते थे। 
JBL
HHH
ADIGARARO
REM MISTERIO
BADHIATA
KHANE
THE EDGE
BIG SHOW
JOHNSINA
THE ROCK
CATENGLE
जैसे और भी उनमें एक नाम था UNDERTAKER जिसके बारे में नरेंद्र ने पहली बार चर्चा करते हुए यह खबर दिया की अंडलटेकल दो बाल मल के जिंदा हुआ है। उसके बाद से सभी दोस्त अंडरटेकर का खेल देखते। उसका मरना देखते। उसका जीना देखते उससे डरते फिर उसकी बातें आपस में किया करते। फिर एक दिन हमनें देखा की एक चौड़ी छाती, लंबे बाल वाला खिलाड़ी जय मां काली का उद्घोष कर अंडरटेकर को खून बकने तक मार रहा है। लेकिन उस दिन अंडरटेकर मरा नहीं हारा था। अगले दिन अंडरटेकर ने उस आदमी को खून निकलने तक मारा जिसका नाम द ग्रेट खली था। बड़े होने पर जानकारी मिला की वो सारा कुछ सुनियोजित हुआ करता था। सारा कुछ पहले से तय हुआ करता था। लेकिन इस बार यह खबर नरेंद्र ने नहीं न्यूज़ चैनल द्वारा पता चली। शायद नरेंद्र को भी अब जानकारी होगी कि अंडरटेकर कभी मरा हीं नहीं। वो सब झूठ था।

थाला कौन हलामी जूता कात लहा है 

आज के समय में मैं जूता पहनने के लिए खरीदता हूं। उसके आते हीं उसे तुरंत अपने पैरों से चिपका लेता हूं और कुछ कदम चलता हूं। स्कूल के दिनों में जूते खरीदने के दो उद्देश्य हुआ करते थे। पहला उसे बचाने का और दूसरा उसे बचाते हुए पहनने का। उसे बचाने का भार उसे पहनने से अधिक हुआ करता था। गुरमीत सिंह हमारी कक्षा में हमारे साथ पढ़ा करता था। उसके पिताजी की जूते की सबसे बड़ी दुकान थी। उस दुकान में कस्बे के सबसे लंबे आदमी के जूते भी आसानी से मिल जाते थे। लगभग पूरा विद्यालय सरदार जी के दुकान से जूते खरीदता था। स्वदेश कंपनी के काले और सफेद जूते। काले गुरुवार को छोड़ हर दिन पहनने होते थे और सफेद गुरूवार को। नए दिखते जूते को लोगों की नजर लग जाती थी। किसकी? इस सवाल का जबाब ना हीं किसी प्रश्न पत्र में पूछा गया ना हीं किसी ने इसका ज़बाब देना उचित समझा। हमें चेतावनी अवश्य दी गई की नए जूते पहनकर स्कूल में नहीं जाने हैं। क्यों? का जबाब यह था कि नए जूते शरारती बच्चों द्वारा काट दिए जाते हैं। अफवाह यह भी उड़ी की गुरमीत उन जूतों को काट देता है ताकि उसके दुकान की बिक्री बढ़ती रहे। ऐसी अफवाह मीनू साइकिल स्टोर को लेकर भी उठी थी जब कस्बे में साइकिल चोरी में तेजी आई थी। सभी कहते थे वहीं खुद साइकिल चोरी करता है उसके पास सभी ताले की चाभियों हैं। चोरी करके वापस वह उन्हें नए पेंट करके बेचता है। साइकिल का मेरी नज़र में कोई साक्ष्य नहीं लेकिन जूते का ठीक-ठाक उदाहरण नरेंद्र था। उसके नए जूते किसी ने ब्लेड से काट दिए थे। नरेंद्र ने क्रोध की आवाज में शुद्ध गालियों का प्रयोग किया था थाला कौन हलामी जूता कात लहा है बहिनतोद? उसके बाद कक्षा का हर बच्चा नए जूते पहनने से डरता था। लेकिन चितु ने एक रोज विद्यालय में प्रवेश करने से पहले अपने नए जूते को मिट्टी से नहला दिया और निश्चिंत होकर बैठा रहा। उसके जूते किसी ने नहीं काटे। उस दिन से सभी नए लेकिन गंदे जूते पहनकर स्कूल जाना शुरू किया। आधी उम्र भविष्य में झोंक चुके अभिभावकों को चितरंजन ने कुछ नया सिखाया था। इस घटना के बाद गुरमीत हमारा और भी सच्चा दोस्त बन गया।



Sunday, April 9, 2023

मैं निर्दोष नहीं हूं

मेरा अतीत निर्दोष नहीं है। क्योंकि मैं निर्दोष नहीं हूं। मैंने जब भी अतीत का दौरा किया है तो अपनी गलतियों को वहां डरा हुआ उपस्थित पाया है। उन गलतियों का कोई साथी नहीं। जिन दोस्तों ने मेरे साथ गलतियां की थी उनकी गलतियां भी वहां नजर नहीं आती। शायद यहीं प्रागैतिहासिक युग का सच है जहां गलती में हम अकेले होते हैं। और सही में वो सभी शामिल होते हैं जो हो सकते हैं। वर्तमान में भी मेरे मित्र हैं। गलतियों में मेरे मित्र हैं या नहीं इसका ठीक-ठीक निर्णय मैं नहीं ले सकता। मेरे लिए कोई भी फैसला करना किसी नाराज व्यक्ति से संवाद करने जैसा प्रतीत होता है। जहां मैं चुप रहना पसंद करता हूं। सुनना पसंद करता हूं। मैं उस डर से संवाद करना चाहता हूं। उसे कहना चाहता हूं यहां हर कोई दोषी था। सामने रेंगते सपने। दूर दौड़ती भीड़ सभी अपने झूठ को लिए दूर भागे थे। मैं भी भागा था‌ आगे भी भागता रहूंगा। सभी भागते हैं सभी अपने झूठ को बीते दिनों के कमरे में बंद कर आने वाले दिनों की ओर भाग रहे हैं। यह भाग दौड़ हमारी मृत्यु तक चलती रहेगी। जब हमारी देंह पर मृत्यु तैरती हुई नजर आएगी तो हम सभी ठहर जाएंगे। लेकिन तुम्हें अतीत में ऐसे डरकर स्वयं के वर्तमान को कष्ट देने की जरूरत नहीं है। मैं अक्सर सोचता हूं कि वर्तमान की पीड़ा को अतीत के डर से संवाद करने को कहूं। कहता भी हूं लेकिन वर्तमान की पीड़ा का सत्य मुझे डरा देता है। वह डर मुझे मेरे अतीत के डर से भी ज्यादा डरा हुआ मालूम पड़ता है। क्या यह उन दिनों में की गई मेरी गलतियों की हीं पीड़ा है जो उस वक्त भीतर कहीं दबा हुआ था? जो अब तक गीला हुआ मेरे देंह से चिपका रहा? क्या वो डरी हुई गलतियां अतीत के धूप में सूखकर हीं वहां छूट गई जो मुझसे डरे हुए मिलते हैं? इन्हीं प्रश्नों के साथ चलता हुआ मैं,वर्तमान की गलतियों की पपड़ी कब छूटेगी? के ज़बाब में घटने वाले अतीत को जी रहा हूं। जिसे मेरे साथ वाले मेरा वर्तमान कहते हैं। अच्छे दिनों में मुझे लगता है कि सिर्फ मैं डर रहा हूं। जिससे मेरा वर्तमान कांप रहा है। लेकिन मेरे डर का डरना मैंने अतीत के दरवाजे पर भटकते हुए महसूस किया है। मैं अक्सर इस भय के साथ उस दरवाजे को नहीं खटखटाता हूं कि कोई बड़ी ग़लती उस दरवाजे को खोलकर मुझसे संवाद ना कर बैठे। मेरे पीड़ा से संवाद का दुख मैं सहन कर सकता हूं लेकिन साक्षात दर्शन मेरे लिए संभव नहीं। संभव मेरे लिए यह भी नहीं कि मैं लिखूं लेकिन बोलने की क्षमता को मेरी गलतियों ने कैद कर लिया है और कलम में स्याही अभी उतनी बची है जितनी अतीत के झरोखे को संभाले स्याही वाले कमरे में स्याही।



Sunday, April 2, 2023

भविष्य ने जीवन की हत्या कर दी थी


मैं जीवन जी रहा हूं।
क्या मैं सच में जीवन जी रहा हूं? 
या जीवन रेखाओं के पीछे भाग रहा हूं। 
उन रेखाओं के जो किसी और ने खींच दी है। रेखाओं के पीछे तेज कदमों से चलता मैं भविष्य की ओर भाग रहा हूं। जबकि मेरी इच्छा है कि मंथर गति से रेंगता हुआ हाथ में एक लकड़ी लिए किसी पगडंडी पर अपने जीवन की रेखा खींचता हुआ आगे बढूं। फिर वापसी में उन्हें मिटाता हुआ अतीत के झरोखे से घर के अंदर अपने जीवन को देह में चिपकाए कूद जाऊं। और पूरे जीवन को घर में बिखेर दूं। 
पर क्या ऐसा संभव है? जीवन को घर में बिखेर पाना? 
जीवन मेरा दोस्त था। जिसे अतीत में भविष्य ने मेरे गांव में बहने वाली नदी
किनारे लगे ऊंचे पहाड़ से नीचे फेंक दिया था। पानी में छटपटाते जीवन को नदी निगल गई थी। भविष्य ने जीवन की हत्या कर दी थी। तब से मैं जीवन नहीं जी रहा, वर्तमान जी रहा हूं। जो अस्थाई है। मेरे लिखे में भी। मेरे कहे हुए में भी। फिर भी मैं जीवन को कैद करना चाहता हूं। उन दरवाजों को जाती हुई पगडंडी पर रेंगता हुआ जिससे होते हुए नदी की रेत वहां तक लाई गई थी। जिससे लोगों ने अपने घर सजाकर मजबूत मकान बनाया है। कभी-कभी लगता है जीवन इन मकानों में रहने लगा है।

पुराने हो चुके खंडहर जो कभी घर हुआ करता था। वहां सभी अपने कहे जाने वालों के घर थे। उसे मैंने कभी नहीं देखा। बड़े कहते हैं उसमें जीवन रहता था। मुझे अभी भी खंडहर के सामने जिंदा कुआं देखकर लगता है जीवन उसके आसपास भटक रहा है। तभी हर मुख्य त्यौहार पर गांव वाले अपने मकान से उस खंडहर किनारे कुएं पर दिया लेकर पहुंचते हैं। शायद उस दिन उसकी हत्या नहीं हुई थी उसने अपनी सांसें रोक रखी थी और हर घर में अपनी सांसें जोड़ता हुआ उन्हें मकान बनाता गया। और नदी सूखती गई। नदी का सूखापन भी वर्तमान नहीं रहता। हर रोज थोड़ा परिवर्तन साफ नजर आता है लेकिन उसका हरापन सिर्फ बाढ़ के दिनों में जीवन को कष्ट देता है। जीवन अपने भूख और भागने को संतुलित नहीं रख पाता। भूख का असंतोष और भाग जाने का डर लिए वह नदी को ऊंचे पहाड़ से देखता है और नुचे हुए पहाड़ को और नोचने के लिए भागता है। 
क्या मेरे लिए वर्तमान को घर में बिखेर पाना संभव है? नहीं मेरे लिए वर्तमान और जीवन दोनों को अपनी देंह से चिपकाकर घर में बिखेर पाना संभव नहीं। भविष्य की निविड़ भूख हर क्षण वर्तमान को निगल रही है।  जहां भविष्य वर्तमान के पीछे नहीं भाग रहा अपितु वर्तमान जो प्रतिपल परिवर्तनशील है भविष्य के पीछे भाग रहा है। उस भविष्य के जिसने जीवन की हत्या की है। या जिसके कृत्य से जीवन ने भविष्य की जगह लेकर वर्तमान को खोखला किया है।

Wednesday, March 8, 2023

हमनें दोस्ती का नशा किया था


देश हो या धर्म इन्हें रंग,भाषा, संस्कृति में विभाजित नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा बचपन से पढ़ता आया हूं। नंगी आंखों से पढ़े जितना देखने का सौभाग्य अभी भी प्राप्त नहीं हुआ। जैसे आज होली है। सभी मदमस्त हैं। कुछ रंग के नशे में कुछ भंग के नशे में। कुछ ने क्या नशा किया है यह अब भी विचारणीय है। 
बचपन में पढ़े हुए का दर्शन भी उसी उम्र की परिधि में होता है। बच्चे अपने अभिभावक से वात्सल्य का नशा प्राप्त करते हैं। वह तब तक इसके आदि रहते हैं जब तक उन्हें समृद्धि का किनारा नजर नहीं आता। किनारा नजर आते हीं वो हिंसा,अवसाद और लालच का चप्पू तेज-तेज चलाने लगा जाते हैं। वह चप्पू उन्हें संपन्नता के किनारे तक नहीं लाती लेकिन अहंकार के रास्ते पर निस्संग छोड़ देती है। 
सामाजिक विद्वेष से अनुभवहीन बालक त्यौहार की नजर से प्रेम का नशा किया हुआ, संस्कार का पालन करते हुए रंग खेलता है। नए कपड़े से नई मिठाई तक में उस दिन को जीता हुआ आगे बढ़ता है। त्यौहार के दिन नशा करना आवश्यक होता है यह बात किसी किताब में नहीं लिखी गई है। अबोध बच्चे हीं किताब में लिखी बातों का अक्षरशः पालन करते हैं। बड़ों की किताब किसने लिखी है? इस बात से मैं अंजान हूं। शायद किसी ने कही होगी। क्योंकि कहे का असर लिखे से ज्यादा होता है। कहना सबसे सरल और अप्रमाणित होता है। बोली गई बातें स्वत: प्रमाणित होती है। 
इसी प्रमाणिकता को सिद्ध करते ठंडई पीने वाले इतने ठंडे हैं कि वो भांग पीकर भंगडई करने वाले लोगों से अंजान हैं। शरीर पर कीचड़ मला जा रहा है या मोबील कुछ भेद नहीं। कुछ हैं जो बंद कमरे में ठर्रा टिका रहे हैं। बाहर होली की हुड़दंग है या दिवाली की रोशनी इस ऊहापोह से इतर मदिरा में पावन डूबकी ले रहे हैं। इन सभी संचारी भाव से विभक्त गांजा प्रेमी आंखों में लालिमा लिए अपनी अलग होली मना रहे हैं। 
काशी और वृंदावन के बीच एक शहर है अलीगढ़ वहां मस्जिद तिरपाल से ढके जा रहे हैं। ढकने वालों ने कौन से विशेष प्रकार का नशा किया है यह शोध का विषय है। कारण यह है कि मस्जिद के दीवारों पर रंग की बूंदें भी ना चढ़ जाए। और एकता,अखंडता, संप्रभुता का भाषण देने वाले और न्यूज़ चैनल पर बैठकर दार्शनिक सा ज्ञान बांटने वाले सदैव धर्मनिरपेक्षता का नशा करने वालों ने आज मौन का नशा किया है। सभी चुप हैं। अब उन्हें एकता से डर लगने लगा है। अवार्ड वापसी वाले ज्यादा कुछ नहीं बोल रहे बस पानी के फिजूल खर्ची का दबे जुबान में ज्ञान दे रहे हैं। मेरे कई मुस्लिम दोस्त हैं। इरफान और हकीम के साथ मैंने हॉस्टल में सर्ट फाड़़ होली खेली थी। शायद हमनें दोस्ती का नशा किया था इस कारण हमारे धर्म को ठेस नहीं पहुंची थी। हमनें एक दूसरे के पूरे देंह को रंग दिया था।मंदिर, मस्जिद,भगवा, हरा सारा कुछ हमारे देंह पर अतरंगी सा चिपका हुआ था। ऐसा हमनें अपने चश्मे से देखा था। किसी मानवशास्त्री, धर्म रक्षक की दृष्टि से देखते तो शायद इन विषयों पर बहस कर रहे होते। उस दिन भी देश धर्मनिरपेक्ष था। आज भी है लेकिन उसका नशा करने वाले लोगों के लिए देश एक पिचकारी है जिसमें वो अपने पसंदीदा रंग भरते हैं और देश की जनता को रंग भागते हैं। कुछ दिन छिपे रहते हैं फिर अचानक से बेशर्म सा बेशर्म रंग लिए बकबकाते नजर आते हैं।

Sunday, March 5, 2023

बड़ा पुत्र पिता को अधिक प्राप्त करता है

हर व्यक्ति और वस्तु का नाम तय होता है और उम्र निश्चित होती है। स्थान की सजीवता जीवनपर्यंत रहती है। एक व्यक्ति थे जिन्हें लिखकर मैं उनके आसपास भटकने लगता हूं और फिर उस लिखे को पढ़कर उनके पास बैठ जाता हूं। उनसे संवाद करता हूं जो उनके जीवित रहते नहीं कर पाया। कुछ बातें जो बचपन में उनसे कहनीं थीं उन्हें बार-बार दोहराता हूं। आज के पलों की कही जाने वाली बातें उनसे कहता हूं। अपने खालीपन को भरने का इससे सुंदर और शांत तरीक़  मैं अब तक नहीं ढूंढ पाया। घर के पीछे खड़े मौन पहाड़ों पर जाकर पिताजी की आवाज को सुनने का प्रयोग मैं अक्सर करता हूं। फिर बेचैन सा एक स्थान पर आकर घूमने लगता हूं। जो मेरा घर है। जिसे पिताजी ने अपनी हिम्मत,मेहनत,थकान,समझ और धन की सहायता से निर्मित किया था। एक वस्तु थी जो पिछले महीने तक है की स्थिति में गराज के कोने में एक तरफ दोनों स्टैंड पर खड़ी थी। केवल खड़ी थी। उसका उपयोग नई मोटरसाइकिल आने के बाद लगभग बंद हो गया था। । मुझे आज भी याद है बजाज के स्कूटर को पास के कस्बे विंढमगंज में सस्ते दाम पर बेचकर यह नई टीवीएस की मोटर साइकिल आई थी। पिताजी ऐसे फैसले अक्सर अकेले हीं लिया करते थे। लेकिन उससे प्राप्त खुशियों में सभी शामिल हुआ करते थे। बिल्कुल मिठी शांत आवाज में बातें करती यह मोटर साइकिल हमारे घर में प्रवेश करती थी। पहली रोज का प्रवेश हम सभी को आश्चर्य से भर गया था। गर्मी की छुट्टियां थीं फूआ और उनके बच्चे सभी घर आए हुए थे। मां रसोई में बड़े कढ़ाही में लौकी की सब्जी को पका रही थी। सामने रोटियों का पहाड़ रशोई में रखा हुआ था। जो कुछ देर में भूख के गड्ढे में समाहित होने के लिए तैयार था। उसीना भात की महक पूरे आंगन में फैली हुई थी। उन दिनों हम सब माड़-भात नमक बहुत स्वाद और प्रेम से खाते थे। अब उसीना भात युवा पीढ़ी के आलस का तेज नहीं सह पाती। गर्मी के कारण सभी बच्चों के हाथ में एक-एक आम था। आम चूसते हुए हम बर्फ़ पानी खेल रहे थे। निश्चिंता से कोई मैदान में पानी की तरह बह रहा था तो कोई बर्फ़ की तरफ जमा हुआ खड़ा था। उस बीच पिताजी कब नई नवेली मोटर पर सवार हुए घर आ गए किसी को खबर नहीं लगी। उनके हाथ में मिठाई का एक डब्बा सभी ने देखा था लेकिन आम के मिठास से सभी संतुष्ट थे और नई मोटरसाइकिल की जिज्ञासा ने मिठाई को नजरंदाज कर दिया था। सभी ने आप से चिपचिपे हुए हाथ को अपने कपड़ों में पोंछा और बर्फ पानी का खेल छोड़ तालाब की तरह इकठ्ठा हो गए। सभी मोटरसाइकिल के पास आकर उसे छू रहे थे। कोई उसपर बैठ रहा था और झूठा चलाने का नाटक कर रहा था। कोई मूंह से पीप की आवाज निकाल रहा था। सभी उस पर बैठकर अपने पसंदीदा जगह पहुंच जाना चाहते थे। मेरी कोई भी जगह पसंदीदा नहीं थी। मैंने उस समय तक केवल शक्तिनगर,नाना के गांव और अपने गांव तक का सफर तय किया था। और तीनों हीं जगह की उबन मेरे भीतर दबी हुई थी इसलिए मैं हर गर्मी की छुट्टी में इन जगहों से अलग जगह पर जाना पसंद करता था। अगली सुबह सूरज की रोशनी में उसकी पूजा हुई। हैंडल पर माला चढ़ाया गया। सूर्य की रोशनी में गाड़ी की चमक और हमारे आंखों की चमक दोनों बढ़ गई थी।
मोटरसाइकिल को इस स्थिति में देखकर ग्लानि महसूस हो रही थी। अपने लालच पर क्रोध आ रहा था।
पिताजी की मृत्यु ने सबसे पहले मां की तरुणाई खाई थी और भैया के बचपन को निगला था। उसके बाद उन्हीं के हाथों लगाए आम के पेड़ को दीमक चाट गई थी। हमारी हर गलती पर "बिना अभिभावक के बच्चे ऐसे हीं होते हैं" का व्यंग मेरे वर्तमान को उद्वेलित करता था। पिछले वर्ष बेल का पेड़ जिसके नए पत्ते की खुशबू से घर महक उठता था और फल से उदर की गर्मी शांत होती थी वह थक कर सूख गई। कुछ सागौन के पेड़ जिनकी उम्र १०० वर्ष होनी चाहिए थी वो पथरीले जमीन पर अपनी अंतिम सांसें गिन रहे हैं। अशोक और शिशम के पेड़ से घर की खुबसूरती में वृद्धि होती है लेकिन बिजली के खंभे और तारों के मध्य फंसे पेड़ों को देख अक्सर घर और पेड़ दोनों के समाप्त हो जाने का डर बना रहता है। भैया ने बीते दिनों बताया कि पेड़ का काटना आवश्यक है उसके दुष्प्रभाव से हर गर्मी का मौसम हमें आग के करीब लेते जाता है।यह सुन मैं कुछ समय के लिए ठिठक गया। हिचक और टीस ने मुझे अवसाद से भर दिया। मेरे लिए पेड़ का समाप्त होना पिताजी से और दूर होने जैसा है। बचपन के गर्मियों की छुट्टी में प्रतिदिन स्नान से पहले पिताजी सभी पेड़ में बाल्टी लेकर मग्गे से पानी डाला करते थे। सभी पेड़ पुराने पेड़ों की लचीली टहनियों को लपेटकर बनाए हुए डाली से घिरे होते थे। घर के पीछे खड़े बंजर और हठी पहाड़ पर भी उन्होंने डीजल और नीम के पेड़ लगा रखे थे। नीम अब भी ऊसर भूमि से अपनी लड़ाई लड़ता हुआ पिताजी की मेहनत को जीव स्वरूप में स्थित रखा है। डीजल केे पेड़ हर वर्ष धूप के दिनों में उन्मोलन के शिखर को छूते हैं और हर बरसात में लहलहाकर हरे हो जाते हैं। मानों पिताजी ने एक लंबी गहरी सांस ली हो। पिताजी ने पेड़ पौधों को अपने बच्चे की तरह सींचा था। संस्कार की जगह पानी और अनुशासन की जगह खाद का समूचा उपयोग किया था। वर्ष में एक बार सभी पेड़ों के टहनियों को खूबसूरती अनुसार काटा जाता था। मानों उनका श्रंगार किया जा रहा है। उनके मृत्यु के बाद मैैंने भी कुछ पेड़ के गांछ लगाए थे लेकिन जो जानवर की क्षुधा शांत करने में समाप्त हो गए। बचे हुए पेड़ों को खोने के डर ने मुझे और भी अकेला कर दिया है। भैया ने मेरी उदासी पकड़ ली थी। उनके दूबारा पूछे जाने को मैंने कुछ नहीं के ज़बाब से शांत किया था। मैं कुछ समय मौन रहा और फोन रख दिया। पिताजी की मृत्यु उपरांत सभी ने अपने हिस्से उन्हें समेट लिया। भैया का चेहरा पिताजी से बहुत गहराई से मिलता है। इस मामले में मैं हमेशा खुद को छिछला महसूस करता हूं। बड़ा पुत्र पिता को अधिक प्राप्त करता है। क्योंकि वह उन्हें पिता होने का सौभाग्य प्रदान करता है। छोटा पुत्र उस कड़ी में संतुष्टि को जोड़ता है। मैंने पिताजी के जीवन में संतोष को जन्म दिया था। मैंने उन्हें पिता नहीं बनाया ना हीं मां को मां। 
मैंने बस उन्हें चखा है मैंने उन्हें उस शब्द से संबोधित किया है जो वो पहले से थे। उन्हें भैया ने पहले हीं पूर्ण कर दिया था। मैंने मात्र उस पूर्णता को जड़ित किया है।
भैया ने पिताजी की घड़ी ,रूद्राक्ष और स्फटिक की माला अपनी देंह पर पहली बार लपेटा था तो पिताजी का चेहरा आंखों के सामने घूमने लगता था। कुछ दिनों के रूकावट और ठहराव के बाद भैया ने पिताजी की सारी जिम्मेदारी को अंगीकार किया। मां ने पिताजी को स्वयं में जीवित रखा था।  मैंने उनकी सारी पुरानी डायरी जिसमें वो कुछ-कुछ लिखा करते थे। जिनमें उनका स्वअध्य्यन, कुछ गीत शामिल थे। उनकी कुछ दूसरों द्वारा प्राप्त और अप्रेषित पुरानी चिट्ठियां मैंने अपने एक फाइल में लगा दी थी। उनके सभी कपड़ों को मैंने साफ़ कर घर के बक्से में बंद कर दिया था। उनकी बचपन की तस्वीर और एल्बम की सबसे खूबसूरत तस्वीर मैंने अपने पास रख ली थी जो आज भी मेरे पास हैं। घर जाने के बाद मैं हर बार अपनी डायरी के पुराने पन्ने पलटता हूं। पिताजी की फोटो देखता हूं। कुछ चित्र दीवारों पर भी सजी हुई हैं जिनके समक्ष मैं घर पहुंचने के बाद और घर से निकलने से पहले नतमस्तक होता हूं। मार्मिकता से लिखी और प्राप्त की हुई उनकी चिट्ठियां पढ़ता हूं। उन्हें वापस रख देता हूं। भीतर पड़े कपड़े को हर बार स्पर्श करता हूं उन्हें सूंघता हूं और पहनने के भाव की हत्या कर उन्हें वापस रख देता हूं। मां के प्रतिक्रिया का भविष्य आंखों में तैरने लगता है। एक पूराना कुर्ता जो पिताजी के पूजा करने वक्त अगरबत्ती से जल गया था उसे मैंने उन कपड़ों से अलग छुपा कर रख दिया है। इस योजना में कि सबसे पहले मुझे उसी कुर्ता को पहनना है। 
समय बीतते मुझे भरसक उम्मीद है कि पिताजी से जुड़ी हर वस्तु समाप्त हो जाएगी। हम सभी का भी अंत होगा। जैसे पेड़ों का जीवन अंत की ओर पहुंच रहा है। 
जैसे बड़ी गाड़ी की जगह हमनें छोटी गाड़ी खरीद ली है। 
जैसे बड़े घर से अलग, गांव से दूर शहर में हमनें एक मकान बनाया है। यह सारी क्रिया मृत्यु के करीब जाने के क्रम में बढ़ते कदमों जैसा है।
जिसके लिए हम कभी तैयार नहीं रहते। रहा भी नहीं जा सकता। मृत्यु के लिए कोई तैयार नहीं होता। अपनों की मृत्यु की कल्पना भी हमारे यथार्थ को बिखेर देती है। लेकिन हमें मृत्यु का सामना करना हीं होता है। हमारी तैयारी जीने की होती है। लेकिन मैं एक व्यक्ति को जानता हूं जिन्होंने मृत्यु की तैयारी की थी उनका नाम प्रमोद था। प्रमोद चाचा ने मृत्यु को स्वीकार किया था। स्वयं की हार में मृत्यु पर विजय प्राप्त करना कितना अलौकिक होता है यह मैंने उनके साहस को आत्मसात करके जाना। क्या हम अपने जीने के लालच को मृत्यु के सत्य के आगे समर्पित कर सकते हैं? हमनें तो हर श्वांस को मुठ्ठी मजबूत करके नाकों से गहराई से खींची है मानों संपूर्ण संसार की हवा अपने भीतर एक बार में हीं भर लेंगे। लेकिन उन्होंने उसे अपने परिवार के समृद्ध और शांत भविष्य के लिए स्वयं के आसपास भी नहीं भटकने दिया। मानों जैसे उन्होंने माया को जीत लिया हो। जैसे किसी निरंकारी संत ने जीवन के सतही ज्ञान को प्राप्त कर लिया हो। मृत्यु का सामना करने में और स्वीकारने में ठीक उतना हीं अंतर है जितना शांति चाहने में और शांत रहने में। 
एक दिन सभी शांत हो जाएंगे और उस रात कुछ भीड़ अपनों के स्थूल देंह को नम आंखों से घेरे खड़ी होगी।

Sunday, February 19, 2023

बच्चों के लिए खिलौना स्वर्ग है

मेला और बचपन दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं।
ऐसा किताबों के व्याकरण में नहीं पढ़ाया जाता। जीवन के व्याकरण में देखने के लिए, जीने के लिए मिलता है। देखते हुए या तो हम बड़े होते हैं या गरीब और जीते हुए हम बच्चे हो जाते हैं। बच्चे गरीब नहीं होते। "बच्चे" गरीब मां-बाप के बच्चे जरूर हो सकते हैं। ग़रीबी हमेशा बच्चों को स्वतंत्र रखती है फिर उनके तरूण होते हीं उन्हें निगल जाती है। फिर बच्चों का नया दौर आरंभ होता है। जवान बूढ़े होने के क्रम में एक थकी हुई उबासी लेते हैं। बूढ़े और बूढ़े हो जाते हैं। बूढ़े जब तक अंतिम सांस नहीं लेते तब तक बूढ़े हीं रहते हैं। इसी मध्य वर्ष दो वर्ष में गांव के गलियारों में हलचल होती है। धूल हवा में फैलते हुए गांव के गलियारों से निकल घरों का रूख करती है। वो धूल मेले की धूल होती है जो घर से बच्चे, बड़ों सभी को मेले की ओर खींचती है।
उस धूल को मेले में उपस्थित सभी व्यक्ति के ऊपर देखा जा सकता है। 
वो धूल बड़ों के पैर तक सीमित रहती है। चप्पलों में सनी हुई। जूते धूल से नहाए हुए नजर आते हैं। उनके साथ में घूमने आए बच्चों के पूरे देंह पर धूल को देखा जा सकता है। बिल्कुल रंगीन धूल जिसमें संसार के सभी रंग शामिल होते हैं। गरीब मां-बाप के पैरों में जूते नहीं होते। धूल उनके चप्पलों को काट रही होती है‌। मद्धम गति से जिसके साथ उनके बच्चों की उम्मीद उस घर्षण में पीसती चली जाती है। गरीब मां-बाप के बच्चों की देंह पर कोई धूल नहीं रहती। धूल उनकी आंखों में होती है। उनके सपने को सुई की तरह चुभ रही होती है। उन्हीं आंखों से वह मेला देख रहा होता है। दूसरे बच्चों के सपनों को पंख लगते देखता है। फिर असहनीय दर्द के उपज से अपने आंखों को मिच देता है फिर उसके सपनों का सागर आंखों से लुढ़कता हुआ सीने तक पहुंचते-पहुंचते कहीं गुम हो जाता है। पंख धूल में मिल जाते हैं। और धूल उन पंखों का साथ पाकर हवा में तेज गति से उड़ता जाता है।
बच्चों की भीड़ खिलौने के दुकान पर और बड़ों की भीड़ मिठाई की दुकान पर। अधिक बड़ों को भीड़ और अधिक बड़े बच्चों की भीड़ पान गुटखा के गुमटी पर दिख जाती है। 
जब मैं छोटा था,"खुद को बड़ा कहना भी अपने बचपन की हत्या करने जैसा प्रतीत होता है", जब मैं देंह से छोटा था तो आत्मा राम हलवाई अपने मिठाई की दुकान लगाते थे। जहां रसगुल्ला और बर्फी नहीं मिलती थी। गुड़ही जलेबी और लक्ठो सबसे प्रसिद्ध मिठाई हुआ करती थी। जिसके लिए उन्हें सभी खाने वालों से रूपए देने के पहले तक प्रशस्ति प्राप्त हुआ करती थी। रूपए का सही मोलभाव नहीं होने पर उनके प्रशस्ति संदेश में से कुछ मौलिक बिन्दुओं को ग्राहक द्वारा नाराजगी और चेतावनी के सम्मिश्रण से कम कर दिया जाता। 


 मिठाई के नज़र से लोगों के नज़र में आज भी गुड़ही जलेबी का हमारे गांव में प्रमुख स्थान है। लगभग सभी मेले में देखने के लिए मिल जाती है। लेकिन अब वह आत्माराम के हाथों की नहीं होती। सुना है कुछ वर्ष पहले उनका लंबे खांसी के कारण निधन हो गया है। कुछ दिनों तक बुढ़िया दुकान लगाया करती थी। स्वाद की पक्की बुढ़िया हिसाब की बहुत कच्ची थी इसलिए इतनी ढ़गी गई ग्राहकों द्वारा जितनी देश की जनता नेताओं द्वारा ढ़गी जाती है। और अंत में उसने अपनी दुकान लगानी बंद कर दी। अब वह लोगों की निजी आग्रह पर मिठाई बनाया करती है। 
पहले के ज्यादा बड़े बच्चे अब अधिक बड़े होकर नशे की सबसे ऊंची स्तर को छूने लगे हैं। गुटखे के पैकेट सड़कों पर हवा के साथ ऐसे चलते हैं जैसे हमारे देश में विकास।घूमते ऐसे हैं जैसे विकास पुरुष नेतागण। उड़ते हैं जैसे जहाज उड़ता है नेताओं के बैठने से। उड़ने के क्रम में गांजे की महक मिठाई की सिरके में पहुंचने लगी है। शायद यहीं कारण है कि आत्माराम की मृत्यु खांसते-खांसते हुई थी। कुछ का कहना है चूल्हे के धुंए से खांसी आरंभ हुई थी परंतु अंत नशे की धुंए से हुआ था। 
मेले में चंद पूजा सामग्री की दुकान जहां महिलाओं की भीड़ नजर आती है।  कुछ भीड़ श्रंगार की दुकान पर भी। स्वांग से सुहाग तक की कतार में सभी
हर्षित नजर आते हैं।
मानों जैसे मेला स्वर्ग है और घर नर्क। घर जहां बूढ़े रहते हैं। जहां अब उनका दम घुटता है। जहां मेले से निकलता शोर उन्हें विक्षिप्त करता है। उनकी व्याकुल को बढ़ाता है। गरीब मां-बाप के लिए मेला ना हीं स्वर्ग है ना हीं नर्क। उनके लिए मेला एक सजा है जिसे उन्हें गरीब के घर पैदा होने के बाद समाजिक व्यवस्था द्वारा सुना दिया गया था। 
इच्छा पूर्ति हीं स्वर्ग है। सभी के लिए इसके पैमाने भिन्न हैं। जैसे बच्चों के लिए खिलौना स्वर्ग है। बड़ों के लिए संपन्नता और बुजुर्गों के लिए सेवा की इच्छा। साधक के लिए भक्ति की प्राप्ति। 
स्वर्ग में सबसे अधिक समय बच्चों ने व्यतीत किया है। उसके अहंकार को सर्वाधिक निर्बल किया है। सुबह का स्वर्ग शाम को टूट जाता है। 

बीते दिनों गांव में रासलीला का आयोजन था। लक्ष्मी नारायण यज्ञ भी साथ में संपन्न हुआ। मेरे गांव में मेला सदैव रासलीला के साथ हीं लगता है। सोन नदी के लंबे पाट के उस पार गुप्ता धाम में एक दिवसीय शिवरात्रि मेला का आयोजन हर वर्ष होता है वहां से मेरे गांव की दूरी लगभग २ कि.मी. है लेकिन गांव का नाम बदल जाने के कारण उसे मैंने हमेशा से अपने गांव से दूर रखा है।उसका वास्तविक नाम मुझे आज भी नहीं पता सभी आम बोलचाल की भाषा में उसे उसपार कहते हैं। मैं भी उस पार कहता हूं। उस पार का गांव मेरे गांव से अधिक सुंदर है। उस पार का पहाड़ मेरे गांव से कम पथरीला और अधिक सजीव है। वहां के पेड़ मेरे गांव से कम ठूंठ हुए हैं। वहां के पहाड़ों पर अब भी जीवन संभव है। नदी उसी छोर को छूती हुई बहती है। शंकर जी का गूफा के भीतर शिवलिंग स्थापित है जहां एक प्राचीन कुआं भी है जिसके निर्माण से संबंधित जानकारियां किंवदंती हैं। प्रागैतिहासिक बात यह है कि वहां वर्ष में एक बार शिवरात्रि के दिन पूजा, आरती होती है। चमगादड़ के मलवे से पूरी गुफा बदबू करती है और दर्शनार्थियों का चलना मुश्किल। गुफा के बाकी रास्ते कहां जाते हैं यह ठीक-ठीक किसी को नहीं पता।


मंदिर तक जाने वाले रास्ते और सीढ़ियों का निर्माण पिताजी ने बाबा के नेतृत्व में कराया था इसके सबूत विद्यमान हैं। पास हीं एक हैंड पंप है जिसका उपयोग बहुतायत मेला के दिन किया जाता है। पहले लोग नदी का जल हीं पान करते थे उसी से पकौड़ियां और मिठाईयां बनाई जाती थीं। अब कैसे बनाई जाती हैं सभी जानते हैं लेकिन दुकानदार कहते हैं नल के पानी से बनाया है। उनके झूठ और सच को कभी किसी ने जानने की जरूरत नहीं समझी भगवान की भक्ति में सभी ने सहर्ष स्वीकार किया है। जैसा मेला मेरे बचपन के दिनों में भी मेला लगा करता था। उसकी अपेक्षा इस बार का मेला बहुत हीं सूक्षम और बेढंगा था। कुछ चंद दुकानें मिठाई की कोई एक पूजा सामग्री की एक कतार में लगी थीं। पहली बार गांव में चाऊमीन के ठेले लगे थे। जो बच्चों के लिए सबसे बड़ा दर्शन था। इन ठेलों पर स्वर्ग की दुकान से ज्यादा भीड़ थी। स्वाद स्वर्ग नहीं लेकिन स्वर्ग प्राप्ति की मूल इकाई है। भूख से बल और बोल से इच्छा पूर्ति होती है। 
स्वर्ग की दुकानें भी कम हीं थीं।
शायद अब स्वर्ग मोबाइल में सिमट गया है यह एक कारण हो सकता है। आज के समय में मोबाइल स्वयं में खिलौना है।मैं जब छोटा था तब मोबाइल नहीं था कुछ उम्र बीतने के बाद नोकिया के फोन आए जिसमें सांप वाला खेल था। मैं सांप से बहुत डरता था पर खेल से नहीं। लेकिन पिताजी के समक्ष खेल खेलने से डरता था इसलिए उस खेल को चुपके से खेलता था। खिलौने भी मैं चुपके से लेता था। पहली बार मैंने बचपन में २ रूपए की घड़ी ली थी। उस घड़ी को मैंने ३ दिन तक ठीक से देखा भी नहीं था। उसे हाथ में बांधते हीं समझ आया घड़ी नकली है। उसकी हर एक सुई अपनी जगह स्थित है। उसके बाद मैंने सदैव घड़ी खरीदने से पहले उसकी सभी सुईयों को एक चक्कर लगाते हुए देखने के बाद हीं खरीदता। क्योंकि मुझे अब समय खराब होने से नहीं घड़ी खराब होने से डर लगने लगा है।


#बचपन के खिलौने

लकी ड्रा 
छोटी सी गुमटी के अंदर बड़े से कैलेंडर जैसे दफ्ती में ढेर सारे आकर्षक खिलौने होते थे।
घड़ी
कार
ट्रक
किचन सेट खिलौना 
डाक्टर सेट खिलौना
प्लास्टिक की बंदूक गोलियों के साथ 
और भी बहुत कुछ। जिसे एक रूपए के टिकट के साथ आसानी से प्राप्त किए जाने का लालच दूकान मालिक के द्वारा दिया जाता था। ढ़ेर सारे टिकट एक बड़े से डब्बे में रखे रखते थे। सिल्वर रंग के टिकट को सभी सिक्के से खरोचते और सिक्के को दुकानदार के हाथ में रख देते। वह नकली उदास मुंह बनाकर उस पैसे को अपनी जेब में टिका देता। मैंने कुछ सिक्के जेब में रखकर इस खेल में रूचि दिखाई थी‌ लगभग ४ रूपए गंवाने के बाद भी मैं खाली हाथ लौटा था। वो रूपए मुझे घर से आरती में रख कर पूजा करने के लिए मिले थे। मैंने मंदिर में भगवान से मुठ्ठी भर-भर लगभग पूरे हफ्ते मांफी मांगा क्योंकि उन दिनों मैं भगवान से बहुत डरता था। मेरे जैसे तमाम लड़के अपनी किस्मत हर रोज आजमाते थे। उस लालच में बहुतों ने अपने किस्मत को हारते हुए देखा और दो लोगों ने अपनी किस्मत को जीत लिया था। क्योंकि अंतिम मेले के दिन मात्र दो पैकेट हीं उस दफ्ती से गायब थे। 
कुछ दिनों बाद पता लगा उस दुकान वाले ने पक्के का घर बना लिया है। जिसमें प्लास्टर होना बाकी है। हमारी हारी हुई किस्मत ने उसके सपने को पूरा किया था। उसका घर अब भी वैसा हीं है। इस बार के मेले में उसकी दुकान नहीं थी। वह बूढ़ा नजर आने लगा है। मरने से पहले वह लकी ड्रा की दुकान लगाना चाहता है लेकिन अब यह खेल बच्चों का खेल नहीं रहा। और वह बूढ़ा अभी भी बच्चों को यह खेल खेलता हुआ देखना चाहता है। उसे बड़ों से लुट जाने का डर है। और अब वह भगवान से डरने भी लगा है। 

जुआ का खिलौना
माचिस की बड़ी वाली डिब्बी जितनी दिखने वाले इस बक्से में एक छर्रा हुआ करता था। 
छोटी सी छोटी जेब में भी वह आसानी से फिट हो जाया करता। नींद में सपने भी उसे चलाते हुए चलते जाने के आते थे।
वृत्त को चिरते हुए विभाजित खंडों में अंक लिखे होते थे। ऊपर एक कोने में एक किल सी निकली होती थी उसे दबाते हीं अंदर का वृत्त घूमने लग जाता उसके भीतर का छर्रा उससे भी तेज गति से घुमता हुआ चटचटी आवाज के साथ किसी एक अंक पर रूकता। हम उन अंको पर अपनी किस्मत का दांव लगाते थे। अंक साथ के साथियों द्वारा पहले निर्धारित किया जाता। जितने वाले को बाकी सभी एक रूपए देते थे। उन रूपयों से कभी भी किसी ने घर नहीं बनाया। उससे सिर्फ खिलौने लिए गए। उस खिलौने का बड़ा रूप मैंने बड़े होकर एक फिल्म में देखा। #३६_चाईना_टाउन में ऐसे हीं खिलौने थे जिसे उम्र में बड़े और धन में अमीर लोग खेल रहे थे। उनमें से कोई भी भगवान से नहीं डर रहा था। क्योंकि सभी अंग्रेजी बोल रहे थे। अंग्रेजी बोलने वाले भगवान से नहीं डरते। अंग्रेजी बोलने वाले गाॅड से डरते हैं। 

वाटर गेम
आयताकार एक टीवी नुमा पतला सा बक्सा जिसमें कुछ मात्रा पानी और कुछ हवा की है। जो डंडी लगी हुई होती थी जिसमें प्लास्टिक के रंग बिरंगे छल्ले को भरना होता था। दो बटन के सहारे दोनों को उन तक पहुंचाया जाता था। 
एक समय में यह मेरा सबसे पसंदीदा खिलौना हुआ करता था। 
मुझे ठीक-ठीक याद नहीं लेकिन मैं छठवीं कक्षा में होने का दावा कर सकता हूं। शिव मंदिर में आयोजित शिवरात्रि मेला में एक दुकान की भीड़ में मैं शामिल था। हर खिलौने को साथ ले जाने की दृष्टि से निहार रहा था। उन्हें छूता था फिर वापस रख देता था। उसी भीड़ का सहारा लेकर मैं तेज कदमों से हाथ में उसे लिए खिलौने वाले की नजर से बचता हुआ, उसे हाथ में दबाए, बिना पीछे मुड़े तेज कदमों से घर की ओर भागा था‌। ठंड में पसीने से भीगता हुआ मैं तब तक नहीं रूका जब तक मेरे भीतर से दुकान वाले का डर समाप्त नहीं हो गया। उस दिन मैं भगवान से नहीं डरा था। उस रोज मुझे खिलौने वाले से डर लग रहा था। यह मेरी पहली चोरी थी। इसके पहले मैंने घर से बिस्कुट और मिठाई वगरह चुरा कर खाई थी लेकिन डरा नहीं था। मैं अपने लालच को संतुष्ट कर समृद्ध महसूस करता था। मैं इसे भी अपना लालच मानता हूं जो धन की कमी के कारण चोरी का रूप ले बैठा। धन होता तो यह मेरा शौक होता। मेरी जरूरत होती।
जब मैं रूका उसकी थोड़ी देर बाद एक लड़का मेरा नाम पुकारता हुआ मेरे पास आया। मैं सहमा हुआ उसे डर की नजर से देखता रहा‌। उसने मुझे बताया कि उसने मुझे खिलौने के साथ भागते हुए देख लिया है। वो मेरे घर के पास का लड़का था। मैं उसके बोलते हीं रोने लगा। वो मेरे बोलते हीं कुटिल मुस्कान हंसने लगा‌। मैं उससे इस चोरी के बारे में किसी से ना कहने की मांग करने लगा। अब मैं सिर्फ़ भगवान से नहीं,उस दुकानदार से नहीं, उस लड़के से नहीं सभी से डरने लगा था। जो चोरी नहीं करते थे। उस लड़के ने उस खिलौने से खेले जाने की शर्त पर अपना मुंह बंद रखने का वादा किया। 
हम दोनों अब हर दिन वह खेल साथ खेलते थे। हम तब तक बहुत अच्छे दोस्त बने रहे जब तक वह खिलौना टूट नहीं गया। खिलौने के टूटते हीं मेरा डर टूट गया। उसके बाद मैंने वह खिलौना कभी नहीं लिया। मैंने वह खेल कभी नहीं खेला। फिर कभी चोरी नहीं की। भगवान से नहीं डरा।
लालच को अब संतोष ने बंधक बना दिया है। 

वाहन वाले खिलौने
इन खिलौनों से दुकान अटे पड़े रहते थे। अब भी रहते हैं लेकिन अब उस स्वर्ग को पाने और तोड़ने वालों की संख्या कम हो गई है। 
रिमोट से चलने वाली गाड़ियां जो बच्चों को बेहद आनंद देती थी और दुकान वाले को ढ़ेर सारा पैसा। यह खिलौना संभ्रांत लोगों के घरों में घूमती थी और अब भी इस पर उन्हीं का कब्जा है। चाभी भरकर चलने वाली गाड़ियां जो चाभी भरने पर कुछ दूर आगे निकल जाती थी फिर उस गाड़ी के द्वारा तय की गई दूरी को खुद से तय किया जाता था। यह खिलौना मध्यम वर्ग के लोगों के घर तक सफर करती थी और आज भी ऐसा हीं है। तीसरे प्रकार के खिलौने में ना हीं रिमोट होता था ना हीं चाभी की व्यवस्था। बच्चों को उस गाड़ी के साथ चलना होता था। कुछ वर्ष पहले तक चप्पलों से बनी हुई गाड़ियां बच्चों के हाथ में दिख जाया करती थीं। चप्पल के पिछले हिस्से के घीस जाने पर उसे बिल्कुल गोल आकार में काट कर दोनों गोल हुई चप्पलों को एक लकड़ी के सहायता से समानांतर रखा जाता था। फिर एक लकड़ी के माध्यम से उसे चलाया जाता था। पिछे एक डब्बा साथ में लगाया जाता जिसमें बच्चे अपने हिस्से का सोना बटोरते थे। किसी टिले की मिट्टी, नदी के सुंदर पत्थर और चमकीले बालू का भंडार। कुछ नए चप्पलों को भी इन गाड़ियों के निर्माण में बर्बाद किया जाता था। पहाड़ों पर इन गाड़ियों के साथ लंबी सैर कि जाती थी। अंतिम बार मैंने यह खिलौना द्वारिका के पास देखी थी जिसमें वह अपने हिस्से का सोना बटोर रहा था। इन खिलौनों पर भारत के हर उस बच्चे का हक है जो देश की सतही और जमीनी वास्तविकता में जी रहा है और नेताओं की ईमानदारी एवं विकास वाली डिब्बी में गोल-गोल घूम रहा है। 
आज भी ऐसे हीं चलती हैं सभी गाडियां। अब भी इनका विभाजन इसी प्रकार होता है। 

मोबाइल 
एक छोटी रस्सी जिससे उसे गले में लटकाया जा सके। हर बटन के साथ एक नया गाना बजा करता था। वह हमें देश दुनिया से नहीं खुद से जोड़ा करता था। ट्रींग.. ट्रींग...हेलो के साथ दूर बैठे किसी कल्पनातीत व्यक्ति से किसी भी प्रकार की कोई भी बात की जा सकती थी। चल छैंया.. छैंया..छैंया गाना उस मोबाइल का सबसे पसंदीदा गाना था। मणिरत्नम साहब को उसकी जानकारी है या नहीं इसका ठीक-ठीक पता कर पाना असम्भव है। 
इस मोबाइल की सबसे बेहतरीन खासियत यह थी कि हम इससे अपनों से दूर नहीं होते थे। दूर कहीं किसी से बात नहीं होती थी। अपने में खोए रहते थे। और खुद को खोने से पहले वह खिलौना टूट जाता था।

रासलीला
बहुत धुंधली याद है पहले समय की। जिस समय पहली बार गांव में रासलीला का आयोजन हुआ था। "श्री हरे कृष्ण शर्मा जी" जिनकी आवाज सुनकर किताबों में पढ़ें शास्त्रीय संगीतकार को जीता हुआ महसूस किया था। 
मैं पूरी लीला के दौरान मैं कंचन भैया के पास बैठा रहता जो एक बोर्ड जैसी चीज पर अपने हाथों से करतब दिखाया करते। और उनके हाथों को चलाने के तरीके से और शोर में बदलते आवाज को सुन मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ करता। मानों वो कुछ ऐसा विशेष कार्य कर रहे हों जो कोई और नहीं कर सकता। मैं भी नहीं कर सकता। कुछ एक बार मैंने भी उसके प्वाइंट को आगे पीछे किया था लेकिन कुछ खाश कर नहीं पाया। मुझे ठीक-ठीक यहीं लगता कि आवाज यहीं से निकलती और मंच पर मंचन कर रहे लोग अपना मुंह हिला रहे हैं। पर मैंने अपनी इस व्याकुलता से उपजे सवाल को कभी उनके समक्ष प्रदर्शित नहीं होने दिया। लेकिन कुछ वर्षों बाद पता चला कि यह साउंड मिक्सर मशीन है। मंच पर बोल रहे लोग सच में बोलते हैं। यह मशीन उनके बोले हुए को सुनने लायक बनाती है। 

कंश की हंसी पर तबले की ताल का संगम सभी को मुग्ध कर देता था। मयूर कुटी में विहार करती राधा रानी कृष्ण की प्रतिक्षा में जाती और वहां श्री कृष्ण स्वयं मयूर बने नृत्य कर रहे होते। "कान्हा मोर बन आयो" के संगीत पर कृष्ण जी के नृत्य को देख लगता जैसे पूरा गांव वृंदावन में परिवर्तित हो गया है। जैसे मोर साक्षात हमारे समक्ष नृत्य कर रहा है। व्रज भाषा की मधुरता गन्ने से भी मिठी महसूस हुई थी। कुछ दिनों के लिए सभी "काहो" कि जगह राधे-राधे कहने लगे थे। बच्चे व्रज भाषा बोलने की नाकाम कोशिश करते। हर घर में कृष्ण और कंश के किरदार को निभाने की चुहल आरंभ हो जाती थी। 

कुछ किरदार आज भी मेरी याद में घर कर गए हैं जो सदैव जीवंत रहेंगे। 
अब शास्त्री जी की अवस्था वृद्ध हो चली है। आवाज़ की थरथराहट और देंह की कंपकंपाहट उनके वृद्ध होने को और भी गाढ़ी करती है। बहुत से पुराने चेहरे इस मंडली के हिस्सा नहीं हैं। कुछ हैं जिन्हें पहचान पाना मुश्किल हो गया है।


अब शास्त्री जी भी व्यास की पदवी नहीं संभालते।
इस बार का रासलीला मन को रास नहीं आ रहा था उसका मूल कारण शास्त्री जी का व्यास नहीं होना था। लेकिन एक रात की लीला में उन्हें व्यास रूप में और दूसरे रात्रि की लीला में सुदामा के रूप में उन्हें देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 
जय प्रकाश चतुर्वेदी (बाबा)

भेंट, मुलाकात मात्र एक माध्यम है हमारी उपस्थित का। हमारी उपलब्धियों का। मैं जब भी बाबा को देखता हूं मुझे उनकी लकीरें नजर आती हैं। लकीरों में संघर्ष नजर आता है। बाबा की लकीरें स्वयं में कहानियां कहती हैं। जानकारियों का गुच्छा होंठों पर कंपकंपाता रहता है। लकीरों आज भी कुछ नया करने के लिए भागती हैं। उम्र से दौड़ लगाती है। उम्र हर रोज हारता है लकीरें माथे पर थकान लिए उभर जाती हैं। यहीं थकान हर पल उनकी महानता की कहानी कहता है।


बीतते समय के साथ मैंने बाबा में कुछ खास परिवर्तन नहीं पाया। कुछ उनके कलम और सामने के बाल जो सफेद के साथ हल्के काले हुआ करते थे वो पूरी तरह अपना अस्तित्व खो बैठे हैं। और सफेद के आगे जाना अब उनके बस में नहीं। पर कुछ दिन पहले मिलने पर मैंने पाया कि सेवा करते वक्त जो लकीरें उनकी हाथों में मैंने देखा था वो वहां धुंधले पड़ते जा रहें हैं। और उन्होंने अपना स्थान बदल लिया है। उन लकीरों को मैंने उनके चेहरे के आस-पास कमजोर होती मांसपेशियों में देखा। होंठों पर मुस्कराहट होने के बाद भी उनके मस्तिष्क पर एक अजीब सा बल महसूस किया मैंने। जैसे होंठो का एक उल्टा प्रतिबिंब उनके मस्तिष्क पर जा बना हो। आंखों में चमक आज भी वैसी हीं हैं पर मानों बदलते वक्त के आधुनिक आविष्कार में उनकी चमक थोड़ी चिंतित सी है। मैंने हमेशा से उनको एक टूटते तारा जैसा महसूस किया है। जिससे हर कोई अपनी ऊम्मीद लगाता है। एक आश देखी है मैंने सभी के भीतर। और उस उम्मीद को वास्तविकता का रूप लेते हुए भी। मेरी हमेशा से यहीं धारणा रही कि बाबा पानी और धूप की तरह हैं जिसकी कमी और अधिकता दोनों ही कस्टदायक होती है लेकिन मैंने उन्हें हमेशा सत्य हीं अपनाया है। उस मीठे जल के समान जिससे सदैव मेरी प्यास बुझती आई है। और सुबह की पहली धूप के समान जो पूरे शरीर को ऊर्जाओं से भर देती है। उनका होना आशिर्वाद जैसा है जो आपको प्रेरणा से भर देता है। जब से मेरी सोच अस्तित्व में आई हैं मैंने उनकी कल्पना उस महल की तरह की है जिसके भीतर पूरा परिवार अपने जीवन को एक दिशा देने में सक्षम हुआ। और आज भी महल के हर एक कोने पर उनकी उतनी ही नजर है। अब बढ़ते उम्र को देखकर मैंने पाया निंव आज भी मजबूती प्रदान कर रहा है लेकिन छत मानों कमजोर हो चलें हैं। अब भी मैंने उन्हें अपने लकीरों से लड़ते देखा है। 


पर हर बार उस लड़ाई में लकीरें जीतती जा रही हैं और वह लकीरें धीरे-धीरे सारे शरीर पर घर बना रहीं हैं। मैंने अंतिम बार उन लकीरों को उनके शरीर से हटाकर हाथों पर लाने का प्रयास किया था पर असफल रहा। मैंने अक्सर उनसे, उनके वृद्ध होने की बात कहीं पर मानों लगता है उनकी नजर हाथों की उन लकीरों पर चली जाती होगी जिसे वो हर रोज देखते हैं और उन्हें बराबर नजर आते हैं। जिन्हें मैं बहुत दिनों बाद देखता हूं और मुझे कम नजर आते हैं। और यह नजर का हीं तो असर है सब अपने-अपने नजर से देखते हैं। लेकिन यह लिखना देखने जीतना आसान नहीं था। फिर कभी सामने दीवारों पर लगे तश्वीर जो बचपन से आजतक घर की शोभा बढ़ाते आ रहे हैं। मैंने उन्हें हाथ से साफ करने की कोशिश की तब मुझे मेरी लकीरें नजर आनी बंद हो गई और मैंने लिखना शुरू किया। लिखते वक्त मेरी नज़र हर बार मेरी लकीरों पर चली जाती थी मानों मैं अपनी लकीरों को शब्द दे रहा हूं। तभी अचानक तस्विरों के पिछे से गुजरती छिपकलियों को देख ऐसा लगा मानों वो एक अजीब सी लकीर खींच रहा हो और मैं दीवारों को एक टक देखने लग जाता। मैं रूक जाता और लगता जैसे सारी लकीरें बिखर गई हो और मैं फिर उन्हें समेटने में लग जाता। इन सभी लकीरों के मध्य सिर्फ एक हीं बात समझ में आयी कि बाबा का त्याग और सेवा किसी बलिदान से कम नहीं। उन लकीरों ने खुद को खोने से पहले बहुत कुछ पाया है। कम होते इन लकीरों को आज भी समाप्त होने का डर नहीं है। बचे हुए कुछ लकीरों को मिलाकर अगर कोई शब्द का रूप दिया जाए तो वह सेवा हीं होगा।

#विशेष
आंखों के नीचे अलसाई सी झुर्रियां। पेशानी पर उम्र की मुक्तता। आंखों में धुंधलाती हुई उम्र का संघर्ष। सफेद हो चले बालों में छुपी लंबें उम्र की यात्रा। और होंठों पर सूखी हुई ढ़ेर सारी किस्से कहानियां आपके अस्तित्व को और भी मजबूत करती हैं। आपके स्वभाव को और भी खूबसूरत बनाती हैं। मैं राजनीति से सदैव से घृणा करता आया हूं शायद तब से जब से मैंने होश संभाला। तब से जब से राजनीति और सेवा में अंतर समझा। मैंने कभी आपको राजनेता के रूप में नहीं देखा। मैं अक्सर अपने आप को इस बात के लिए भाग्यशाली मानता हूं। मेरा आपको राजनैतिक दृष्टि से देखना मुझे आपके प्रति घृणा से भर देता। जैसे मैं भगवान में लेशमात्र भी विश्वास नहीं करता पहले करता था लेकिन अब नहीं करता आप में मेरा तनिक भी विश्वास नहीं। बंगाल में समय व्यतीत करने के पश्चातभगवान के प्रति मेरे मन में सिर्फ श्रद्धा है। वो श्रद्धा मेरे भितर आपके लिए बहुत पहले पनप चुका था। वो श्रद्धा कई पन्नों पर अपनी जगह बना चुका है। मेरे पास आपसे जुड़ा कोई संदेह नहीं, किसी प्रकार का विचार नहीं कोई सवाल नहीं। इन तमाम उहापोह से इतर बस श्रद्धा है। संदेह विचार पैदा करते हैं और विचार से विश्वास की उत्पत्ति होती है। लेकिन मैं उस विश्वास में जरा भी विश्वास नहीं करता।.

वस्त्र वितरण समारोह

Sunday, January 22, 2023

कहां है आजकल?

मैं कुछ वर्ष पहले कुछ महीने इलाहाबाद में गुजार चुका हूं। 
तेलियरगंज,बैंक रोड, सलोरी इन जगहों को मैं अब भी बहुत करीब से जानता हूं। 
इलाहाबाद से मैं नाकामयाबी का झोला समेटकर भाग गया था। मेरे वहां से भागते हीं इलाहाबाद, प्रयागराज हो गया था।
सफलता की बूंदों को इकट्ठा करने की जुगत में मेरे कुछ दोस्त अब प्रयागराज में रहते हैं। जब कभी पूछता हूं कहां है आजकल? तो कहते हैं इलाहाबाद में। 
उनके लिए प्रयागराज कहना उतना हीं मुश्किल है जितना मेरा इलाहाबाद जाना।

मैं सुनना चाहता हूं

एक चुप सी जगह पर कुछ चुप से लोग इकट्ठे होते हैं। फिर साथ बैठे लोग वो जगह सब बोलने लगते हैं। चुप में लिपटा सन्नाटा हमारे बोलते हीं टूटने लगता है। उसका बिखराव चुप को तोड़ता है और हम जुड़ जाते हैं उस स्थान से। उस समय से। उस स्थिति से। एक-एक लोग बोलते हुए उठते हैं और चुप हो जाते हैं। उनके चुप होते हीं वो स्थान चुप हो जाता है। 
बनारस की भीड़ में मैंने एक चुप सी जगह ढूंढ ली है। जहां चुप बैठकर घंटों बात किया जा सकता है। 
जहां लंबी बात करके चुप रहा जा सकता है।
चुप्पी ओढ़े आप किताबों से बातें कर सकते हैं और बातें सुनते आप चुप रह सकते हैं। 
मैं सुनना चाहता हूं और मुझे कोई सुनना नहीं चाहता लेकिन मैं चुप नहीं रहना चाहता। इसलिए ज्यादातर बातें खुद से करता हूं। कुछ अधूरा सा भटकता हुआ लिखने लगता हूं।
उस बातों का असर नींद में साफ नजर आता है। मैं बड़बड़ाने लगता हूं। 
यह आदत बचपन से हैं मुझमें। बचपन में मेरे दांत भी बजते थे घर वाले मुंह में रेत भर दिया करते थे। अब मेरे दांत चुप हो गए हैं। ठंड से भी नहीं बोलते लेकिन मैं अब भी नींद में बातें करता हूं। लिखते हुए बोलता हूं। बोलते हुए सभी बोलते हैं। मैं भी बोलता हूं लेकिन कौन मुझे सुन रहा होता है यह मैं कभी नहीं जान पाया। 
सभी कहते थे रोशन को नींद में चलने की बिमारी है। वो रात की नींद में उठकर चलने लगते हैं। मैंने एक रात देखा वो चलते-चलते बोलते हैं। उन्हें चलते-चलते बोलने की आदत है। चुप होते हीं वह रूक जाते हैं। उनके चलने की भीड़ में उनका बोलना कोई नहीं सुन पाया। आज भी सभी उनके बोलने को चलना समझते हैं। 
बाबा खर्राटे लेते हैं। खर्राटे लेना बोलना नहीं होता। बाबा बोलते हैं खर्राटा थकान को दर्शाता है। या सीने पर हाथ रखने से खर्राटे तेज होने लगती हैं। खर्राटे लेते हुए नहीं बोला जा सकता। बोलते हुए खर्राटे लेने का नाटक किया जा सकता है। नाटक बोलने का भी किया जा सकता है और चुप रहने का भी। लेकिन नींद में हम जागने का नाटक नहीं कर सकते। चुप रहने का नाटक करने के लिए जागना होगा या नाटक करना छोड़कर इमानदार सोना होगा। जैसे नींद में मैं सो सकता हूं आराम नहीं कर सकता। आराम करने के लिए नींद से दूर मुझे बैठना पड़ेगा शांत, अकेला, निस्पंद। जहां आराम करते हुए मुझे नींद से समझौता ना करना पड़े। मैं आराम और नींद को अलग रखना चाहता हूं। उस आराम में सपनों की मिलावट ना हो। मेरा बड़बड़ाना उस आराम में कहीं से ना कूदने पाए। दुनिया की छुअन से दूर बिल्कुल स्वच्छ आराम। जैसे बोलना और चलते हुए बोलना। ठीक इसी क्रम में जागते हुए चुप रहने का या गहरी नींद में होने का नाटक किया जा सकता है।
मैंने बहुत से चुप लोगों को देखा है जो कभी नहीं बोलते। मुझे लगता था वो गूंगे है लेकिन वो ठीक थे। बस वो बोलते नहीं थे,शोर मचाते थे। शोर मचाने के लिए चिल्लाना पड़ता है। उन सभी को इस स्थान पर आना चाहिए वो यहां आकर बोलना और चुप रहना दोनों सीख सकते हैं। 
मैं बहुत दिन से सुनने की दिशा में आगे बढ़ रहा हूं। यहां मेरा सुनना और प्रबल हुआ है। 

#बनारस

Friday, January 20, 2023

हमें समझ होती कुछ खास चुनने की

कास हमें समझ होती कुछ खास चुनने की।
कुछ ठीक-ठाक लोगों का साथ होता ठीक-ठीठ समय पर।
तो शायद हम ठिठके ना होते असमय बिना किसी ठीक-ठाक कारण के।
हमारा सारा चुना हुआ बस एक जल्दी में चुना हुआ यथार्थ है। 
जैसे हम चुन लेते हैं सरकारें। फिर देते हैं दोष सरकार को। 
जैसे चुनते हैं हम आम जीवन के रिश्ते फिर नाराज़ होते हैं रिश्तों से।
जैसे चुन लेते हैं हम कुछ आदतें फिर बनते जाते हैं उनके गुलाम। 
सब कुछ तो हमारा चुना हुआ था ना? 
फिर दोषी कोई और क्यों?कास हमनें पूर्ण तैयारी कर ठीक समय पर ठीक-ठीक फैसलों से ठीक-ठाक चुनाव किया होता तो सच में दोष हमारा होता। 
लेकिन हमनें स्वयं को दोष देना सीखा नहीं। किसी से सिखाया भी नहीं। सभी ने बस सच बोलने कि बात की। पर सच तो वह है जो हमें सच लगती है, दिखती है। 
बस यहीं कारण है और हम मुठ्ठी भर-भर चुनते गए। 
और उस चुनाव का सच यह है कि हमारे किसी भी चुनाव में हमारा सच शामिल नहीं। बस चाहत है,जरूरत शामिल है। 
कास हम ठीक समय पर ठीक-ठीक चुनाव कर पाते तो दोषी भी हम होते। गलती भी हमारी होती। सुधार भी हमारा होता।
बदलाव भी हमारा होता।

-पीयूष चतुर्वेदी 

हर उम्र की अपनी कहानी होती है

सभी के जीवन में उम्र अपनी कहानी स्वयं लिखता है। हर उम्र की अपनी कहानी होती है। जिसे पहला कहता है।
दूसरा सुनता और तीसरा देखता है।
और जिसकी उम्र होती है वह उसे जी रहा होता है। 
लेकिन हर उम्र में एक बात समान होती है वह है आकर्षण। 
जीवन आकर्षण के सिध्दांत पर आगे बढ़ रहा होता है। हम जिसके प्रति आकर्षित होते हैं उसके करीब खींचे चले आते हैं। बढ़ते उम्र और बढ़ती समझ और उपयोगिता के क्रम में आकर्षण का केंद्र बदलता भी रहता है।
जैसे बच्चों को बचपन में खिलौने पसंद होते हैं और बड़े होने पर खेल। 
मुझे दो का पहाड़ा अब तक याद है लेकिन उन्नीस के पाहड़े में मैं खो जाता हूं। बचपन में मिले लोगों के नाम उनके आवाज सुनकर भी याद आ जाते हैं लेकिन २ मिनट पहले बोझिल मन से मिले लोगों के नाम मैं भूल जाता हूं। 
जैसे मैं हर बार एक हीं बस से सफर करना पसंद करता हूं। भूख लगने पर हर बार उसी होटल में खाना पसंद करता हूं जहां पहले खाया था और मुझे भोजन स्वादिष्ट लगा था। 
जीवन से जुड़े कुछ आकर्षण हमारे संस्कार से भी जोड़कर देखें,सुने और कहे जाते हैं। जहां चरित्र संस्कारवान लोगों से दबा हुआ आख़री सांसें ले रहा होता है और आंखें अपने देंह, बुद्धि, मन सभी से लड़ाइयां लड़ रही होती हैं।
जैसे मेरे बाबा को बैजन्ती माला पसंद थी उनकी फिल्में देखने के लिए बाबा चुपके से जाया करते थे।
मेरी फूआ को शाहरुख खान और मां को मनोज वाजपेई बहुत पसंद हैं। आज भी उनकी फिल्में टीवी पर आती हैं तो नज़रें स्थिर हो जाती हैं। 
ऐसा सिर्फ फिल्मी पर्दे पर चिपके लोगों के साथ नहीं होता ऐसा गली मुहल्लों में भी होता है।
ऐसे और भी तमाम उदाहरण हैं। 
जैसे कुछ ने प्रेम विवाह किया। कुछ करना चाहते हैं और कुछ कर नहीं सके। तीनों स्थिति में आकर्षण मूल है। आकर्षण के सिध्दांत पर आप सफल भविष्य की कामना निश्चित नहीं कर सकते। और यह किसी भी क्षेत्र में पूर्णतया संभव नहीं है। यह हमें किसी भी चौराहे पटक सकता है।
हमें गलत रास्तों पर भी ला खड़ा करता है। कुछ उस रास्ते को छोड़ आते हैं तो कुछ वहां भटकते हैं। जो भटकते हैं वह उनका फैसला है जो नहीं भटकते वह भी फैसला निजी है। परंतु चरित्र दोनों के ही तौले जाएंगे। चर्चा दोनों पर समान होगी। 
क्यों? 
क्योंकि चर्चा कर रहा व्यक्ति बुराई करने के प्रति आकर्षित है।

प्रकृति के शांत रहने जितनी शांति।

नदी के बहने जितनी शांति।

हवा के चलने जितनी शांति।

झरने के गिरने जितनी शांति।

शिशु के रोने जितनी शांति।

बच्चों के हंसने जितनी शांति।

तरूण के मौन जितनी शांति।

वृद्ध के कराहने जितनी शांति।

प्रकृति के शांत रहने जितनी शांति।

इतनी हीं शांति की आवश्यकता है। 

शहर की शोर जितनी शांति सोने नहीं देती।

Thursday, January 19, 2023

वो अभी भी वहां किताबें चुन रहीं थीं

#यूनिवर्सल_बूक_हाऊस 
#वाराणसी

भैया #विनोद_कुमार_शुक्ल_जी की किताबें हैं? 

नहीं भैया।

राजकमल प्रकाशन की किताबें तो होंगी।

हां, B नं. ब्लाक में हैं। 

हिंद युग्म की?

हां, D नं. ब्लाक में। 

लगभग ६५ वर्ष की एक बूढ़ी महिला कांपते हाथों से फिंगर प्रिंट पब्लिकेशन की बंगाल साहित्य की हिंदी अनुवाद की पुस्तकें चुन रहीं थीं। 
मैं बगल के दूसरे ब्लाक में हिंद युग्म की। 
मैंने #दिव्य_प्रकाश_दूबे जी की शर्तें लागू को उठाया उसे सूंघा और हाथ में रख लिया। 

#दीवार_में_एक_खिड़की_रहती_है पढ़ी है मैंने उनकी उसके बाद उनकी किताबें आसानी से मिलती नहीं। बूढ़ी महिला ने मुस्कुराते और कांपते हुए होंठों से बोला।

मैंने भी उन्हें बहुत पढ़ा है। मैं उनकी #एक_चुप_सी_जगह ढूंढ रहा था। आनलाईन महंगी मिल रही है। आप #मानव कौल को पढ़ेगी तो उनके लेखन में शुक्ल जी की खुशबू आती है। वैसे लखनऊ के कपूरथला के #युनिवर्सल_बुक_सेंटर में शुक्ल जी किताबें आसानी से उपलब्ध हैं।

मैंने उन्हें नहीं पढ़ा। लेकिन सुना है। दिव्य की #अक्टूबर_जंक्शन पढ़ी है मैंने।  
#शर्तें_लागू शायद उनकी पहली किताब थी। आप #इब्नेबतूती पढ़िए ,उनकी सबसे बेहतरीन किताबों में से एक है। 

क्यों भैया है आपके पास? उन्होंने ने दुकान वाले से पूछा।

नहीं, अभी तो नहीं।

आप रखते हीं नहीं है।

शर्तें लागू होगी तो वहीं दे दीजिए। 

नहीं उनकी #मसाला_चाय है। 

क्या है #मसाला_चाय में?
कैसी है बेटा यह? 

बहुत अच्छी है। 
कहानियों का संग्रह है। #फिल_इन_दी_ब्लैंक्स बहुत अच्छी एक कहानी है उस किताब में। 

मैं अक्सर पुराने लेखकों को पढ़ती हूं। 

नए लेखक भी बहुत अच्छा लिख रहे हैं। आप उन्हें भी पढ़िए। #हिंद_युग्म ने अभी #हिंदी_साहित्य में क्रांति लाने का काम किया है। 
#सत्य_व्यास जी की #चौरासी सबसे बेहतरीन उदाहरण है। 

हम्म, मैंने बागी बलिया पढ़ी है उनकी। 

हां बहुत अच्छी उपन्यास है।

आप पुराने लेखिकाओं में #शिवानी जी को पढ़िए उनकी #कृष्णकली #चौदह_फेरे # #अतिथी #सुरंगमा हिंदी साहित्य की बेहतरीन 
पुस्तकों में से एक हैं। 

हां बेटा लेकिन अब समय नहीं मिलता आंखें दुखती हैं। तुम क्या करते हो तुम बंगाल गए हो कभी? क्योंकि तुमने #शिवानी जी को बहुत पढ़ा है। 

हां मैं वहां नौकरी करता था। अभी कानपुर में हूं। 

तभी मैंने सोचा। मैं भी बंगाल में रही हूं। अब रिटायर हो गई हूं तो यहीं रहना होता है। वहां तो साहित्य की नदी बहती है। किताबें भी बहुत सस्ती मिलती हैं। 
यहां एक तो महंगी और पूरी भी नहीं। 

मैं हंस दिया, दुकान वाले भैया मुस्कुरा रहे थे। 
उन्होंने #मसाला_चाय अपने हाथ में लिया मैं #शर्तें_लागू और #गांधी_चौक को लिए बाहर निकल आया। 

 वो अभी भी वहां किताबें चुन रहीं थीं।

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